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आम आदमी नहीं, आलू आदमी कहा जाना चाहिए।

आम आदमी नहीं, आलू आदमी कहा जाना चाहिए।

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देश में इन दिन आलू प्रेम चरम पर है। जिधर भी देखो आलू ही आलू दिखते हैं। चाट पकौड़े की दुकान पर आलू टिकिया, समोसे में आलू, गोलगप्पे में आलू, बटाटा वड़ा में भी आलू। बाई की मेहरबानी आजकल आलू पर ही अधिक दिखती है। जब देखो तो सब्जी बनी है आलू मटर, आलू मेथी, आलू गोभी, आलू भिंडी, आलू पालक, आलू दम वगैरह वगैरह की, नाश्ते में भी बनाया तो आलू पराठा, आलू पोहा, आलू भजिया। लिखते लिखते ही मुंह में पानी आने लगा है। होटल हो या घर, लोग आलू के इस कदर दीवाने हैं कि अगर एक दिन आलू का मुंह न देखें तो पेट का हाजमा ही खराब हो जाए। मेरे एक दोस्त ने जब बताया कि उनके घर में दिन भर में 7 किलो आलू की रोजाना खपत हैं, तो मुझे गश आने लगा। मैं सोचने लगी हूं कि देश की अधिकतर जनता, आम आदमी क्यों है ? जबकि आम का रेट तो इस समय काजू बादाम के बराबर होता जा रहा है। क्या इतनी महंगाई में आम किसी आम आदमी के मुंह तक पहुंच सकता है ? बाजार में एक दिन गलती से फल वाले से पूछ बैठी भाई आम के रेट क्या हैं, दुकानदार ने उपर से नीचे तक मुझे देखा। फिर कहा- खरीदेंगी कि सिर्फ पूछने आयी है । मैंने कहा-अरे भाई, आम ही तो है, कोई सोना, चांदी थोड़े है कि खरीदने से पहले सोचना पड़ेगा। ‘‘तोतापरी 160 रूपए, बैंगनफली 200 रूपए, दशहरी 240 रूपए, कितने किलो तौल दूं ? अरे भाई, इतने महंगे, मैंने तो सोचा कि 50-60 रूपए किलो होंगे। दुकानदार बोला- 60 रूपए में तो आम का फोटो भी नहीं मिलेगा, टाईम खोटी मत करो।
मैं तो आम की कीमत सुनकर ही चकरा गयी, बिना खरीदे बिना ही बाजार से लौटी तो मेरी राह तक रहे मेरे 2 मासूम बच्चे मुझ पर चढ़ दौड़े, आम लेकर आई क्या ? मैंने कहा - अरे यार , आम न हुआ बादाम हो गया, कीमत इतनी बढ़ गई है कि आम खरीदने के लिए अब आम आदमी की जेब गवाही नहीं देती। बदले में आलू ले आयी हूं। घरवाले भड़क गए - आलू क्यों ?
मैंने बड़े प्रेम से किसी दार्शनिक की भांति उन्हें लहटाते हुए अपना ज्ञान ग्रंथ खोला और कहा - देखो, आम फलों का राजा कहलाता है, देश की अधिकतर आबादी प्रजा कहलाती है, अब राजा किसी गरीब, गुरबे के यहां तो जाने से रहे, वे तो शहर के चुनिंदा रईसों, शान-शौकत वालों के यहां पहुंचने में ही फख्र महसूस करते हैं। प्याज, गोभी, टमाटर भिंडी, मटर चाहे कितने भी महंगे हो जाएं, लेकिन आलू बेचारा हर किसी के लिए सुविधाजनक होता है। टेटकू, मंटोरा, बुधवारा, शुकवारा जिसे देखो, वह मजे से आलू का रसास्वादन कर लेता है, उसके हिस्से में इतने महंगे आम कहां से आएंगे ? देश की जनता भी तो आलू की तरह हो गई है। जैसे आलू हर किसी सब्जी के साथ अपना सामंजस्य बना लेता है, वैसे ही आम आदमी तमाम गिले शिकवों के बावजूद चुनाव में भ्रष्ट राजनेता के साथ घुल-मिलकर उनके चंगू-मंगुओं को जिता देता है। भ्रष्ट तंत्र को चाहे अनचाहे अपना ही लेता है। 2 जी, 3 जी, आदर्श घोटाला, चारा घोटाला जाने और कितने घोटाले करने वालों का कुछ नहीं बिगाड़ पाता है। लिहाजा आलू की तरह वह सब कुछ सहते हुए चुप रहता है। आलू को चाहे तवे पर भूनो, तेल में जलाओ या सीधे ही आग में डाल दो, वह तो सब कुछ सहेगा और कहेगा भी कुछ नहीं। आम को देखो, एक तो दाम इतने चरम पर है जैसे वह सिर्फ खास लोगों के लिए ही रह गया हो। परचून की दुकानों में रखे अचार के डिब्बों में, कोल्ड ड्रिंक की बोतलों में सजे हुए आम का स्टेटस बढ़ चुका है। जबकि आलू तो किसी गरीब, गुरबे की तरह हर किसी के काम आने को तैयार बैठा है। क्या कभी आलू को बोतलों में सजे हुए, डिब्बों में बंद सुरक्षित देखा है ? नहीं न। तो फिर ये किसने देश की जनता को आम जनता का नाम दे दिया, एक जमाना रहा होगा, जब घर घर आम फलते होंगे, आम के बगीचों में लदकते फलों को तोड़ने के लिए बच्चे, खासकर अल्हड़ जवान मचलते होंगे। भाषा के रचयिता ने इसी वजह से हर गरीब, गुरबे, मध्यम वर्गीय को आम लिख दिया होगा, अब तो बोतल-पाउच का जमाना आ गया है। आम के बगीचे तो सिर्फ पुरानी फिल्मों और तस्वीरों में देखने को रह गए हैं। दोनों की तुलना करें तो आदमी आम नहीं आलू हो गया है। मेरे हिसाब से तो अब आम आदमी नहीं, आलू आदमी कहा जाना चाहिए।


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