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मैं आ गई

मैं आ गई

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माता पिता के जाने के बाद, मैंने खुद को संभाला मगर उसे नहीं संभाल पाया। उसकी हँसी जैसे खो सी गई। उसने स्कूल जाना बंद कर दिया, मैंने घर में उसे पढ़ाया। उसने दोस्तों के साथ खेलना बंद कर दिया, मैं उसका खिलौना बन गया। उसकी आँखों में कई सवाल थे और मेरे होंठो पर ख़ामोशी।

एक समय था जब उसकी शोर से सारा मोहल्ला झूम उठता। मगर उस दिन, पूरा मोहल्ला उसे मिलने आया था, उसकी अंतिम विदाई पर। मेरी हर कोशिश, उसे खुश रखने की, मुझे उससे दूर ले गई। वो, चली गई।

मेरे जीवन को स्थिर छोड़ दिया। न किनारा मिला, न कश्ती डूबी। फिर, वो दिन आया।

मेरी कलाई खाली थी मगर मेरे नैना भरे। उसकी तस्वीर को सीने से लगाकर रोया। दिल भारी हो गया जब कानों पर वो आवाज़ पड़ी।

"भैया"।

मेरा जी ख़ुशी से मचल उठा।

वो, मेरी गौरी, मेरे सामने थी। मेरी ओर बढ़ते हुए उसने कहाँ "मैं आ गई"।

मैं अपने घुटनों तले गिर पड़ा।

"मैं आपके संग नहीं रह पाई भैया, इसमें आपकी कोई गलती नहीं। मुझे माँ बाबूजी की फिकर सता रही थी, इसलिए मैं उनके पास गई", गौरी ने कहा।

मैंने उसे गले से लगाया और फूट-फूटकर रोने लगा।

दर्द लिए वो बोली, "रो मत भैया, मुझे आपकी भी फिकर है, और आज, रक्षाबंधन के दिन, मैं आप ही के लिए आई हूँ। हमारा रिश्ता राखी से नहीं, दिल से जुड़ा है"।

मेरे माथे को चूमते हुए वो गाने लगी, "फूलों का, तारों का, सब का कहना है, एक हज़ारों में मेरे भैया है, सारी उमर, हमें संग रहना है"।

आज बीस साल हुए उसे गए हुए। बस उस एक दिन का इंतज़ार करता हूँ कि कब वो आए और कहे "मैंं आ गई"।


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