अवसाद एक अनसुनी आवाज
अवसाद एक अनसुनी आवाज
मैंने देखे हैं कई चेहरे,
हँसी के पीछे उदासी छिपाते हुये,
जोकर बन कर सबको हंसाते हुये।
कई दफा देखा !
उन्हीं चेहरों को मैंने,
किसी कोने में बैठकर आँसू बहाते हुये,
थरथराती सांसों को सीने में संभाले हुए !
बैठा था एक साया एक कमरे के कोने में,
सोच विचारों के धुयें में डूबता हुआ,
तलाश रहा था स्वंय को ??
औऱ स्वंय के बिखरे हुए वजूद को..!
कुछ फुसफुसाहटें थोड़ी दूर से आ रही थी,
पागल होने का उस पर इल्जाम लगा रही थी,
जूझ रहा था जो मन से जहन तक
एक घमासान में,
उलझ गया था जो कहीं विचारों के तूफान में,
भीड़ सारी उसे सभ्य समाज पर धब्बा बता रही थी !
किसी तमाशे जैसा ये अजीब दृश्य क्यूँ है,
मानसिक रोगी समाज में इतना अदृश्य क्यूँ है ?
क्यूँ नहीं समझता कोई ?
जिंदगी औऱ पीड़ा की उस दूरी को,
हादसों में डूबी जिंदगी औऱ
हँसते चेहरे की उस मजबूरी को,
सभ्य समाज की नीँव का दावा करने वालों,
थोड़ा तो अब अपने होश संभालो !
सवेंदना की उम्मीद रखकर
संवेदनहीनता करने वालों,
ये भी इस समाज में जीने के हकदार हैं।
पागलपन नहीं ये मानसिक अवसाद है।
जादू टोना का नहीं कुछ अनकहे हादसों का शिकार हैं।
ये बहिष्कार इसकी सजा नहीं,
इसका इलाज सबका साथ औऱ सबका प्यार है।