सहयात्री
सहयात्री
वह महुए का एक विशाल हरा भरा वृक्ष था, वर्षो पुराना।अनेकों तूफानों, बरसात के थपेड़ों, आंधियों के प्रहारों को झेलता हुआ आज भी ज्यों का त्यों खड़ा था......अटल, निश्चल। उसके ऊपर इन आंधियों, तूफानों का कोई असर नहीं होता था। आंधियाँ आती थीं उस वृक्ष के पत्तों को उड़ा ले जातीं.....डालियों को झकझोर देतीं..उसकी डालियाँ टूट-टूट कर गिर पड़ती, उनका स्थान नई डालियाँ ले लेती। जेठ की कड़ी धूप पड़ती....वृक्ष की पत्तियाँ सूख जाती.....लेकिन वर्षा की पहली फुहार पड़ते ही उस वृक्ष के निर्जीव पड़ते शरीर में पुनःरक्त का संचार होने लगता। कुछ ही दिनों बाद वह फिर नयी-नयी कोमल पत्तियों से लद उठता। जेठ की तपती दोपहरी, घनघोर बारिश, में वह यात्रियों का शरणदाता बन जाता था।
प्रेम बाबू अपने पक्के मकान के बराम्दे में बैठे हुए जब उस महुए के वृक्ष को देखते तो उन्हें एक अपूर्व सुख की प्राप्ति होती थी। जिसकी अनुभूति उन्हीं को और केवल उन्हीं को हो पाती थी। वह सुख एक ऐसा स्वार्गिक सुख होता जिसे वह अनुभव कर सकते थे, लेकिन उस आनन्द का वर्णन किसी से नहीं कर सकते थे। हाँ उस समय अनायास ही उनके होठ सूरदास का यह पद गुनगुना उठते.....ज्यों गूंगा मीठे फल का रस।
एकान्त में बैठे-बैठे जब प्रेम बाबू महुए के वृक्ष को लगातार देखते तो धीरे-धीरे उन्हें उस महुए के वृक्ष की शक्ल बदलती हुई सी लगती। धीरे-धीरे वह वृक्ष एक मानवीय आकार ग्रहण करने लगाता। पहले उसका पैर दिखलायी पड़ता फिर उस वृक्ष का तना धड़ में बदल जाता फिर भुजाएं....गला और अन्त में चेहरा। जब प्रेम बाबू वृक्ष की उस परिवर्तित शक्ल को समग्र रूप में देखते तो चौंक पड़ते। यह तो उनका अपना ही प्रतिबिम्ब है। वे उस प्रतिबिम्ब को और ध्यान से देखने लगते। हाँ यह निश्चय ही उन्हीं का प्रतिबिंम्ब है और तब उनका सीना गर्व से फूल उठता। उनकी गर्दन थोड़ा और तन जाती, सफेद घनी मूंछों के कोने थोड़ा और ऊपर उठ जाते।
कभी-कभी उन्हें लगता शायद वह वृक्ष उनसे अधिक ऊंचा उठना चाहता है उन्हें नीचा दिखाना चाहता है और तब वे उस वृक्ष से अपनी और अपने परिवार की तुलना करने लगते। प्रेम बाबू स्वयं भी तो एक महुए के वृक्ष की तरह हैं। उनका परिवार भी इसी महुए के वृक्ष की तरह फैला हुआ है। अत्यन्त सघन, सदैव हरा-भरा रहने वाला। एक लड़का, दो लड़कियाँ, बहू, दामाद, नाती-पोते सभी हैं। लड़का शहर में सरकारी नौकरी कर रहा है। अच्छी खासी तनख्वाह पा रहा है। बहू, बच्चे भी शहर में ही रहते हैं। गर्मी की छुट्टियों और तीज त्योहारों में सब आते ही रहते हैं। बड़ी लड़की की शादी प्रेम बाबू ने सर्विस पीरिएड में ही कर दी थी। रिटायर होने के तुरन्त बाद ही छुटकी के भी हाथ पीले हो गये थे। सभी सुखी थे। फिर भी प्रेम बाबू को कोई दुःख हमेशा सालता रहता था। उन्हें सदैव एक विचित्र किस्म का अकेलापन महसूस होता। उन्हें लगता उनका जीवन भी उसी महुए के वृक्ष की तरह ही है एकाकी.......अकेला। जिसके नीचे धूप से, वर्षा से बचने के लिए यात्री आते हैं। फिर वर्षा रूकते ही चले जाते हैं और वह वृक्ष अकेला खड़ा रह जाता है....भाग्य को कोसता हुआ।
इस महुए के वृक्ष के साथ प्रेम बाबू की अनेकों स्मूतियाँ जुड़ी हुई थीं। क्योंकि यह वृक्ष बचपन में उन्होंने ही लगाया था।उसी वृक्ष के आस-पास सीसो पाती और कबड्डी खेलते हुए उन्होंने एम0ए0 पास किया। और जब एक अध्यापक के रूप में नियुक्त होकर वे सहारनपुर जा रहे थे उस समय महुए की छांव से हटने का दुःख पहली बार उन्हें महसूस हुआ था।सहारनपुर में एक अध्यापक और एक प्रधानाचार्य के रूप में बिताए हुए चालीस वर्ष....महुए की छाया और फूलों की भीनी, मीठी सुगन्ध से बिछड़ कर बिताए हुए चालीस वर्ष।
प्रेम बाबू को कुछ-कुछ याद है....उन्हें रिटायर हुए करीब पन्द्रह साल पूरे हो रहे थे। सहारनपुर में चार दशक बिताने के बाद जब वे यहाँ गाँव में पूरे परिवार के साथ आकर रहने लगे, तो शुरू में गाँव का एकान्त उन्हें अच्छा नहीं लगा। फिर धीरे-धीरे वे उसके आदी हो गये।धीरे-धीरे सब ऐडजेस्ट हो गया था। सारी गृहस्थी यहीं बस गयी। खेत और कच्चा मकान पहले का था ही। कुछ दिनों बाद ही उन्होंने दो पक्के कमरे बनवाए। छोटी लड़की की शादी की। लड़के को एम0ए0 पास करते ही नौकरी मिल गयी थी। उसकी भी शादी प्रेम बाबू ने बड़ी धूम-धाम से की। इसी महुए की छांव से लड़के की बारात उठी। पूरे गाँव में सालों तक बारात की चर्चा होती रही। ऐसी जोरदार बारात गाँवों वालों ने बहुत दिनों बाद देखी थी। तीन दिनों तक पूरे राजसी ठाठ के साथ लोगों का स्वागत हुआ और लौटते समय प्रेम बाबू के मना करने के बावजूद हर बाराती को एक सौ एक रूपये के साथ एक भागलपुरी चादर भी समधी साहब ने दी। बारात की वापसी पर जब लोग महुए की छाया में खड़े हुए उस समय प्रेम बाबू का सीना गर्व से फूल उठा था।
इस तरह नौकरी से रिटायर होने के साथ ही वे घर गृहस्थी से भी रिटायरमेण्ट ले चुके थे। उनका जीवन पूर्णरूप से सुखी था उसी महुए के वृक्ष की तरह। महुए का पेड़ भी गृहस्थ जीवन को पूरा करके वानप्रस्थ की तरफ कदम बढ़ा रहा था। अचानक ही तूफान का एक तेज झोंका आया और वृक्ष की सबसे पुरानी और विशाल डाली को ले उड़ा। प्रेम बाबू की पत्नी का निधन हो गया। केवल फालिज का एक अटैक हुआ। गाँव से लाद फांद कर उन्हें शहर में लड़के के पास ले जाया गया। बड़े से बड़े डाक्टर की दवा हुई। पर तूफान का थपेड़ा शायद अधिक तेज था और उस वृक्ष के जीवन को हरा भरा बनाने वाली सबसे पुरानी डाली वृक्ष से अलग हो गयी। वह वृक्ष अकेला हो गया.....पूर्णतः एकाकी।
यही अकेलापन प्रेम बाबू के जीवन का नासूर बन गया था। उन्होंने कभी अपने हाथों से एक गिलास पानी तक नहीं लिया था, अब उन्हें अपने हाथों से कच्चा पक्का खाना बनाना पड़ता। जूठे बर्तन मांजने पड़ते।कभी-कभी वे एक समय ही खाना बनाते दूसरे वक्त लाई चने पर संतोष कर लेते। रोटियाँ सेंकते समय उंगलियाँ जल जाती। अंधेरे में कभी-कभी रोटियाँ कच्ची रह जाती। हर तरह का कष्ट उन्हें होता। परन्तु जब वे उस महुए के पेड़ की तरफ एक बार आँख उठा कर देख भर लेते तो उनकी सारी तकलीफें, सारे कष्ट एक मिनट में दूर हो जाते।
उनका लड़का कई बार कह चुका कि शहर में चल कर रहो। यहाँ गाँव में अकेले पड़े रहने से क्या फायदा? शहर में बहू है, बच्चे हैं, हर तरह का सुख है।पर प्रेम बाबू का एक ही जवाब रहता, “यह खेत, घर, गृहस्थी, बगीचे जिन्हें मैंने अपने हाथों से सजाया है, संवारा है, उन्हें छोड़ कर कैसे जा सकता हूँ? कौन करेगा इनकी देखभाल? वहाँ शहर में क्या रखा है।वहाँ मुझे वह मानसिक शान्ति मिल सकेगी जो यहाँ पर गाँव की माटी में....हरे भरे खेतों में हैं?’’
कोई जब भी प्रेम बाबू से गाँव छोड़कर शहर जाने की बात करता तो उन्हें एक अजीब किस्म के दर्द का अनुभव होता। गाँव छोड़ने की कल्पना से ही उनके अन्दर एक टीस सी उठती थी। उन्हें लगता घर, गाँव, खेतों से उन्हें एक विशेष प्रकार का मोह हो गया है। और वे इस मोह के जाल में पूरी तरह से जकड़ उठे हैं।परन्तु यह मोह....यह जाल कैसा था इसे आज तक प्रेम बाबू खुद नहीं समझ पाए, हाँ जब प्रेम बाबू ने स्वंय अथवा किसी दूसरे व्यक्ति ने उनके इस जाल को काटने की कोशिश की, तब वे एक अजीब किस्म की पीड़ा से छटपटा उठते। उन्हें लगता उनके शरीर के किसी अंग को काटकर अलग किया जा रहा है।
प्रेम बाबू को उस महुए के वृक्ष पर होने वाला कोई भी अत्याचार असह्य था। जब भी उस वृक्ष की कोई डाली गिरती या कोई पत्ता तक टूटता तो उनका हृदय एक असीम वेदना से आन्दोलित हो उठता। कोई समय था जब बिना उनकी आज्ञा के कोई उस वृक्ष की पत्ती भी नहीं छू सकता था। उनका पूरे गाँव में इतना सम्मान होता था कि लोग उनके सामने बीड़ी या हुक्का तक पीने से डरते। उनके एक इशारे पर लोग काम करने के लिए दौड़ पड़ते थे।
लेकिन अब समय बहुत बदल चुका था। आज जब वे उस वृक्ष पर दृष्टिपात करते तो कांप उठते। जिन लोगों को कल तक उस वृक्ष ने कड़ी धूप, घनी बरसात से बचाया था वही लोग आकर उस वृक्ष की डालियों को काट रहे थे.....उसके पत्ते नोच रहे थे।
अब गाँव में उन्हीं के सामने लोगों ने शराब पीनी शुरु कर दी। उनकी ज़मीन पर झोपड़ी बना कर रहने वाले लोग उन्हें आंखें दिखाने को तैयार हो जाते। अभी पिछले दिनों की तो बात है। उस दिन काफी बारिश हुई थी। उन्हें दिशा मैदान से निबट कर लौटने में कुछ देर हो गयी। वे अपने घर के पिछवाड़े वाले नीम के पास पहुंचे ही थे कि उन्हें कुछ फुसफुसाहट की आवाज़ सुनाई दी और वे रुक गये। धुंधलका होने की वजह से कुछ साफ नहीं दिख रहा था। वे थोड़ा और आगे बढ़ गये। अब दोनों आवाजें साफ सुनाई दे रही थी। आवाज़ से उन्होंने पहचान लिया। यह शायद उनका नौकर बरसाती है जो किसी औरत से बात कर रहा था।
“ए बरसाती हमका छोड़ द्यो.....बाबा आवत होइ हैं।” औरत की आवाज़ थी।
“अरे चमेलिया.....ऊ बुढ़ऊ के न आंखिन से देख परत है...न सुनाई परत है। ऊ आई जइहैं तो कौन पहाड़ टूट परी हमरे ऊपर।” बरसाती ने फुसफुसाते हुए कहा।
“बरसाती....बाबा के घरे में खड़े होइ के अइसन बात कहि रहे हो....सरम नाहीं आवत?” चमेलिया की आवाज़ इस बार थोड़ी तेज थी।
“कइसन बाबा....औ कइसन बाबा कै घर.....अरे बस दुइ चार बरस की अउर बात है चमेली। जहाँ इ बुढ़ऊ टें बोले बस घर, खेत सब अपना होइ गया समझो।” बरसाती की आगे की बात प्रेम बाबू नहीं सुन सके, किसी तरह कांपते हुए कदमो से वे घर पर पहुंचे और लोटा एक किनारे रख कर मचिया पर धम्म से बैठ गये, उसके बाद तो घण्टों उनका सिर गोल...गोल घूमता रहा और बरसाती की आवाज़ लगातार उनके कानों में गूंजती रही। घण्टों बाद वे उठे और किसी तरह हाथ माज कर कुल्ला करके बिना कुछ खाए पिए सो गये।
उस दिन बरसाती की बात सुनने के बाद से ही उन्हें लगने लगा था कि वे अब पूरी तरह से टूट चुके हैं।अन्दर ही अन्दर कोई घुन, कोई दीमक उनके शरीर को छलनी करता जा रहा है। और शीघ्र ही उनका अस्तित्व शेष रह जाएगा केवल एक ठूंठ के रुप में। जिसका कोई उपयोग नहीं रह जाएगा। अब उन्हें लग रहा था कि उन्हें अपने इस मोह को छोड़ना पड़ेगा। गाँव की माटी की गंध जो उनके रोम-रोम में समा गई है, उसे अपने से अलग करना होगा। उन्हें गाँव छोड़ कर शहर जाना ही होगा।
आज जब उनकी नज़र महुए के वृक्ष पर पड़ी तो उन्होंने देखा कि महुए का वृक्ष सूख जाने के बाद भी गर्व से अपना मस्तक ऊंचा किए खड़ा था। उन्हें लगा कि महुए का वृक्ष उनका उपहास उड़ा रहा है। ऐसा लगा मानो वह कह रहा हो, ‘‘मित्र क्या तुमने इसी बूते पर आजीवन साथ रहने का वादा किया था। तुम्हें याद है जिस समय तुम मुझे अपने इस घर के सामने लगा रहे थे। तुमने मुझे कोई वचन दिया था....कहाँ गया तुम्हारा वह वचन?” प्रेम बाबू जितना ही महुए के वृक्ष की तरफ से नज़र हटाना चाह रहे थे उनकी दृष्टि वृक्ष से चिपकती जा रही थी और उनका शरीर शिथिल होता जा रहा था। वे अपने को असह्यय महसूस कर रहे थे।
जितना ही वे उस गाँव की माटी की गंध से दूर भागना चाह रहे थे वह गंध उतनी ही तीव्रता से उनकी सांस में समाती जा रही थी। उनके चारो तरफ की हवा उस गंध से भरी जा रही थी। उन्हें लग रहा था कि जितना ही वे उस मोह जाल को तोड़ना चाह रहे हैं उतना ही वह उनके शरीर को अपने अन्दर जकड़ता जा रहा है। और अनायास ही प्रेम बाबू के होंठ ‘‘ज्यों गूंगा मीठे फल का रस...........‘‘ गुनगुना उठे।