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Mahendra Narayan

Abstract

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Mahendra Narayan

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आँखें मल रही है

आँखें मल रही है

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अनवरत तृष्णा की साँसें चल रही हैं

भोर आशा की भी आँखें मल रही हैं।


कर्म ने दी है पटखनी यूँ भाग्य को

अब सफलता अंक में ही पल रही है।


जब से मर्दन हो गया अभिमान का

लोभ की अदृश्य छाया गल रही है।


सुख की परिभाषा बनाकर स्वयं ही

प्रीति भौतिकता से मिलकर छल रही है।


जब से सौदा हो गया दुःख आदमी में

सुख में प्रातः ओस से भी जल रही है।


महज मन की वृत्तियाँ दूषित नहीं है

तन की डाली पर तबाही फल रही है।


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