आखरी सीख
आखरी सीख


इस ४*६ क॓ ताबूत में बड़ी घुटन सी होती थी।
दिल में कई डर छिपा रखे थे
रूह में कई सवाल दबा रखे थे
कहीं पीछे ना रह जाऊँ,कहीं किसी से छोटा ना रह जाऊँ
कहीं किसी के दर्द का कारण ना बन जाऊँ।
कहीं सफलता की सीढ़ी चढ़ते चढ़ते ,
अपनों को अकेला ना कर जाऊँ
डर डर के जीवन ये बिता दिया
जो था जितना था, सब अपनों पे लूटा दिया
आगे बढ़ने की चाह में
सारे पनपते सवालों और भय को
अपने ही सीन॓ में कहीं सुला दिया ॥
आखिर जब मौत ने आ के अपनी लोरी सुनाई
अपनों से दूर हो जाने की चिंता फिर से सताने लगी
कहीं सब बिखर ना जाए,
जिन रिश्तों को प्यार से सींचा हैं ,
कहीं लालच की आग उन्हें निगल ना जाए
पर मौत ने मेरी एक ना सुनी
और जाना ही पड़ा मुझे
सब कुछ पीछे छोड़ आना ही पड़ा मुझे ॥
आज मृत्यु के कई साल बाद
कुछ अमूल्य सत्य समझ आएं हैं
यह धन, दौलत, व्यापार हैं केवल मोह-माया
किस नई ऊँचाई को हासिल करने के लिए
हम सब हैं दौड़ रहे ?
किसके लिए हैं दिन-रात एक कर पसीना बहा रह॓ ?
ज़िदगी के इस रेस में कभी फिसल जाओ,
तो कोई पाप नहीं
ज़िदगी के इस दौड़ में कभी अंतिम स्थान प्राप्त करो ,
तो कोई अपराध नहीं
हार-जीत तो जीवन के दो पहलू हैं
हमेशा जीतना ज़रूरी नहीं
और सदैव हार ही होगी, ऐसा निश्चित नहीं
सबको खुश रखना तुम्हारी जिम्मेदारी नहीं
जो भी करो अपने संतुष्टि के लिए करो
और बिना डरे, बिना रुके
केवल दृढ़ निश्चय के साथ आगे बढ़ो ॥
जिनके डर से जीवन भर भागता रहा।
आज उन्हीं के सामने सीना तान के खड़ा हूँ
जो तब ना समझ पाया, वो आज मैं समझा हूँ ॥
अब मुझे इस ४*६ के डिब्बे का कोई खौफ़ नहीं।
आज़ाद हूँ मैं अब !
उन पुरानी ज़ंग-लगी बेड़ियों से,
झूठे रिश्तों के चक्रव्यूह से,
धन और सम्पत्ति की लालसा से,
अपने अतीत से,
आज़ाद हूँ मैं !!