बेनाम इश्क़
बेनाम इश्क़
इश्क़ का कोई नाम या मक़ाम होना ज़रूरी क्यूँ होता है,
इश्क़ का एक तरफ़ा या दो तरफ़ा, नाक़ाम या मुक़म्मल होना ज़रूरी क्यूँ होता है !
क्या सिर्फ़ एक एहसास कि कोई है जो हमारे साथ है,
कोई है जिसके साथ एक लम्हा भी पूरी ज़िंदगी से लंबी लगे, काफ़ी नही होता है !
कुछ पल उनके ज़िंदगी से मिल जाये, तो ऐसा लगे हम भी ख़ास हैं,
वो जब पूछ लें कैसे हो, खाना खा लिया, तो फिर से लगे हम और भी ख़ास हैं !
बिना किसी रोक टोक के, बिना किसी क़ैद के,
बिना किसी नाम के, बिना किसी मंज़िल के,
सिर्फ़ इतनी उमीद और कोशिश, बटोर लो जितने भी लम्हे मिले, फिर पूरी ज़िंदगी मिले ना मिले !
इस एहसास के साथ रोज़ नींद से आँखें मलके उठना, आज फिर हमसे हमारा हाल पूछा जायेगा या नही!
और जब वो पूछें फिर से, कैसे हो, खाना खा लिया, लगे उपरवाले से पूछ लें, ये सच है या नही!
उन्हें बस ये बताना है, हैं वो ख़ास हमारे लिये,
फिर चाहे पूरी ज़िंदगी मिले या वो बितायें चंद लम्हे यादों के लिये!
उन्ही लमहों में पूरी ज़िंदगी गुज़ारना भी मंज़ूर है,
इसके अलावा, इश्क़ के एहसास के लिये क्या ज़रूरी है !
इश्क़ का कोई नाम या मक़ाम होना ज़रूरी क्यूँ होता है,
इश्क़ का एक तरफ़ा या दो तरफ़ा, नाक़ाम या मुक़म्मल होना ज़रूरी क्यूँ होता है !