आभा
आभा
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सुनो !
हमेशा तुम
अथाह अनन्त प्रेम की
बात करते हो
मेरी हँसी विस्तृत व्योम सी
विस्तार लेती है
तुम भी साथ हँसते हो।
देखा है कभी ?
मेरी और अपनी
हँसी का विभेद।
तुम्हारी हँसी
काली अंधेरी गुफ़ा से
निकली एक ठंडी हँसी है
जिसमें अथाह प्रेम के बाद भी
बिच्छू के डंक सी चुभन है।
चुभन ?
मेरे बचे हुए
लघु टुकड़े अस्तित्व का ?
या बची हुई टूटी फूटी हँसी का ?
सुनो ! मेरी हँसी विस्तृत
नभ का नीलाभ लिए है
क्यों ?
तुम्हारे अस्तित्व की ऊंचाई
मेरे मन को
ऊंचाई देती है
नीली आभा से प्रदीप्त करती है
प्रेम ...
मात्र उद्घोष नहीं
नीली आभायुक्त व्योम है
अंधेरी ठंडी गुफा का
डंक मारता बिच्छू नहीं।