STORYMIRROR

Prashant

Abstract

4.5  

Prashant

Abstract

अकेलापन

अकेलापन

1 min
238


अकेला-अकेला सा लग रहा है ,हर कोइ अपना

बता नहीं पा रहा हूँ मेरा सपना।

कोइ तो सुनो, कोइ तो सुनाओ

हर कोइ लग रहा है , अकेला-अकेला सा अपना


ढूँढता हूँ उन्हे , ढूँढता उनकी बाते

सब कुछ चली गयीं

जब मोबाइल हाथ मे आते

बता नहीं पा रहा हूँ किसी को मेरा सपना

क्यु लग रहा है हर कोइ अकेला अकेला सा अपना


सोचता रहता हूं आगे कोइ किसी को देखेगा

कब अपने हाथ से मोबाईल को फेकेगा 

तब बहुत बाते करुंगा और बताऊंगा अपना सपना 

पता नहीं क्यों ? लग रहा है हर कोइ-

अकेला अकेला सा अपना


याद आ रहा है मेरा बचपन

जब हम खेलते थे गिल्ली-डंडा और पतंग

जैसे पतंग उड़ जाता है वैसे उड़ गए मेरे पुराने खेल

ढूँढता हुं उन्हे , ढूँढता वही यादे 

पता नहीं क्यों लग रहा अकेला अकेला सा अपना

बता नहीं पा रहा हूँ मेरा सपना।

          


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract