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Rohit Agrawal

Abstract

3  

Rohit Agrawal

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बचपन

बचपन

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414


हाँ मैं फिर से बच्चा होना चाहता हूं

बचपन में फिर से खोना चाहता हूँ


ऊब गया हूँ समझदार होकर

जिम्मेदारियों का बोझ 

ज़बरदस्ती ढोकर

उफ्फ ये कुदरत का 

कैसा दस्तूर है 


हर इंसान बड़ा होने पे 

 कितना मजबूर है 

क्यूं नहीं थमती 

ये ज़िन्दगी की रफ्तार

क्यूं नहीं करता कोई

बचपन पे ऐतबार


क्यूं इतनी जल्दी

बचपन छिन जाता है

जवानी का दौर 

बेवक़्त आ जाता है 

देख के बचपन को करते शैतानी

मैं उनमे फिर से एक होना चाहता हूँ


हाँ मैं फिर से बच्चा होना चाहता हूँ 

बचपन में मैं फिर से खोना चाहता हूँ 

टूटे हुए खिलौने पे

 रोना चाहता हूँ 

अपने आप को बारिश में

भिगोना चाहता हूँ 


नन्हे हाथ पर फौलादी इरादे 

हिमालय को समंदर में 

डुबोना चाहता हूँ 

हां मैं फ़िर से बच्चा होना चाहता हूँ 

बचपन में मैं फिर से खोना चाहता हूँ


याद आता है माँ का वो आंख दिखाना

डांट डपट के रोटी खिलाना

ज़बरदस्ती नहला के पाउडर लगाना 

खेल के थक जाऊं तो पैर दबाना 


अपने आँचल में लिटा के लोरी सुनाना

परियों के देश की सैर कराना

रूठ जो जाऊं तो रो के मनाना

मेरे माथे को चूम के प्यार से जगाना


मैं यादों के इस समंदर में 

खुद को डुबोना चाहता हूँ

हाँ मैं फिर से बच्चा होना चाहता हूँ 

बचपन में फिर से खोना चाहता हूँ


दिन भर की भाग दौड़ में 

 कुछ छूट रहा है

अपने आप से खुद का रिश्ता 

यूँ टूट रहा है 


हर शख्स बनावटी मुखौटा

हर रोज़ लगाता है 

अपने आप को हर वक़्त

खुद से छुपाता है 

खुल के जीना हर इंसान


भूल गया है 

आखरी बार कब हंसा था 

ये बताना पड़ता है

तू हंसता भी है दोस्त 

ये जताना पड़ता है 

समझदारी का ये बोझ

खोना चाहता हूँ 


हाँ मैं फिर से बच्चा होना चाहता हूँ 

बचपन में मैं फिर से खोना चाहता हूँ।


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