आँगन
आँगन
मेरे आंगन का वह चहल पहल
आज पड़ गई है फीकी
जहां कल गांव भर की औरते खिल खिलाती
छोटी बड़ी बिरादरी का न पता था
सब के हाथ में कुछ काम जरूर था।
चाची मौसी ताई ही था सबका नाम
आँख देख भांप जाती थी मन
उनमें भी कोई अंदर से थी दर्द भरी
पर कोई न कहती थी उसे बेचारी
हर दिल की बात वहां था खुला पन्ना
बहाना, तड़पना, न बदलना था जीना
खुद की किसको पड़ी थी
रोज की जिंदगी राज की बात थी।
वहां से निकल कर जब एक लाडली
दीवारों से बंटी दुनिया में खुद को टटोली
हाथ से छूट चुका था वह सांझा चूल्हा
ठहाकों के गुब्बारे और स्पर्श सा हल्ला।
याद आने लगा वह मां का आंगन
फीका है जिसके सामने सारा धन।