एक सफर
एक सफर
यूँ ही चल दिये इक दिन,
अनजाने सफर पर हम
नए रास्ते को खोजने,
बिना मंजिल का पता लिए !
कुछ दूर चले ही थे कि,
मोड़ कुछ यूं आए..
एक ओर था अँधेरा घना,
तो दूसरी ओर रोशन थे दीये !
सोचा क्यों न इक शाम बिताये,
होके कुछ तन्हा...
वैसे भी जमाने बीत गए,
खुद को खुद से रु-ब-रु किये !
इस रफ़्तार-ए-जिंदगी में,
जीने की कशिश खो सी गई
सुकुन पीछे रहता गया,
और गम हमसफ़र हो लिए !
इसी सोच में थे मशगूल,
न जाने कब रात हो गई..
मंजिलो की जुस्तजू में चले तो
खुद से मुलाक़ात तो हो गई !
