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Raghav Arora

Drama Inspirational Romance

2.1  

Raghav Arora

Drama Inspirational Romance

बिलव्ड

बिलव्ड

12 mins
4.1K


बहुत समय लग गया मुझे उस एक शब्द को जानने में - ' बिलव्ड' . पहले तो उसे जोड़ जोड़ कर बोलना सीखा. अपनी तरह से बोलना मुश्किल नही था, पर उस तरह से था जिस तरह से बोला जाता है. जो सही तरीका है. और जब सीख लिया, फिर भी जान बूझ कर ग़लत ही बोला, क्यूंकी पता था जब भी ग़लत बोलूँगा, वह उसी जोश, उसी प्रबलता से सिखाएगी. उसे बहुत पसंद था यह शब्द. पूरे अँग्रेज़ी शब्दकोष में उसको सबसे प्रिय था यह. और मुझे सबसे प्रिय वह थी. इसलिए मैने इसे, इन कुछ अक्षरो के झुंड को एक राह बनने दिया. वह बहुत खिलखिला कर हँसती थी जब भी मैं बोलता था, कहीं ना कहीं मेरी जीभ फिसलती ही फिसलती थी. कभी 'बी' लंबा खींच देता था, तो कभी 'लवेद' हो जाता था ,और वह फिर बुलवाया करती, फिर हँसती. यह एक औज़ार जैसा था उसकी हँसी सुनने के लिए. परंतु जब अकेले में सही भी बोलता था, तब इसकी गूँज में गुम सा हो जाता था. मतलब तो बेहद आसान है, कहने भर की देर है और आप झट से पकड़ लोगे, पर कुछ है, इसमें, जो आसानी से समझ नही आता. मुझे आया, बस एक बार आया, और जितनी तेज़ी से आया, उतनी ही तेज़ी से चला भी गया. मैने ज़्यादा सोचा भी नही, उसे पकड़ कर भी नही रखा, आवश्यकता ही नही थी.

 

हम वही बैठे थे उस शाम को भी, जहाँ हर तीसरी शाम को मिलना होता था. मैं पहले पहुँच जाता था. लगभग 30-33 किताबो को, जिन्हे मैं बेचा करता था, उन्हे अपने साथ, बगल में दो इमारतों की तरह सज़ा देता था, और उन पर इस तरह से कोहनी टिका देता था, जैसे कोई साधु ध्यान में बैठा हो. और बस पता चल जाता था, जब वह चार  हाथ के घेरे तक आ जाती थी, कि अब किसी भी समय एक छोटी थपकी मिलेगी कंधे पर.

 

लेकिन उस दिन मुझे उसके आने का पता नही चला, शायद उस दिन सब कुछ समेट कर आई थी. बस चुपचाप बैठ गयी और किताबो को ताकने लगी.

 

"अब किसकी बारी है?" मैने कहा, कोशिश करते हुए कि उसकी दृष्टि पढ़ सकूँ किस कवर पर हैं.

पर उसने मुख फेर लिया.

कुछ पल यूँ ही बीत गये. फिर मैं समझा कि मुझे ही उसे हसाना पड़ेगा.

एक साँस में मैने जैसे ही बोलना शुरू किया - 'बी...'

उसने उसी पल मुड़ते हुए अपनी नम आँखो से मुझे देखा और बोल गयी ' मेरा विवाह पक्का हो गया है'.

मेरा चेहरा हँसी और हैरानी के बीच फँस गया था. उससे नज़र हटाते हुए

मैने खुद को एक वशीकरण से मुक्त किया.

' मतलब' ? किसी तरह मेरी ज़ुबान से यही निकला.

'विष्णु पुस्तक भंडार वाले हैं. सबसे बड़ा लड़का है. तीन दिन पहले मुझे देखने आए थे. दोनो परिवार तैयार हैं. दोपहर पिताजी ने मुझसे पूछा.'

और वह वहाँ रुक गयी, जहाँ उसे नही रुकना था. उन कुछ क्षण में मैंने अपनी छाती में इतनी हवा भर ली कि छह गुब्बारे तो बिना रुके फूला ही देता.

शायद मेरे होंठ हिले, उससे पूछने के लिए 'और?' पर आवाज़ तो नही आई.

 

'और मैने हाँ कर दी. सब बहुत खुश हैं. दो हफ्ते बाद का मुहूर्त है' यह कहकर वह उठ गयी और बिना मेरी तरफ देखे वहाँ से चली गयी.

 

 

पता नही कितनी देर तो मुझे समझने में लग गयी जो उसने कहा था. ये मानने में कि मैने सही सुना है क्या? और फिर उसके बाद खुद से यह पूछने में कि यह हुआ क्या था अचानक से. सब ठीक तो था अभी थोड़ी देर पहले तक. उस शाम मुझे नही पता कि मैं कैसे वहाँ से उठा, कैसे उन रोज़ की गलियों से गुज़रा, कैसे घर पहुँचा, और ना जाने कब सो गया. पर मेरी आँखो से आँसू नही रुके. बहते ही रहे बिना किसी शोर के. और अपने आप में गुम सा होकर मैं उसका सबसे प्यारा शब्द दोहराने लगा. थोड़ी सही तरह से.

 

 

फिर अगले दिन से मन में एक आक्रोश सा जगा. सुबह छह बजे ही मैं अपना पूरा बाज़ार लेकर उसके घर के सामने बैठ गया. कुछ जवाब चाहिए थे मुझे. और वो ज़रूरी थे. उसने खिड़की से देखा और उसे बंद कर दिया. मेरी आँखों में जैसे खून उतर आया हो. फिर शाम को वह जब बाहर निकली तो मैं बिना डरे उसके पीछे पीछे चल दिया. अगले तीन दिन यही कार्यक्रम चलता  रहा. शायद उसे तरस आ गया थोड़ा और अगली शाम को बाज़ार के एक कोने में उसने पीछे मुड़कर मुझे रोक दिया.

'इस सब से कुछ नही होगा' उसने गुस्से में बोला. ' जाने दो, अब कुछ नही हो सकता'

' मैं नही जाने दूँगा बिना लड़े' मैने जोश में सीना फुलाते हुए कहा.

'बिना लड़े?' उसकी जैसे हँसी छूट गयी.

'कोई लड़ाई नही है, लड़ाई क्या कोई मुकाबला ही नही है, मैने तुम्हे हमेशा कहा था, पर पता नही तुम क्या बनना चाहते थे, और कब बनना चाहते थे, पर अब समय नही रहा. तुम्हारी किसी लड़ाई का कोई लाभ नही. इस सच्चाई को मान लो. और आगे बढ़ो. मेरे लिए और मुश्किलें मत खड़ी करो' उसने करुणा भरी आवाज़ में कहा.

इस बार भी मुझे बोलने का मौका नही मिला. मैं फूट पड़ा.

'मुझे एक मौका चाहिए' मैने बोला.

' अब नही ' कहकर वह फिर मुड़ गयी.

'क्या प्रेम नही है अब' मैने चीखते हुए कहा. पर उसके कदम तेज़ होते गये.

 

 

क्रोध और निराशा लिए जब उस दिन घर पहुँचा तो कदम अपने आप ही लड़खड़ा गये और मैं ज़मीन पर गिर गया. इन पिछले कुछ दिनो में पता नही कितनी बार यादों का चलचित्र दिमाग़ में चलता रहा. और रात के सन्नाटे में उसके शब्द कानो को भेद जाते.

 

अगली सुबह सुबह ही मैं रोज़ से ज़्यादा किताबें लेकर निकल पड़ा. एक नया सा ही जज़्बा और पागलपन सवार हो गया था मुझे. बहुत दूर तक चलता गया उस दिन, बस स्टॉप तक. ज़्यादा ज़ोरो से आवाज़ लगाने लगा. एक पूरे दिन की मेहनत एक तिहाई दिन में ही कर डाली. दोपहर हुई तो भोजन और 2 घंटे का आराम त्याग कर फिर एक चक्कर काटा. एक जगह बैठा नही उस दिन. बस भागता रहा. क्यूंकी जैसे ही मैं रुक पड़ता था,  मेरा मन चलने लगता था. 15 किताबें ज़्यादा बेची. और रात को रो कर सो गया. अगले दिन भी यही हाल, उस दिन 12 ही बेच पाया. रात को फिर रोते रोते सो गया. तीसरे दिन 24 की बिक्री हुई. पर खुशी नही हुई ज़्यादा. ऐसे ही चलता रहा तो भी 3 साल लग जाएँगे एक छोटी सी दुकान खोलने में, वो भी बाज़ार के दूसरी तरफ, कचरे दान के पास, जहाँ लोग देखना भी पसंद नही करते. कैसे काम चलेगा ऐसे? कैसे जीतूँगा मैं? मुझे तो उसे अपनी काबिलियत दिखानी ही है. उसे रोकना ही है.

 

चौथे दिन मैने सारी किताबें बेच दी. पता नही कैसे. और फिर शाम होते होते मेरे कदम अपने आप ही चल दिए और रुक गये एक बड़ी सी दुकान के शीशे के सामने जिसके उपर बड़े बड़े अक्षरो में लिखा था - ' विष्णु पुस्तक भंडार '.

अंदर हज़ारों किताबें, जगमगाती रोशनियाँ, और कितने तो सहायक, जैसे दुनिया भर के पाठक यहीं आते हों.

 

मैं ये सब देखने नही आया था, मैं तो उस व्यक्ति को देखने आया था जो कितनी शालीनता से घूमती कुर्सी पर बैठकर ग्राहकों से हंसकर बातें कर रहा था, पानी और ठंडई लाने के इशारे कर रहा था, लगभग हर 3 मिनिट में एक बड़े नोट को दराज में डालता और सुंदर से लिफाफे में किताब सामने वाले को पकड़ा देता.

कितने बेहतरीन कपड़े पहने थे उसने, और रंग भी ऐसा के जैसे कभी गर्मी में तपा ही ना हो. ' यही होगा' मैने मन में सोचा. 'यही होना चाहिए'.

 

और फिर मैने उसे इसके साथ सोचा. कितने अच्छे लग रहे थे दोनो. एक ही रंग के बने हों जैसे. तो फिर मैं क्या था? एक ज़रिया इन्हे मिलाने का?

नही नही, वो मेरी ही है, मैं भी तो वही किताबे बेचता हूँ, वो जो लाल रंग की जिल्द वाली है, वो भी जिसमें वो पिता और बच्चा है, वो नीले पहाड़ वाली भी, वो समुद्र भी, और बिना ठंडई पानी की कीमत जोड़के बेचता हूँ. हम एक ही तो हैं, मैने दुनिया को करीब से देखा है, वो तो वहीं उन शीशे की दीवारों के पीछे वाली ठंडक में बड़ा हुआ होगा ना. उसे क्या पता मेहनत क्या होती है. उसने धूप कहाँ देखी है. मैं तो मेहनत करके उस कुर्सी पर पहुँच सकता हूँ, पर वो मेरी जगह यहाँ खड़ा नही हो सकता.

 

पर अगले ही पल मेरे मन ने फिर खेल खेला, लेकिन मुझे तो उन किताबो के नाम तक नही पता. बड़े बड़े अँग्रेज़ी के शब्द, पता भी चले तो बोल ही ना पाउ. सिर्फ़ रंग ही तो देख सकता हूँ. चित्र पहचान सकता हूँ. और जैसे मन किताबों के नाम बोलती है, ये भी वैसे ही सटीक स्पष्ट बोलता होगा, कितने सही हैं दोनो साथ. जैसे एक दूसरे के लिए ही बने हों.

और उसी मानसिक द्वंद में मैं ना जाने कब तक वहाँ खड़ा रहा. जाते हुए सोचा के मैं तो द्वेष करने आया था, उस व्यक्ति को और उसकी बेहतरीन दुकान को यह बताने कि मैने हार नही मानी है, मैं उसे जीतूँगा, पर कुछ और ही हो गया उस दिन.

 ' कोई मुकाबला ही नही है ' उसने कहा था न, है भी, और नही भी.

'बिलव्ड' कितना अच्छे से बोलता होगा न यह. उसके कानो में जैसे मिशरी सी घुल जाएगी. और वो हसेगी भी नही, हल्के से मुस्कुराएगी, जब उसे सही सुनेगी, और उसकी उस मुस्कान में वो स्वीकार करना होगा. जो सही है उसे स्वीकार करना होगा.

 

उस रात मैं नही रोया. शायद मैं सनक गया था. बहरहाल, अगली सुबह मैं आराम से पहले की तरह गया. थोड़ी कम बैचानी थी उस दिन. आज भी जब मैं सोचता हूँ तो खुद से पूछता हूँ के क्या मैने हार मान ली थी? पर जवाब ना में ही आता है.

'कोई मुक़ाबला है ही नही'.

 

उसी शाम को मैंने अपने गाँव का टिकेट लिया और चला गया. चाहे कितना भी शूरवीर बनू, इतनी हिम्मत नही थी के उसके विवाह वाले दिन उस शहर, उन गलियों में घूमू जहाँ से वो दुल्हन बनके जाएगी.

एक महीना अपने हृदय को बहला फुसला लिया और फिर एक नयी शुरूवात करने के इरादे से वापस आया.

 

आने के अगले ही दिन जब पुराने मित्रो से मिला तो पता चला मेरे जाने के दिन से कोई मुझे ढूँढने आई थी, सबके सामने प्रार्थना कर रही थी के किसी तरह मेरी उससे बात हो जाए. पर बात नही हो पाई.

ये सब सुनके मेरा दिल धक रह गया. सारी हवाबाज़ी निकल गयी. यह मैने क्या कर दिया? मैने उसे जाने कैसे दिया? वो भी तो खुद नही जाना चाहती थी. मुझे तो उसे वापस लाना था. हे भगवान, यह मैने क्या कर दिया?

'उसका विवाह' मैने उनसे पूछा.

उन्होने हाँ में सर हिलाया.

 

तुरंत उसी दोपहर के समय मैं भागता हुआ बाज़ार की ओर गया और उसी किताबो की दुकान के सामने खड़ा हो गया जिसके सामने एक माह पहले खड़ा होकर गधो की तरह बातें बना रहा था. कैसा पागल हूँ मैं, क्या प्रेम से बढ़कर कुछ होता है? कितनी आसानी से जाने दिया. मैं अपने बाल नोचने लगा. कुछ समझ ही नही आया करूँ तो क्या करूँ. किससे और क्या कहूँ. अंदर चला जाना चाहिए क्या? नही. पर मुझे उससे मिलना ही था.

और उस दिन ईश्वर ने मेरी सुन ली. कुछ देर चहल कदमी करने के बाद मैने उसे आते हुए देखा. और मैं वहीं जम गया. एक नयी नवेली दुल्हन हाथ में खाने का डब्बा लिए, आँखे नीची किए धीरे धीरे मेरी तरफ बढ़ रही थी. एक पल को तो लगा की ये मेरे लिए ही आई है, अभी उपर देखकर मुस्कुराएगी, पर जैसे ही बगल से साइकल वाला घंटी बजाते हुए निकल गया, मुझे होश आया और मैं सामने चूड़ी वाले के ठेले के पीछे जाकर छुप गया. वो उसी गम्भीर तरह से अंदर चली गयी. उस पल जो मुझे एहसास हुआ, उससे कमज़ोर और लाचार मैने कभी महसूस नही किया. मैं आँखें पोछते हुए वापस दौड़ पड़ा.

 

जब सच्चाई देखी तो पता चला जैसे मेरा सब कुछ गुम गया है. कुछ भी तो नही बचा मेरे अंदर. मन किया सामान उठाकर वापस गाँव चला जाए. पर वहाँ जाकर भी ये तकलीफ़ ठीक नही हुई तो.

 

अगले दिन दोपहर मैं फिर चला गया. दूर से उसे देखा. और फिर वापस आ गया.

कुछ बदल सी गयी थी वह, उस चेहरे में, वो फूलों जैसा खिलना नही था, सूनी सी आँखें लिए, सर झुका कर, बस चली आती थी,  एक दो बार तो मैं उसके बगल से निकला, पर उसे पता ही नही चला, न ही उसका चेहरा कभी इतना उपर हुआ कि मुझे देख पाए. कहीं खो सी गयी थी वह. क्या यह सब मेरी वजह से हुआ? यह सोच सोच के मैं भी आधा मुर्दा हुआ जा रहा था.

पर मैने दोपहरो को वहाँ जाना बंद नही किया. कोई उम्मीद में था, किसी दिन देखेगी, कुछ इशारा मिलेगा, शायद अपनी खुशी के लिए लौट भी आए. पर कई दोपहर ऐसे ही बीत गये . अपने दुख से ज़्यादा मुझे उसकी हालत पर खेद था.

 

और फिर वो दिन,  वो दोपहर भी आया,  जब उसने देखा. मैं रोज़ की तरह उसी पत्थर पर बैठा था, चूड़ियों के ठेले पर रेडियो में गाने सुन रहा था. और उसके आते ही उसके हर एक कदम को देख रहा था. आख़िर क्यूँ हो गयी है ये ऐसी, और कब तक रहेगी? क्या आज पूछ लूँ के वो लड़की कहाँ गयी जो खिलखिलाती रहती थी? नही. कहीं उसका बसा बसाया घर हिल ना जाए. शायद समय के साथ ठीक हो ही जाएगा. ये सोचकर मैं उठा और जैसे ही पतलून से मिट्टी झाड़ने लगा, देखा के उसके पीछे से एक बैल दौड़ा दौड़ा आ रहा है. लोग चिल्ला रहे हैं और रास्ते से हट रहे हैं लेकिन वह वैसी ही खोई हुई चली जा रही है. बस और दस कदम दूरी पर विष्णु पुस्तक  भंडार है लेकिन बैल उसके कारीब आ रहा है. मैं एक ही चप्पल पहने भागा, रास्ते में वो भी कहीं उतर गयी. हर एक कदम पर मन में डर बढ़ रहा था, लेकिन मैं लोगो को धक्का देते हुए रास्ता बनाता गया.

मुझसे लगभग तीन हाथ दूरी पर, ठीक उस किताबो की दुकान के दरवाज़े पर, बैल उसे हल्की टक्कर मारता हुआ निकल गया.

उसके हाथो से खाने का डब्बा छूट गया और वह लहराती हुई गिरने ही वाली थी की मेरी बाह नीचे आ गयी.

 

उस दोपहर के बाज़ार में, उस बड़ी दुकान के सामने जैसे ही मैने उसे थामा तो धड़कने बंद हो गयी. ऐसा लगा जैसे उड़ गया हूँ कहीं उसे सबसे छीन कर जो मेरा है. सब शोर जैसे घुल गया हवा में ही. ज़्यादा समय नही था. पर जितना था, काफ़ी था, पूरा था.

जैसे ही उसने हैरानी से मेरी ओर देखा, पता नही क्यूँ और कैसे मैं अंदर से खाली हो गया और अपने आप ही , स्पष्ट और सही तरह से बोल गया - ' बिलव्ड'.

और वह मुस्कुरा दी.

उस पल, उस क्षण, जैसे भगवान मिल गया. उस शब्द की गूँज ने जैसे दोनो के मन के खाली हिस्से को भर दिया. कितना भार था, कितना भार, यूँ ही अपने आप उठ गया. सारे जवाब मिल गये. नही मरता ना प्रेम. बस छुप जाता है.

और मैं समझ गया- ' कोई मुक़ाबला है ही नही '

मेरे होंठ मुस्कुराते ही रहे जब कुछ हाथ आए और उसे उठा लिया. शायद किसी ने एक दो तमाचे भी जड़े थे मेरे सर पर. मुझे ठीक से याद नही. बस मैने एक पल को आँखें बंद करी. फिर उठा और चल दिया, उस सबसे परे, चप्पल भी नही पहनी, बस चलता गया, एक नये मतलब के साथ, चलता ही गया,

पीछे पलट कर भी नही देखा, अब ज़रूरत नही थी.


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