अजीब सी भिन्नता
अजीब सी भिन्नता
अजीब सी परछाई क्यो है,
भीड़ में ईतनी तन्हाई क्यों है !
जो अच्छाई को ना खोज सके,
वह बिखरी हुई ख़ामोशी क्यों है !
लहू को भी अलग बता सके,
वो भेदी भिन्नता क्यो है !
इतनी विशेष मेदनी में क्यो यह,
एक भी हसता चहेरा नहीं है !
आख़िर क्युं खोया सा हे तू,
कभी यूँ ही मुर्ज़ाया सा हे क्यूँ !
तू भी कभी यूँ ही मुस्कुरा,
कभी तो किसी को हँसा !