बच्चा
बच्चा


बच्चा
बस जी रहा होता है ,
कुछ जो बटोरा है उसने अपने माहौल से,
उसी को लौटने की अधूरी कोशिश
प्रेम, ईर्ष्या, द्वेष, राग – विराग
सभी में थोड़ी बचपने की मिलावट
कर देता है,
भा जाता है सभी को, पर कितने
रखते हैं संजो कर बचपन को,
फिर बस तारीफ के कसीदे तो पढ़ते हैं,
पर कतराते हैं बचपन को समेटने से,
अनायास या सायास
बच्चा सीखता है, अवलोकन से,
बनता है अपने समाज का प्रतिनिधि,
वो जो उसकी मिलावट होती है,
वही कारक है सतत परिवर्तन का ,
तो दे दें ऐसा मसाला
जिससे गढ़ सके
एक स्व्पनिल समाज
जिसमे
न्याय हो, समानता हो
मानवता हो, सततता हो,
पर ये तो तब होगा ,
जब हम देंगे इसके अवसर बच्चों को ,
फिर गढ़ते हैं खुद को,
गढ़ने को और बेहतर,
की जब बचपन मिले इसमें
इस बार मायूसी ना हो।