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Pratibha Joshi

Abstract

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Pratibha Joshi

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बचपन जवानी बुढ़ापा

बचपन जवानी बुढ़ापा

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बचपन जवानी बुढ़ापा

हो रही सभा पुनः सभागार में

बैठे तीनों समयानुसार मुख लिए अपना अपना

मुस्कुराता बचपन मदमस्त जवानी और मुरझाया चेहरा लिए बुढापा।


मशगूल तीनों अपनी तरंगों में देख अनगिनत भावों को

बोला नटखट बचपन पहले हैं मेरे अनंत प्रश्न.

सरताज मैं प्रश्नचिन्हों काअल्पविरामों का कमी पूर्ण विराम की

होठों पर हंसी ज्यादा है आँखें रहती सदा मेरी गोल


जोड़ता रिश्तों को मैं चलता साथ देते सदा मेरे दो साथी

खुलता जाता ज्ञान का भंडार आगे मेरे

मिलती जाती भावनाएं मुझे से अनेक

जोड़ता घटाता बढ़ता जाता आगे पल पल मैं


होती संग संग आशाएं मेरी अनेक

बन पंछी लिए अपने पंखो को बन जाती दुनिया मेरी एक।

मुस्कुराकर बोली जवानी - धन्यवाद मेरे बचपन तेरा

 पंहुचाया तूने मुझे इस मोड़ रिश्ते कई दिए उपहार


आशाओं को तेरी बदलना हकीकतों में अब मेरा ये काम

उलझा बुझा जिन प्रश्नों में सुलझा जान उन्हें मुझसे

होता शुरू मेरा सफ़र यहाँ से उत्तर देने हैं बहुत से

होती हर सुबह मेरी आशाओं से होती खत्म इंतजार अगली पे


हिला जाती अडचनें मुझे चढ़ा जाती त्योरियां चेहरे पे

करके अपना हौसला बुलंद हटाता जाता उन्हें मैं

जवानी हूँ मैं साहस मेरा नाम हूँ कभी रौद्र कभी मृदु बन जाता

बचपन तेरी बुरी बीती को भुलाकर करता नयी शुरुआत


थाम लेता कई बचपनों को मैं निभा जाता बुढ़ापे अनेक

चढ़ते चढ़ते सीढियाँ ऊंचायाँ की होता शुरू मेरा उतार।

थामे हाथ जवानी का झुर्रियों भरे अपने हाथों से

लिए संग अपने उदासियाँ बोला बुढ़ापा फीकी हँसी से - 


लेता हूँ थाम हाथ तेरा उस उतार पर लिए अपना मौन

शुरू होता सफ़र मेरा यहाँ से देने मुझे कई विश्राम 

दे देता खुद ही अपने प्रश्नों के उत्तर मैं खो जाते मेरे अल्पविराम 

बचपन सुन विस्मयचिन्हों को तेरे बदला मेरे अनुभवों ने


दौर मेरा यह बड़ा कठिन जाते कई साथी पीछे छूट 

जवानियाँ भागती मोड़ मुख अपना उपहास देती उपहार

होता उदास मेरा अनुभव साथी बनते कई बचपन 

जानूं लौट जाना मुझे वहीं जहाँ से बचपन आया  


हुई बर्खास्त सभा सभागार कीसरकते ही सूई समय की 

गए लौट अपनी सूइयों पर तीनों करते इंतजार अगले पल का।


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