विश्वास की जीत
विश्वास की जीत
कविता यह सोच नहीं पा रही थी कि वह क्या भाव प्रकट करे और उसे इस बात का विश्वास नहीं हो रहा था कि उसके जीवन में यह मोड़ भी आएगा। अजीब सी भावना, बेचैनी और मन के विश्वास की जीत उसके अंदर प्रवेश कर रही थी। क्योंकि वह एक शिक्षिका थी। उसने पहले यह सोच रखा था कि दीपावली के अवकाश पर बच्चों की कॉपी जाँच करेगी। जो उसके टेबल पर अभी भी तीन दिन से पड़ी थी। मगर उसके अंदर की बेचैनी काम करने का अवसर नहीं दे पा रही थी।
अचानक वही उठी ...एक गिलास पानी लिया। थोड़ा सा पानी पीकर वही टेबल पर रख दिया अभी भी उसके दिल में सारी भावनाएँ थी जिसमें आत्मविश्वास की भावना बढ़ रही थी हीन भावना कम थी। जो विश्वास उसे ऊपर वाले पर था आज वह पक्का हो गया था। सोचते सोचते वह अतीत में खो गई ....।
घर में वह सबसे बड़ी थी। घर की आर्थिक स्थिति कुछ अच्छी नहीं थी। वह तीन बहनें थी। माँ पढ़ी-लिखी तो नहीं थी लेकिन आत्मविश्वासी और अपने बच्चों को अच्छी से अच्छी शिक्षा देने वाली थी। पिता मजदूरी करते थे। जो भी दिन भर में कमाते उसी से घर का चूल्हा जलता था और रात में माँ खाँस-खाँस कर रोटियाँ सेकती क्योंकि माँ को साँस की बिमारी थी। और फिर घर वालों का पेट भरता।
क्योंकि कविता घर में सबसे बड़ी थी उसे इस बात का सदा एहसास रहता कि माँ-बाप के बाद घर की बड़ी वही है। पिता को इस बात की हमेशा चिंता रहती कि तीन-तीन बेटियाँ है। उनकी पढ़ाई है उसके बाद तीनों की शादी और सही से दहेज नहीं दिया तो बेटी ससुराल में खुश नहीं रह पाएगी। पर माँ हमेशा कविता के पिता को यही समझाती कि मेरी बेटियाँ किसी बेटों से कम नहीं है। हम अपनी बेटियों को बेटों के बराबर शिक्षा देंगे और उनके बराबर बनाऐंगे। क्योंकि कविता के पिता बहुत समझदार थे और कविता की माता का बहुत आदर करते थे तो माँ के समझाने से पिता की चिंता कम हो जाती।
कविता ने स्कूल में आठवीं की परीक्षा दी थी और पूरी कक्षा में अव्वल आयी थी और एक बहन सातवीं और छोटी बहन पांचवी में थी। पर लड़कियों की पढ़ाई का ख़र्चा चलाना पिता के लिए बड़ा कठिन हो रहा था। लेकिन माँ का पूरा ज़ोर था कि बेटियों को पढ़ाना है। तो जैसे भी होता वह करते थे।
पर अचानक एक दिन पिता की तबियत काफी खराब हो गई। अस्पताल में भर्ती तक करना पड़ा। डाक्टर ने घर में आराम करने को कहा और काम करने के लिए मना किया।
अब तो माँ की चिंता की कोई सीमा नहीं रही लेकिन अपने पति को फिर भी समझाती थी और ढाढ़स बांधती और रात में अकेले रोती। कविता माँ को छुप-छुप कर देखती थी। उस वक्त वह कक्षा नौ में थी। उसे बचपन से ही कला में रूचि थी और उसे लिखने-पढ़ने में भी बड़ा शौक था। और कला की विभिन्न प्रकार की कला की वस्तु भी बनाती थी। लेकिन उसने जब माँ की यह स्थिति देखी तो माँ के पास गई और उसके पैर पर सिर रखकर कहा - माँ तुम घबराओ मत। घर के खर्च के लिए मैंने कुछ सोचा है। माँ ने टुकटुकी नज़र से देखा। उसने माँ से कहा - माँ मेरे स्कूल में जो मास्टरनी हैं उनको मैंने एक बार अपने बनाए हुए खिलौने दिखाए तो वह बहुत खुश हुई थी। उन्होंने मुझे यह भी कहा कि वह ग़रीब लड़कियों के लिए एक केन्द्र चलाती हैं जिसमें सब अपनी अपनी कला से तरह-तरह की वस्तुएँ बनाती हैं और वह उसका उन्हें हर माह वेतन देती हैं।
कविता ने आगे कहा - क्योंकि वह अपनी कक्षा में अव्वल आती है तो उनकी छोटी बहनों की कक्षाओं में पढ़ने वाले बच्चों के माता-पिता ने उसे ट्यूशन के लिए कहा था। पर समय के अभाव के कारण पढ़ाई में बाधा न हो उसने उन्हें मना कर दिया था , उसने माँ का हाथ अपने हाथों में लिया और कहा माँ अब मैं दिनभर उस केन्द्र में काम करूँगी। और शाम में बच्चों को पढाँऊंगी और रात में अपनी पढ़ाई खुद से करूँगी माँ की आँखें नम और चेहरे पर गर्व था। उनका दिल तो नहीं हो रहा था लेकिन घर की स्थिति देखकर उन्होंने हामी भर दी कि चलो इससे घर का ख़र्चा और जैसा कविता कह रही है कि बहनों की पढ़ाई भी जारी रहेगी। इसी तरह कविता दिनभर केन्द्र में काम करती, शाम में बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती और रात में प्राइवेट इम्तिहान के लिए खुद से पढ़ाई करती। उसने इसी तरह दसवीं, बारहवीं और ग्रेजुएशन की डिगरी और कुछ महीनों की कला की डिगरी बिना स्कूल जाए हासिल की और घर का ख़र्चा भी चलाती रही, बहनों ने भी कॉलेज से उच्च शिक्षा प्राप्त की। कविता, क्योंकि बहुत ही तेज़ लड़की थी तो उसे एक स्कूल में भी नौकरी मिल गई और मास्टरनी जी ने उसका परिश्रम देखकर पूरे केन्द्र की जिम्मेदारी उसे दे दी लेकिन जब भी कविता, फाइन आर्ट डिपार्टमेंट के पास से गुजरती तो उसे अपना बी.एफ.ए का सपना याद आता पर अपनी बहनों को पढ़ता हुआ देख खुश हो जाती।
काफी साल बीत गए अब कविता को अपने माता-पिता जिनका स्वास्थ्य अब अधिक ठीक नहीं रहता था। उनके झुरियों वाले चेहरे पर चिंता साफ दिखाई देती थी।
एक दिन कविता अपनी माँ के पास गई और उनका हाथ अपने हाथों में लिया और कहा - माँ एक बार और मैं आपसे कुछ माँगना चाहता हूँ। मेरी दोनों बहनों ने उच्च शिक्षा हासिल कर ली है और उनका अच्छे परिवारों से रिश्ता आया है। तो हम दोनों की शादी कर देते हैं। और मैंने अपनी आय से कुछ पैसा दोनों के विवाह के लिए जमा किया है। माँ मना मत करना। माँ ने ठंडी आह भरकर कहा - बेटा कविता परिवार वाले और समाज क्या कहेगा कि हमने दोनो छोटी की शादी पहले क्यों कर दी? सब तरह तरह की बातें बनाऐंगे।
कविता ने बड़े विनम्र अंदाज में कहा - माँ छोड़ो, दुनिया वालों को छोड़ो। हर व्यक्ति अपनी स्थिति के अनुसार काम करता है। बाहर के लोग काम नहीं आते। माँ ने ना चाहते हुए भी सोते हुए दोनों बेटियों को देखकर हाँ कर दी और कुछ ही दिनों में कविता की दोनों छोटी बहनों की शादी धूमधाम से हो गई।
अब कविता और उसके माता-पिता अकेले घर में रह गए। और बहने दूसरे शहर में चली गई। कविता अपने माता-पिता का ध्यान रखती। कुछ दिन और बीत गए कविता अब 40 की हो चुकी थी। माता-पिता का स्वास्थ्य और खराब होता गया। अब माँ को अपनी कविता के जीवन की चिंता सताने लगी कि हमारे बाद वह अपना जीवन अकेले कैसे काटेगी। पर अब उसके लिए अच्छा रिश्ता नहीं आता था। शादीशुदा, तलाक़शुदा ऐसे रिश्ते उसके लिए आते।
कविता के मन में कभी-कभी यह सवाल आता कि जीवन के इस भागदौड़ में उलझकर उसने अपने बारे में न सोचा... लेकिन अचानक वह एक अपने स्कूल से घर आई और अपनी माँ के माथे पर जो उसकी चिंता को लेकर बाल था उसके बदले उनके चेहरे पर प्रसन्नता की झलक उसे साफ दिख रही थी। उसने माँ से पूछा क्या हुआ माँ? बड़ी खुश दिखाई दे रही हो।
बेटा कविता... आज मैं बहुत प्रसन्न हूँ तुम्हारे लिए एक बहुत अच्छा रिश्ता आया है। कविता माँ को टुकटुकी नज़र से देखने लगी।
कविता.... माँ - कहाँ से। माँ ने आगे कहा। तुम्हें जो तुम दो माह पहले एक सभा में गई थी जिसने तुम्हें अवार्ड दिया तो उनके बेटे का रिश्ता।
कविता समझ नहीं पा रही थी क्या भाव प्रकट करे... पर माँ वह तो बहुत अच्छा बड़ा परिवार है। माँ - बेटा वह तुमसे प्रभावित है। कविता प्रसन्नता से माँ से लिपट गई और रोने लगी। माँ ... मैं जीत गई। मैं जीत गई।
आँखें नम...
मन में खुशी
जो था कल
उमैंने अपनी कहानी **विश्वास की जीत** में यह दर्शाया है कि एक लड़की अपने विश्वास के बल पर अपने परिवार की डगमगाती नईया को किस प्रकार पार लगाती है और अन्तः उसका जीवन भी खुशियों से भर जाता है