अजन्मा दर्द
अजन्मा दर्द
परियों की कहानी
सुनती हूं मां की जुबानी
सहज नहीं है...मूक है...तन्हा है
एक अंजाना डर पनपा है!
तन्हाई की कोख में
एक भ्रूण की तरह
पनप रही मैं…!
परेशान नहीं हूँ
पर भूख लगती है
अपनेपन की
सच्चे भावों की…!
पोषित होता रहे
आत्मबल मेरा कि
पनप रही मेरी देह
अजीब द्वन्द भरे
मूक उद्गारों में;
बोझ नहीं रहना मुझे
किसी काँधे की दरकार नहीं;
दिन रात..,.जलती बुझती,
लड़ती झगड़ती...लालायित सी,
दबी हुई सी...गहरी श्वास भरती,
बस जन्म लें ख्वाहिशें,
और…. साकार होकर !
मुट्ठी खोलूँ जब भी मैं,
उड़ जाएँ मुट्ठी के परिंदे
खोजने अपना आसमान,
बिना किसी बंधन,
बिना किसी डर के;
ना बिकते हों कफ़स फिर
खुलकर बाजार में…;