अनुभव: एक तीर्थ यात्रा
अनुभव: एक तीर्थ यात्रा


बहुत वक्त बीता तीर्थ स्थल अनेक घूमे
पवित्र नदियों में डुबकी लगाई
साधु-सन्तों के आर्शीवचन पाये
न जीवन की परिभाषा बनी
न जीने का सलीका आया।
वक्त बीतता गया वक्त ने समझाया
अनुभवों का रंग बदलता रहा तब पता चला---
हाथ पकड़ने/और आत्मा के तार थामने में फर्क है।
तभी पता चला--- प्यार का अर्थ
दूसरे की ओर झुकना नहीं है
न ही--- साथी का अर्थ मात्र सुरक्षा पाना है।
यह भी जाना कि उपहार का लेन-देन
किसी सम्बन्ध का वायदा नहीं है।
भ्रमण के अनेक दौर बीते,
अहसास बदलते रहे और--- पता चला कि---
बड़े होने का मतलब है हार को---
अपना सिर उठाकर और आंखें खोलकर झेलना
न कि बिलख उठना बच्चों की तरह।
यह भी जाना कि--- आज की सड़क आज ही बनानी होगी,
पता नहीं कल की भाग्य रेखा क्या है ?
उम्र के अनुभवी दौर में पता चला कि---
धूप और रोशनी सीमा से ज्यादा मिले तो जला देते हैं।
यह भी समझ आया कि--- अपना बाग खुद ही बनाना होगा
फूल उगाना होगा--- एक सपन फूल--- सिर्फ अपने लिए
उस इन्तज़ार के बिना कि कोई और आएगा और फूल उगाएगा।
जब यह सब सीख जाते हैं हम तब--- हो जाते हैं अन्तहीन तीर्थ के यात्री।