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नीलकमल

नीलकमल

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जब पर्दा उठता है तो सीता एक तालाब के किनारे बैठी नीलकमल तोड़ने का प्रयत्न कर रही है। शूर्पणखा मंच पर आकर कुछ देर सीता को देखती है और मुस्कुराते हुए कहती है –

शूर्पणखा: हा हा हा ये मैं क्या देख रही हूँ। अयोध्या की रानी सीता का आज ये क्या हाल हो गया है।

सीता: कौन ?

शूर्पणखा: अरे रानी क्या बनी अब तो तू मुझे पहचानने से भी इनकार कर रही है।

सीता: अरे शूर्पणखा ! आओ...याद है, अशोक वाटिका में भी ऐसे ही सुंदर नीलकमल थे।

वहाँ भी मुझे नीलकमल में अपने राम की छवि दिखती थी और यहां भी।

शूर्पणखा: लोग कह रहे हैं राम ने अपनी प्यारी सीता को महल से धक्का दे दिया है।

सीता: लोगों का क्या है जाने क्या क्या कहते रहते हैं।

शूर्पणखा: तेरी स्थिति तो इतनी बुरी है कि किसी ने उसका नाम भी हमारी भाषा में नहीं बनाया है। और भाषाओं में तेरी स्थिति को डाइवोर्स या तलाक कहा जाता है।

सीता: अच्छा है कोई शब्द नहीं है, नहीं तो, लोग बात और बढ़ा देते।

शूर्पणखा: मुझे भी तो लोग नकटी बुलाने लगे हैं। लेकिन मैं तो हूँ ही नकटी।

सीता: क्षमा करना बहन मेरे कारण तुम्हें इतना दुख सहना पड़ा। लक्ष्मण भैया को जाने क्या हुआ, तुम्हारी नाक ही काट दी उस दिन।

शूर्पणखा: अब कारण मैं थी या तू, इसमे क्या अंतर है। इन पुरुषों में इतनी हिंसा भरी है, कुछ भी कर सकते हैं।

(केकई मंच पर आती है।)

केकई: तुम दोनों में यह पुरुषों की क्या बातें हो रही हैं।

सीता: आइए केकई माँ, आपका इस जंगल में कैसे आना हुआ।

केकई: तुमने तो जैसे, शपथ ही लेली है महलों से दूर रहने की, अबतो हमें ही आना पड़ेगा तुमसे मिलने… और यह कौन हैंसीता: ये, यह शूर्पणखा हैं, इनसे हम कुछ वर्ष पहले वन में मिले थे।

केकई: ओ … वही जिसकी नाक लक्ष्मण ने काटी थी।

शूर्पणखा: हाँ मैं वही अभागिन हूँ।

सीता: हममें से कौन है जो अभागिन नहीं है।

केकई: मैने भी, जीवन के हर मोड़ पर जो उचित समझा वही करना चाहा, पर जाने कैसे, सब ग़लत ही होता गया।

शूर्पणखा: अरे तेरे कारण ही तो ये सब हुआ। न तू अपने चोंचले करती न राम को वन जाना होता और न ही मेरी नाक कटती।

केकई: सब मुझे ही बुरा कहते हैं, पर मैने वर इसलिए माँगे थे क्योंकि राजा दशरथ वो वचन भूल गये जो उन्होंने मेरे पिता को दिया था।

शूर्पणखा: (हंसते हुए) किसे बुद्धू बना रही है तू, अब सारा दोष अपने पति पर लगा रही है।

केकई: आज मैं सबको अपनी सच्ची कहानी सुना ही देती हूँ।

शूर्पणखा: चलो सुनते हैं तेरी भी गाथा।

केकई: मैं अपने पिता अश्वपति की इकलौती और बहुत लाडली बेटी थी, (पक्षियों की आवाजें आने लगती हैं) जब मैं छोटी थी तब एक दिन...

(केकई के पिता मंच पर हँसते हुए आते हैं, उनके पीछे पीछे उनकी पत्नी भी आती हैं ) - अतीतावलोकन

माँ: आप किस बात पर इतनी जोर से हंस रहे हैं।

पिता: अरे यह पक्षी भी कभी कभी ऐसी बातें करते हैं के हंसी आ hi जाती है।

माँ: आपको पक्षियों की बातें समझ आती हैं?

पिता: हाँ कुछ वर्ष पहले मुझे यह वरदान मिला था कि मैं पक्षियों की बातें समझ सकूंगा।

माँ: (पिता का हाथ पकड़ते हुए फिर बताइये न मुझे भी क्या बातें कर रहे हैं यह।

पिता: किंतू इस वरदान के साथ मुझे एक श्राप भी मिला था। अगर मैं इनकी बातें किसी को बताऊंगा तो मेरी मृत्यु हो जाऐगी।

माँ: मैं नहीं मानती ऐसे श्राप को। कुछ नहीं होगा आपको। बताइये न, क्या कह रहे थे यह पक्षी।

पिता: देखो हमें श्राप का मजाक नहीं बनाना चाहिए, इनमें बहुत सत्य होता है।

माँ: आप भी, इतने ज्ञानी हो कर भी कैसी दकियानूसी बातें करते हैं। मालूम नहीं कैसे हमारा विवाह हो गया

पिता: विवाह तो विधी का विधान है पर आपका हठ मेरी मृत्यु का कारण बन सकता है।

केकई: मेरी माँ के निरन्तर हठ के कारण, मेरे पिता ने उन्हें हमेशा के लिए मायके भेज दिया। एक दिन, राजा दशरथ उनके पास आये…

दशरथ: महाराज अश्वपति, मैं आपकी बेटी केकई से बहुत प्रेम करता हूँ। (घुटने पर बैठते हुए) आज, मैं आपसे उसका हाथ मांगने आया हूँ।

पिता: राजा दशरथ, केकई मेरी इकलौती बेटी है। उसे मैंने पिता का ही नहीं माँ का प्यार भी दिया है। वो मेरे ह्रदय का अटूट हिस्सा है।

दशरथ: मैं आपकी बेटी को बहुत प्रेम से रखूँगा, उसे कभी कोई दुःख नहीं होने दूंगा।

पिता: किंतु तुम्हें वचन देना होगा कि केकई का बेटा ही अयोध्या का अगला राजा बनेगा।

दशरथ: मैं वचन देता हूँ।

शूर्पणखा: ओ हो हो कितना तरस आ रहा है मुझे तुझ पर। इस सब के बाद भी तेरा बेटा राजा नहीं बना।

केकई: और इसी लिए मेरे पति की मृत्यु हुई। लोग सोचते है कि उनकी मृत्यु मेरे वर के कारण हुइ।

सीता: मैं आपकी बात कुछ समझी नहीं।

केकई: मैने अपने पति दशरथ से दो वर माँगे थे: एक, कि मेरा बेटा भरत राजा बने, और दूसरा, की राम 14 वर्षों के लिये वन जाएँ। मेरे पति ने राम को तो आज्ञा दी कि वो वन जाएँ पर भरत को यह आज्ञा नहीं दी कि वो राजा बने।

सीता: पर, भरत ने १४ वर्श अयोध्या पर राज्य किया तो था।

केकई: भला ऐसे भी कोई राज्य करता है। सिंघासन पर तो राम की खड़ाऔं थीं, मेरे पति दशरथ ने जो वचन मेरे पिता को दिया था वो आज तक पूरा नहीं हुआ है। प्राण जाए जब वचन न राखे।

शूर्पणखा: मैं तो कहूँ तेरे बेटे भरत में ही खोट है उसने तेरी बात नहीं मानी। इसी लिए तेरा पति भी मरा।

(हनुमान मंच पर आते हैं।)

हनुमान: जय श्री राम, क्षमा करें सीता मैया, मैं बिना बुलाए ही आपसे मिलने आ गया।

सीता: आइए पवनपुत्र, आप कभी भी आ सकते हैं। हम तीनों तो यूँ ही अपने अतीत को याद कर रहे हैं।

केकई: आप, हनुमान हैं? ज़रा पीछे तो मुड़िए... अरे आपकी पूंछ कहाँ है?

हनुमान: आप भी इस भ्रम में आ गयीं … जाने किसने यह लोकवाद फैला दिया है की मैं पूंछ वाला बंदर हूँ। असल में तो मैं वानर हूँ वानर माने वन नर वो नर याने मनुष्य जो वन में रहे। वन में केवल बंदर तो नहीं रहते, मनुष्य भी रहते हैं।

केकई: हूं… यह तो मैंने पहली बार सुना है।

हनुमान: आप लोग अपने अतीत की सोच रहे हैं। मैं तो कहता हूँ हमें अपने अतीत और अपने भविष्य दोनो को प्रभु को न्योछावर कर देना चाहिए, जो प्रभु से माँगो सच हो जाता है।

शूर्पणखा: क्या बकवास करता है तू हनुमान मैने तेरे प्रभु राम से विवाह करने को कहा था। विवाह तो हुआ नहीं, जीवन भर के लिए मेरी नाक और कट गई।

हनुमान: शूर्पणखा जी, आपने सच्चे मन से नहीं माँगा होगा प्रभु से। नहीं तो आपकी अभिलाषा अवश्य पूरी हो जाती।

शूर्पणखा: मैंने तो सच्चे मन से ही उनका हाथ माँगा था।

हनुमान: हो सकता है, आपने प्रभु से विवाह करने का केवल बहाना किया हो, इसके पीछे आपका उद्देश्य कोई और होगा?

शूर्पणखा: तू देखने में तो बंदर लगता है, पर बात पते की करता है। अब तू इतनी गहराई में जा ही रहा है तो सच बताना ही पड़ेगा।

सीता: हाँ मैं भी जानना चाहती हूँ कि तुम मेरे राम से क्यों विवाह करना चाहती थीं।

शूर्पणखा: मेरी भी लंबी कहानी है … मैं और मेरा बड़ा भाई रावण राक्षस परिवार में पैदा हुए थे। राक्षसों के सबसे बड़े शत्रु थे दानव, पर मैं क्या बताऊं, दानवों के राजकुमार विद्युतजीव से मुझे प्रेम हो गया था।

(रावण मंच पर जल्दी से आता है)

रावण: यह मैं क्या सुन रहा हूँ, राक्षसों के राजा रावण की बहन शूर्पणखा एक नीच दानव से विवाह करना चाहती है।

शूर्पणखा: मुझे मालूम था भैया आप हमारे विवाह के लिए कभी तैयार नहीं होंगे, इसलिए विद्युतजीव और मैंने चुपके से पहले ही विवाह कर लिया है।

रावण: यह तुमने क्या कर दिया शूर्पणखा। हमारे कुटुंब का, राक्षसों की प्रतिष्ठा का तुम्हें कुछ ख्याल नही आया।

शूर्पणखा: मुझे क्षमा कर दीजिए भैया मैं प्रेम में बावली हो गई थी।

रावण: तुम्हारी यह गलती क्षमा योग्य नहीं है शूर्पणखा, मैं अभी जाकर विद्युतजीव से बदला लूंगा।

(यह कह कर रावण मंच से चला जाता है)

शूर्पणखा: और रावण ने मौका पाते ही मेरे पति को मार दिया।

हनुमान: रावण था ही ऐसा … अच्छा हुआ न हमारे प्रभु ने उसे सदा के किए इस धरती से विदा किया।

शूर्पणखा: मैं भी यही चाहती थी। राम को मिलते ही मुझे लगा की यही एक वीर हैं जो रावण को मार सकते हैं।

(राम मंच पर आते हैं)

शूर्पणखा: हे सूर्यवंशी राम! मैं आपकी वीर गाथा कब से सुन रही हूँ, आज आपको देखा, तो ऐसा लगा की आप मेरे लिए ही इस संसार में आए हैं।

राम: देवी मैंने आपको पहचाना नहीं, आप हैं कौन ?

शूर्पणखा: आप मुझसे विवाह कर लीजिए आपको मेरे बारे में सब ज्ञात हो जाएगा ।

राम: देवी, मेरा तो विवाह पहले ही हो चुका है, आप किसी और के पास जाइए।

(राम मंच से चले जाते है)

शूर्पणखा: जब राम ने मुझे ठुकरा दिया और लक्ष्मण ने मेरी नाक काट दी तो मुझे इतना क्रोध आया, मैं सीधी रावण के पास गई

(रावण मंच पर आता है)

रावण: अरे शूर्पणखा, यह तेरी नाक को क्या हुआ ?

शूर्पणखा: इसकी कहानी मैं आपको फिर कभी सुनाऊंगी … (कुछ सोच कर) भैया, आपने मेरे पति को मारा, मैने कुछ न कहा। अब मैं राम से विवाह करना चाहती हूँ ।

रावण: हाँ हाँ राम से विवाह कर ले, मुझे कोई आपत्ति नहीं है।

शूर्पणखा: भैया, पर राम मुझसे तब तक विवाह नहीं करेंगे जब तक उनकी पत्नी सीता उनके साथ है ।

रावण: तू कहना क्या चाहती है ?

शूर्पणखा: भैया, सीता आपको इतनी पसंद है, आप उसको चुरा क्यों नहीं लाते । फिर आप सीता से विवाह कर लेना और मैं राम से।

रावण: तू बात तो बहुत पते की करती है। मैं अभी जाता हूँ सीता को चुराने।

(रावण मंच से चला जाता है)

शूर्पणखा: मुझे विश्वास था अगर रावण सीता को चुरायगा तो राम अवश्य उसे मार देंगे। बाकी की रामायण तो आप सब को मालूम ही है।

हनुमान: जैसा मैने कहा मेरे राम सब के मन की बात सच कर देते हैं।

केकई: मैं अगर अपने पति का वचन पूरा करने का, और शूर्पणखा अपने भाई रावण की हत्या का आग्रह नहीं करतीं, तो सीता आज भी महलों की रानी बनी होती।

शूर्पणखा: पर यह तो राम का अन्याय है, कोई अपनी पत्नी को ऐसे किसी धोबी के कहने पर घर से निकाल दे। छी छी छी बहुत लज्जा की बात है।

केकई: ऐसा ना कहो शूर्पणखा, लोगों ने राम को आज भगवान का रूप दे दिया है। किसी ने सुन लिया तो तुम्हारी बहुत निंदा होगी।

शूर्पणखा: अरे कैसे भगवान, कैसा राम राज्य। जो अपनी देवी जैसी सीता को घर से निकाल दे। ऐसा अन्याय तो हमने कभी लंका मे भी नहीं सुना।

सीता: (खड़े हो कर) बहुत हो गया, अब और नहीं सुने जाते अपने राम के बारे में ऐसे वचन...

शूर्पणखा: राम ने तेरे को महल से निकाल दिया, इतना दुख दिया, फिर भी उसके लिए तेरा प्रेम कम नहीं हुआ। अभी भी उसका पक्ष ले रही है।

सीता: नहीं नहीं मैं सच कह रही हूँ। एक दिन, मैं राम के पास गई…

(राम मंच पर आते हैं)

सीता: राम! मैं महलों में रह कर अब तंग आ गयी हूँ, वन में हमारे दिन कितने शांति से कटे। यहाँ तो हर राजा अश्वमेध यज्ञ कर अपना राज्य बढाना चाहता है - राजा दशरथ ने किया था, और अब आप भी करना चाहते हैं। मैं नहीं चाहती की मेरे बेटे ऐसे वातावरण में बड़े हों।

राम: तो आप, क्या करना चाह्ती ?

सीता: मैं चाहती हूँ, कि मैं अपने बेटों को किसी ऋषि के आश्रम में स्वयं बड़ा करूं, जहाँ वो योद्धा तो बने ही पर औरों के हित का भी सोचें।

राम: सीते आप ठीक कहती हैं, हम दोनों फिर वन जायेंगे और अपने बेटों का वहां पालन पोषण करेंगे।

सीता: नहीं, अयोध्या की प्रजा को आपकी अवश्यकता है। वो राम राज्य चाहते हैं, आप चले गये तो उनका क्या होगा। भरत फ़िर आधे मन से राज्य करेंगे। मैं अकेली ही जाऊंगी। राम:मैं कैसे आपको जाने दूं, सीते? आपके बिना मैं कैसे जीवन बिताऊंगा?

सीता: आप धोबी की बात का बहाना बना कर मुझे महल से निकाल दीजिए, अयोध्यावासी आपसे बहुत प्रसन्न होंगे, कहेंगे आपने एक साधारण नागरिक की बात रखने के लिए अपनी पत्नी को महल से निकाल दिया।

(राम मंच से चले जाते है)

सीता: मैंने इतना हठ करा कि राम ने वही किया जो मैं चाहती थी।

हनुमान: (मंच के बीच में आ कर) कैसी माया है यह। सारी रामायण तो आप तीनों के कारण हुई, राम ने तो केवल वो किया जो आप चाहती थीं। जैसा मैं कहता आया हूँ एक बार फिर कहता हूँ मेरे राम सब के मन की बात सच कर देते हैं।

(सीता एक बार फिर नीलकमल तोड़ने का प्रयत्न करती है। शूर्पणखा उसकी सहायता करती है। इस बार उसे फूल मिल जाता है।)

सीता: हे पवनपुत्र ! यह नीलकमल मेरे राम को दे देना, कहना, उनकी सीता अब आत्मनिर्भर है। उसे अब किसी की आवश्यकता नहीं है।


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