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Satyam Kumar Srivastava

Drama

4.6  

Satyam Kumar Srivastava

Drama

बारिश के संग प्रीत

बारिश के संग प्रीत

8 mins
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सुबह एक आवाज से मेरी नींद खुली जल्दी से नहा ले और नाश्ता कर ले, हम लोगों को मेरे मायके यानी तेरे ननिहाल जाना है।

माँ ने अपने कमरे से आवाज दे के कहा। सुबह के वही करीब ७:१५ बज रहे होंगे हम लोग घर से निकल के बस स्टॉप पर पहुंचे। माँ की आदत है कि वो सुबह उठ के घर का सब काम कर लेती है आज भी वही हुआ पर रोज की तरह आज माँ थोड़ा और पहले उठ गई क्योंकि आज हमलोग को जाना जो है। मैं आज बहुत समय बाद अपने ननिहाल जा रहा हूँ जब मैं छोटा था तब गया था माँ ने बताया था। हमलोग बस स्टॉप पर पहुँचे तो पहली बस जा चुकी थी हम लोग इंतजार करने लगे। माँ स्टेशन पर लगी घड़ी को ऐसे देख रही है मानो जैसे सदियों से इसी तरह इंतजार कर रही हो।

तभी एक बस आ गई मैने माँ को उनके ख्यालो से बाहर निकाला और बोला अब चलो भी एक तो मेरी नींद गई और ऊपर से बारिश का ये मौसम। मेरा जरा भी मन नहीं है जाने का खैर जाना पड़ा। लगभग छः से सात घंटे का सफर कर के हमलोग अपनी मंजिल को पहुँचे। इस समय बारिश नहीं हो रही है लेकिन रास्तों पर पानी है कीचड़ है शायद एक दो दिन पहले बारिश हुई हो मैंने ख्याल किया। उफ ये कीचड़ मेरा तो पैर ही धस गया थोड़ा गुस्से से मैंने कहा । तभी माँ ने कहा देख के यहाँ के रास्ते थोड़े खराब है। माँ के चेहरे पर एक मुस्कान सी है । जैसे कोई बर्षो से प्यासा कुआँ पा गया हो।

मैंने मन में ही कहा ये थोड़ा सा है ! घर पहुँच के बड़ो को प्रणाम किया और उनका आशिर्वाद लिया। रास्ते की थकान के कारण घर जाते समय कुछ देखा नहीं। सब लोगों के खाना खाने के बाद मैं सोने चला गया थकान जो थी और माँ सब से बातें करने में व्यस्त हो गई। गाँव मे लोग शहर की अपेक्षा जल्दी उठते हैं तो घर मे सब लोग जल्दी उठ गये। आज मैं भी अपने नित्यदिनचर्या से थोड़ा पहले उठ गया और बाहर जाके बैठका में बैठ गया और अख़बार पढ़ने लगा। अंदर से आवाज आयी और मैं नास्ता करने चला गया। मैं चारो तरफ देखा फिर पूछा माँ कहाँ हैं तो पता चला कि वो गाँव में सबसे मिलने गई हैं। मैंने भी कहा कि मैं जरा घूम के आता हूं गाँव इसका दीदार तो करूँ जैसे ही बाहर निकले के लिए पैर बढ़ाया तभी अंदर से आवाज आई अपने खेत से कुछ सब्जी भी ले आना।

मुझे तो पता था नहीं कौन सा खेत अपना है कौन पराया इसलिये मैं पूछ लिया। पूछने पर पता चला कि वो सामने जो पगडंडी जा रही है उसी से होकर जो मेड़ वाला रास्ता है वही पर है अपना खेत। बस इतना सुनना था कि मैं निकल गया, क्या दृश्य था खुला आसमान, उड़ते पंक्षी और सूर्य की दिव्य लालिमा। मैं रास्ते मे था कि कुछ लोग मिल गये शायद वो लोग मुझे पहचानते है पर मैं उन्हें नहीं जनता हूं क्योंकि मैं आया ही कब का हुँ यहाँ। उसमे से एक ने माँ का नाम लेके कहा कि तुम मास्टर साहब की बिटिया के ही लड़के हो ना मैं हा में सिर को हिला दिया।

मेरे नाना जी गाँव के एक स्कूल में हेडमास्टर है इसलिये मेरे घर के सभी लोगों को वहाँ पर सब जानते है। उन्होने माँ के बारे में पूछा कि वो कैसी है मैंने कहा ठीक है गाँव में है , गई है मिलने सबसे । तब उस बूढे आदमी ने कहा हा इतने दिनों बाद जो आयी हैं और तुम बताओ गाँव घूमने आये हो । मैं मन मे कहा कि यहाँ आया हूं तो घूमने ही आया हु ना कि कुछ और करने पता नहीं कैसे लोग है ? मैं ये सोच रहा था कि तभी उस बूढ़े आदमी ने कहा अच्छा मैं चलता हूं खेत मे बहुत काम है। तभी मुझे खेत से याद आया कि मुझे भी खेत मे जाना है और मैंने मन मे कहा पहले खेत फिर यहाँ का भ्रमण और अपने खेत की ओर चल दिया। खेत पहुँचा तो देखा खेतों में पीली सरसों लगी हुई है और गन्ने के पेड़ भी और ऊपर से मनोहर हवा का झोंका मन को एक सुकून दे रहा है जैसे सब दर्द थकान मिट गई हो । पर सूर्य देव है कि उनका क्रोध शांत ही नहीं हो रहा है मानो उनसे मेरा यह आनंदमयी रूप देखा ना जा रहा हो लेकिन मैं भी कहा मानने वाला हुँ आम के पेड़ की छांव के नीचे जा के बैठ गया। धीरे धीरे सूर्य देव भी हार कर अपने घर जाने को तैयार होने लगे । वाह क्या अद्भुत नजारा है मेरे मुंह से सहसा निकल पड़ा सूर्य की लालिमा अपने सारे प्रकाश को समेट रही है जैसे विशाल रूप धारण की हुई अग्नि एक दीपक की लौह में बदल रही हो।

वही करीब शाम के छः बजे होंगे मैंने अनुमान लगाया । वैसे भी गाँव में दिन जल्दी ढल जाता है । तभी ना जाने कहा से अचानक बादल घिरने लगे और मैं घर की ओर चल दिया । थोड़ा जल्दी में था कि कहीं भीग ना जाऊ इसलिये कुछ नहीं देखा ना ही कीचड़ ना ही पानी बस निकल पड़ा घर के लिये । एक पैर पानी मे तो दूसरा पैर कीचड़ में । छप छप की आवाज करते करते घर पर पहुँच ही गया । पर ये क्या जैसे ही घर पहुँचा तभी क्या देखा ? बादल भी छट गये और ना हि हुई रिमझिम सी फुहार । जैसे लग रहा है कि मुझे भागता देख के बादल काका को अच्छा लग रहा हो , तभी तो जोर जोर से गरज रहे थे जब तक मैं घर पर ना गया। खैर कोई बात नहीं पर पूरा मेरा आलेखन बन गया है । सब मुझ पर हस रहे हैं । मैं भी देख के थोड़ा मुस्कुरा दिया।

आज मुझे नींद ही नहींं आ रही है । ना जाने मेरी इन आँखों को किस पल का इंतजार है । इन पलों के ख़्वाब में कब पलकें बंद हो गई पता ही नहीं चला और सीधे सुबह ही जा के खुली। दैनिक क्रिया से निवृत होने के बाद में कमरे में बैठ गया । पौने ग्यारह का समय हुआ होगा तबी मेरी पथराई आँखों ने कुछ देखा । जिस पल का इंतजार था शायद यही वो पल हो पर भविष्य किसने देखा है कि अगले छड़ क्या होने वाला हैं । अब कल शाम की ही बात कहे तो क्या हुआ । तो मैंने बस ख्याल बुना की कास यही वो पल हो लेकिन नहींं। सहसा कुछ समय बाद फिर वही मंजर आँखों के सामने । पर इस बार बात कुछ और ही है । अचानक रिमझिम सी बारिश शुरु हो गई । उस समय लगा की किसी ने सत्य ही कहा है कि खुली आँखों से देखा हुआ सपना सत्य होता है। मैं सहसा उठ के बाहर निकल आया। क्या सुहाना सा मौसम हो चला है । चारों तरफ हरियाली ही हरियाली। मैं हल्की रिमझिम सी फुहार में अपने खेतों की और दौड़ चला। खेत पहुँचा तो मन मानो कुछ पल के लिए ठहर सा गया हो जैसे इन आँखो ने किसी योवन रूपी सुंदरी को देख लिया हो । मानो जैसे मन ही मन उससे प्रीत कर बैठा हूँ। ऐसा दृश्य देख के उसको मन ही मन में काव्य बध्य करने लगा।

रिमझिम सी ये बारिश , बारिश की ये बूंदे 

इन बूंदों की छम छम जैसे हो बंसी का स्वर 

तान छेड़ के सुरमई नृत्य करे फिर भू के संग 

दृष्य मनोहर ऐसा लगता जैसे चिर यौवन सी बाला लह लाहये अपनी दोशाला

मेरे मन की कोयल कूके सुर में फिर इसके वो झूमे ।।

लहलहाते सरसों के फूल, उड़ते हुये पंछी का स्वर, नित्य करते हुए मोर, नहरो और नदियों के पानी की कल कल जैसी ध्वनि का स्वर मन को मनमोहित कर रहा है। मन कर रहा है इस बारिश के संग जो प्रीत लगी है उसे जन्म जनम के लिए अपना बना लू । मन तो कह रहा है यही पर मण्डप बांध दु और इसके साथ सात फेरों में बंध जाऊँ और इन नदियों के पानी को ले कर ये संकल्प करू की ये तेरे प्रति मेरी प्रीत जनम जन्म तक बनी रहे। मैंने भी अपनी बाहे खोल दी और बारिश की बूंदों को बाहों में भरने लगा। ऐसा लग रहा है जैसे पूरा मन प्रेम रस के आनंद से आनंदित हो उठा हो। छम छम करती बारिश की बूंदें जैसे हमारे मिलन पर बंसी बजा रही हो। पर कुछ देर में छटते हुए बादल के साथ साथ मन के भी प्रीत रूपी उमड़े बादल छटने लगे और ऐसा लग रहा है जैसे इन छटते बादलों के साथ साथ वियोग रस की उत्पत्ति हो रही हो। आख़िर वियोग रस की उत्पत्ति हो ही गई अब मन जैसे असांत हो गया हो । ना वो रस ना ही वो उमंग । कुछ नहीं रहा बस एक वीरान सा हो गया है। कुछ देर तक वहीं ऐसे ही आसमान को निहारता रहा । शायद मैं उस प्रेम रस की तलाश कर रहा हूँ जिसका मैंने पूरा रसपान भी नहीं किया हो। धीरे धीरे दिन ढलता गया बादल ग़ायब होते गये और उसी के साथ साथ मेरे घर वापस लौटने का समय भी आ गया। वियोग रूपी मुख लेके घर को लौट आया। आते ही घर में आवाज आयी बारिश में भीग आया शायद माँ की आवाज थी । मैंने ध्यान नहीं दिया और सीधे वियोग लिए सो गया। सुबह हम लोगों के वापस जाने का समय भी हो चला। सब लोगों से मिल के उनका आशिर्वाद ले कर निकाल ही रहे थे कि एक आवाज आयी अब फिर कब आना है । जल्दी ही आऊंगा कह कर चल दिये फिर उसी पुरानी सी मंजिल की तरफ।


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