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Satyam Kumar Srivastava

Inspirational

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Satyam Kumar Srivastava

Inspirational

लोक व्यवहार नेग रिवाज

लोक व्यवहार नेग रिवाज

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वैसे तो हमारा देश बहुत से प्रथा और रिवाज से भरा है उनमेंं से कुछ प्रथा तो ख़त्म हो गई पर कुछ रिवाज आज तक जैसे के तैसे पीढ़ी दर पीढ़ी चलते आ रहें हैं। कहने तो बहुत कुछ कह सकते है इनको बस इतना ही है कि ये सब कुरीति ही हैं जो रिवाज नामक शब्द का चोला ओढ़ी हुई है। रिवाज शब्द वैसे तो अपने आप मेंं ही बहुत कुछ कहता है पर आज के समाज ने इसे बस एक दिखावे वाली पोटली बना दिया है जो बाहर से तो रंग बिरंगी दिखती है जिसे देखने पर एक अच्छी छवि दिखती है पर वास्तव मेंं अंदर से कुछ और ही है ये। अगर इस पोटली को जादुई पोटली कहा जाए तो वो गलत नहीं होगा क्योंकि यदि ये पोटली अलग - अलग लोगों के पास आ जाये तो फिर उनका व्यवहार देखी। वैसे तो हमलोगों ने बहुत सी प्रथा देखी जिसमेंं से कुछ प्रथा जैसे कि सती प्रथा जिसमेंं स्त्री सती होती थीं , बाल- विवाह प्रथा जिसमेंं बाल्यावस्था मेंं ही विवाह हो जाया करता था , कुछ मेंं तो पति के मरणोपरांत उसकी पत्नी का सफेद साड़ी ओढ़ना और उसका मुरण करवाना भी था और कही कही तो अगर कुछ अपसगुन हो जाये या परिवार मेंं किसी की मृत्यु हो जाये तो स्त्री का पेड़ या कुकुर के साथ विवाह कराया जाता था। पर ये सब रिवाज धीरे - धीरे पैरों मेंं पड़ी चप्पल की तरह घिस गये और कुछ बहिष्कार करवा के हटा दिए गए जैसे कि बाल - विवाह का बहिष्कार राजा राम मोहन राय ने किया था। पर आज के समाज मेंं भी एक प्रथा जीवित है जो सदियों से ठंडी हवा की तरह चली आ रही है । जिस को छू ले उसको आंनदित कर जाती है और मन मेंं एक लालसा सी बढ़ा जाती है । जितना मिले उनती ही कम लगती है । इस प्रथा का नाम है दहेज प्रथा। 

वैसे ये रिवाज मेंरी नजर मेंं खराब नहीं बल्कि बहुत अच्छा है । बस ये आज के परिवेश मेंं बदनाम जो चुका है । क्योंकि लोग का इसके प्रति व्यवहार कुछ अजीब सा है । लोग इसको एक कुरीति के रूप मेंं ही स्वीकार करते चले आ रहें हैं जैसे पहले था। मैंने समझा की समय के साथ कुछ बदलाव आयेगा पर ये तस से मस नहीं हुई । बल्कि इसका कद और ऊँचा हो गया है। पर कही - कही बदला - बदला सा नजारा देखने को मिल जाता है। वैसे मैं इस रिवाज को बुरा नहीं बताया है यह सोच के आप थोड़ा सा चिंतित होंगें कि ये भी वैसे ही है जो बदलाव की बात कर रहें हैं । पर मैं बता दूँ कि क्यों ये मेंरे नजर मेंं अच्छा हैं क्योंकि ये एक ऐसा रिवाज है जिसमेंं आप अपने व्यवहार से सामने वाले के प्रति अपने आप को उनकी नजरों मेंं व्यवहारिक बना सकते है। मेंरी नजर से इस प्रथा मेंं आप दूसरे पक्ष से दहेज मेंं एक आशीर्वाद (एक वादे के रूप मेंं ) मांग सकते है कि मैं अपनी घर की लक्ष्मी को उसी रूप मेंं सदैव रखु जिस रूप की वो वास्तविक हकदार है। लेन देन के रूप मेंं लोग बहुत कुछ अच्छा ले सकते है और दे सकते है। पर आज का समाज....समझ तो गए ही होंगे आप की मैं क्या कहना चाहता हूँ आज के समाज के बारे मेंं। आज के लोगों ने दहेज शब्द को रुपये - पैसे , धन - दौलत, हीरे - जवाहरात जैसे चीज से परिभाषित कर रखा है। इन लोगों को बस धन वाली लक्ष्मी चाहिए। ये सब परिभाषा हम जैसे समाज मेंं रहने वाले प्राणियों ने ही बनाया है । जिसमेंं से कुछ ने इसको सकारात्मक सोच के साथ नकार दिया है तो कुछ लोग आज भी इसका बोझ रूपी थैला ले के घूम रहे है कि जितना मिल जाये भर ले और बोझ तले अपने आप को समाज मेंं झुका ले। ये सब उन सामाजिक प्राणियों के लिए है जो दिखवा दिखान चाहते हैं अपनी सम्पत्ति का प्रदर्शन करना चाहते हैं। इस प्रदर्शन के साथ - साथ उनके व्यवहार मेंं भी परिवर्तन आता हैं कुछ तो ऐसे है जो अपनी थाली और बड़ी कर लेते है पता नहींं किस जन्म के भूखें हैं। 

लोगों को अपने इस रिवाज को परिवर्तित करना चाहिए और उन लोगों से कुछ सीख लेनी चाहिए जो लोग इस रिवाज को त्याग चुके हैं। अगर लोग यही किसी गरीब को दान दे दे तो क्या उनका कद कम हो जायेगा पर नहींं उनकी सोच वो ही जानें। इन जैसे लोगों के लिए एक कहावत बहुत सटीक कही गई है कि हाथी के दाँत दिखाने के कुछ और है और खाने के कुछ और।

महात्मा गाँधी ने दहेज प्रथा के बारे मेंं कहा था की

"जो भी व्यक्ति दहेज को शादी की जरुरी सर्त बना देता है, वह अपने शिक्षा और अपने देश को बदनाम करता है, और साथ ही पूरी महिला जात का भी अपमान करता है।"

ये बात महात्मा गाँधी ने देश की आजादी से पहले कही थी। लेकिन आजादी के इतने साल बाद भी दहेज प्रथा को निभायी जाती है। हमारे सभ्य समाज के गाल पर इससे बड़ा तमाचा और क्या हो सकता है?

हम सभी ऊँचे विचारों और आदर्श समाज की बातें करते हैं, रोज़ दहेज जैसी अपराध के खिलाफ चर्चे करते हैं, लेकिन असल जिंदगी मेंं दहेज प्रथा जैसी जघन्य अपराध को अपने आस पास देख के भी हम लोग अनदेखा कर देते हैं। ये बड़ी ही शर्म की बात है।

दहेज प्रथा को निभाने वालों से ज्यादा दोषी इस प्रथा को आगे बढ़ते हुए देख समाज मेंं कोई ठोस कदम नहींं उठाने वाले हैं। दहेज प्रथा सदियों से चलती आई एक विधि है जो की बदलते वक़्त के साथ और भी गहरा होने लगा है। ये प्रथा पहले के जमाने मेंं केवल राजा महाराजाओं के वंशों तक ही सिमित था। लेकिन जैसे जैसे वक़्त गुजरता गया, इसकी जड़ें धीरे धीरे समाज के हर वर्ग मेंं फैलने लगा। आज के दिन हमारे देश के प्रयात: परिवार मेंं दहेज प्रथा की विधि को निभाया जाता है।

दहेज प्रथा लालच का नया उग्र - रूप है जो की एक दुल्हन की जिंदगी की वैवाहिक, सामाजिक, निजी, शारीरिक, और मानसिक क्षेत्रों पर बुरा प्रभाव डालता है, जो की कभी कभी बड़े दर्दनाक परिणाम लाता है।

दहेज प्रथा की परिणाम के बारे मेंं सोच कर हर किसी का रूह काँपने लगता है, क्यूंकि इतिहास ने दहेज प्रथा से तड़पती दुल्हनों की एक बड़ी लिस्ट बना रखी है। ये प्रथा एक लड़की की सारी सपनो और अरमानो को चूर चूर कर देता है जो की बड़ी ही दर्दनाक परिणाम लाता है।

लगभग देश की हर कोने मेंं ये प्रथा को आज भी बड़े ही बेजिजक निभाया जाता है।

ये प्रथा केवल अमीरों तक ही सिमित नहींं है, बल्कि ये अब मध्य बर्गियों और गरीबों का भी सरदर्द बन बैठा है।

सोचने की बात है की देश मेंं बढ़ती तरक्की दहेज प्रथा को निगलने मेंं कहाँ चूक जाती है? ऊँच शिक्षा और सामाजिक कार्यकर्मों के बावजूद दहेज प्रथा अपना नंगा नाच आज भी पूरी देश मेंं कर रही है। ये प्रथा हर सामाजिक प्राणियों के लिए सच मेंं एक गंभीर चर्चा बन गयी है जो की हमारे बहु बेटियों पर एक बड़ी ही मुसीबत बन गयी है।

ये सब कुछ नहीं बस रिवाजों के नाम पर कुढ़न देना है उन लोगों को जो इसके हक दर नहीं है।

अगर मैं अपने कॉलेज सयम की ही बात करूं तो जिस समय मैं बी० टेक० (इंजीनियरिंग) कर रहा था उस समय "Human Behavior" नाम का एक विषय होता था । अब वो विषय आज है कि नहीं ये तो नही पता पर उसकी जरूरत आज सबको है । वैस तो अगर मैं अपने शब्दों मेंं व्यवहार को परिभाषित करू तो-

" व्यवहार व्यक्ति के चरित्रों का ऐसा गुड़ है जो अपने आप ही पारदर्शिता दिखलाता है और उसके व्यक्तित्व को और निखारता है। "

सच तो यही है कि हमारा व्यवहार ही है जो हमें सभ्य समाज में रहने लायक बनाता है, नहीं तो समाज में जीव - जन्तु भी रहते हैं।

ये सब तो रहा लोक व्यवहार के बारे में अब बात करते है नेग रिवाज की । वैसे तो नेक रिवाज अच्छा भी है और बुरा भी । बस सबके देखने का दृष्टिकोण अलग - अलग हो सकता है । अगर हम शादी उत्सव का ही उदाहरण ले तो इससे नेग रिवाज को समझना आसान होगा । शादी में द्वारछेकाई से लेकर जूता चुराई तक की रस्म में नेग दिया और लिया जाता है ।


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