नहीं बजी काँसे की थाली
जब हम घर में आए
ज्यों ही भाई को माँ लाई
सबने ढोल बजाए
देख हथेली छोटी उसकी
हमने बहुत दुलराया
सोचा राखी का इक धागा
मेरे घर में आया
बाहों के झूले में लेकर
आँच न आने देते
घी की चुपड़ी उसे खिलाते
बची सदा खा लेते
दोनों एक ही घर में रहते
पर भेद- भाव था भारी
भाई नाम कमाएगा और
हम लगते बीमारी
नहीं कलुष था फिर भी पाला
दबी-दबी आकाँक्षा
पीले हाथ कर दान दिया
करने को मान की रक्षा
आँखों में थे विदा के आँसू
नेह छूटता हिय से
अपने ही अब ग़ैर.हुए
सब धर्म बने ये कैसे
चली ओढ़कर पीछे पीछे
लेकर नेक इरादे
आँचल में सीखों के चावल
माँ ने उस दिन बाँधे
वचन भराए आज पिता ने
वही तुम्हारा अब घर है
नहीं कभी अकेले आना
अतिथि जैसा ये दर है
आधी उम्र बितायी जिस घर
वो ही हुआ पराया
जन्म लिया नारी का है तो
नारी धर्म निभाया
परघर को ही स्वघर माना
मैंने उम्र बिताई
दरवाज़े की नेमप्लेट पर
आख़र लिख न पाई
पिता, भाई और पति, पुत्र के
रिश्तों की रीत निभाती
अपने मन पर नित पत्थर
हर दिन रखती जाती
कैसे मेरी ममता समझोगे
करुणा कब जानोगे
कब हमको मानव समझोगे
कब अपना सा मानोगे
ख़ैर सभी मैंने भूला है
तुम तो अंश हो मेरे
नहीं बुढ़ापे में तजना सुत
कह वृद्धाश्रम बहुतेरे
नारी का मन यदि समझ लो
तब कर पाओ विश्वास
प्रेम डोर की पकड़े पीछे
वो धर लेगी नई आस