औरत की अंतरात्मा
औरत की अंतरात्मा
मैं सिर्फ़ घर को ही चलाती हूं
चलो आज मैं तुम्हें बताती हूं
जन्म से अपनी कहानी सुनाती हूं
जिस घर में भी मेरा जन्म हुआ
उस घर को जन्नत बनाती हूं
उठाया जब भी पिता ने गोद में
उन्हें पिता होने का एहसास कराती हूं
चलने लगते जब भी मेरे छोटे छोटे
कदम मैं अपने मां के गले लग जाती हूं
नासमझ हूं लेकिन जब भी मुझे देख
मां - बाबा की आंखें भर आती हैं
मैं तुरंत ही उनके आंसू पोंछ आती हूं
मेरी छोटी छोटी आंखें हैं मगर
उनमें सपने बड़े बड़े भर जाती हूं
उम्र एक जगह ठहरती ही नहीं
तभी तो मैं छोटी से बड़ी हो जाती हूं
जो भी मेरे सपनों ने दिखाया मुझे
कोशिश में उसे पूरा कर जाती हूं
वजूद बनाने में अपनी, पिता का
सर फक्र से ऊंचा तो कर जाती हूं
मगर फ़िर मुझको बढ़ते देख उन्हीं
की आंखो में जो उलझन है उसे
पढ़ने में मैं थोड़ा थम जाती हूं
क्यूं मेरा संसार इतना छोटा है
ये सवाल भी खुद ही से कर जाती हूं
आपकी उलझनों को तो मैंने पढ़
लिया मगर मेरी उलझन कौन पढ़ेगा
ये सवाल पिता से कर जाती हूं
जवाब में वो सिर्फ़ इतना ही कहते
हैं कि, बेटियां जिस घर पैदा हुई है
उस घर की नुर ही ऐसी है, एक
दिन उसे बाबुल का घर छोड़ जाना
है दुनिया की दस्तूर ही कुछ ऐसी है
फ़िर क्या, मेरा संसार बदल जाता है
मुझको सुनने के लिए अब पिता नहीं
जिसे मैं पति कहती हूं, वो आता है
फ़िर सब कुछ अपना भूल जाती हूं और
उस नए घर को एक सिरे से सजाती हूं
नए रिश्तों में बंध कर,, मैं बहू, भाभी,
और ना जाने क्या क्या बन जाती हूं
जिंदगी के मोड़ में एक और मोड़ आता है
सब रिश्तों से अलग एक मां भी बन जाती हूं
अब एक नए संघर्ष में पति और बच्चे के
बीच भी अपना धर्म मैं निभाती हूं, क्या
सोच कर आई थी इस जहां में, हर रोज़
ही मैं यहां उस सोच में एक बार को मर जाती हूं
मेरा क्या, मैं तो आई इस जहां में
एक बार को इस जहां का दस्तूर
देखने और फ़िर चला कर इस पूरे
जहां को मैं वापिस लौट जाती हूं
तुम क्या सोचते हो
मैं सिर्फ़ घर को ही चलाती हूं...
