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भारती गौड़

Drama

4.7  

भारती गौड़

Drama

एक बरस पुराने गुनाह

एक बरस पुराने गुनाह

29 mins
1.6K


"बार बार फ़ोन को देखने से फ़ोन थोड़ी बज उठेगा। तुम खुद ही क्यों नहीं फ़ोन कर लेती शेखर को! अपनी जीजी से आखिर कब तक नाराज़ रहेगा! घर में सबसे बड़ी हो तुम, अगर छोटे भाई से कोई गलती हो भी गई तो तुम ही बड़ा दिल रखकर माफ़ कर दो" इतना भर कहकर सुकांत तो अपनी दिनचर्या में लग गए किन्तु कावेरी को चैन नहीं मिला। शेखर कैसे उससे बात किए बिना रह पा रहा था? क्या मालूम रह भी पा रहा था या ज़बरदस्ती खुद को संभाले बैठा था? ये भी तो हो सकता है कि वो भी यही सोच रहा हो कि बस एक बार जीजी का फ़ोन आ जाए और सब पुरानी बातों पर एक ही झटके में मिट्टी पड़ जाए। लेकिन क्या वाकई इतना आसान था एक फ़ोन के आ जाने मात्र से पुरानी सारी ही बातों का खत्म हो जाना या दब जाना, जैसे जैसे माँ की पहली बरसी नज़दीक आ रही थी कावेरी के दिन रात बोझिल होते जा रहे थे। अगर शेखर ने फ़ोन करके बुलाया नहीं तो वो माँ की बरसी में जाएगी कैसे? तो क्या अगर भाई फ़ोन करेगा तब ही बहन अपने मायके जा सकती है? वो होता कौन है बुलाने वाला! माँ नहीं रही इसका मतलब ये तो नहीं कि घर भी नहीं रहा! किन्तु... क्या वाकई अब वो घर माँ के बिना घर रह गया है?


कावेरी शेखर को तो फ़ोन नहीं कर पाई, छोटी बहन सुधा को ही फ़ोन कर लिया। कावेरी भली भांति वाकिफ़ थी कि शेखर और सुधा बराबर एक दूसरे के संपर्क में हैं और जो भी बात वो मायके के बारे में जानना चाह रही होती थी, सुधा से पूछ लेती थी। कावेरी ने सुकांत को चाय-नाश्ता देकर लॉन में पौधों को पानी देने के बाद सुधा को फ़ोन मिलाया। हमेशा की तरह सुधा ने एक ही बार में फ़ोन उठाकर वही बात पूछ ली जो कावेरी सुनना नहीं चाहती "जीजी, शेखर का फ़ोन आया क्या?"


"सुधा, जब तुम्हें मालूम है कि शेखर फ़ोन नहीं करेगा तो किस आस में तुम ये पूछ बैठती हो?" ये शब्द बोलकर कावेरी को ग्लानि ने झपटा, जिस आस को वो सुधा को रखने पर झिड़क रही थी उसी आस से वो रोज़ खुद भी फ़ोन देखा करती है "माफ़ करना जीजी। पता नहीं क्या सोचकर मैं ये पूछ लेती हूँ। बस हर दफा यही ख्याल मन में आ बैठता है कि माँ की बरसी आने को है और शेखर आपको कैसे कर फ़ोन नहीं करेगा? क्या ये संभव है?"


"संभव तो वो भी नहीं था सुधा जो माँ के जाने के महीने भर बाद ही हो गया"


"जीजी, मेरा कहा अगर सही समझो तो मान लो कि ऐसे मौकों पर बुलावे की परवाह कौन करता है! वो हमारी भी माँ थी। हमारा मायका है वो। हमें ज़रूरत है या किसी के बुलावे की?"

"तुम्हें फ़ोन आया शेखर का?"

यही सवाल सुधा सुनना नहीं चाहती थी जिसका कि हाँ में दिया जवाब जीजी को कितना धक्का पहुँचाएगा।


"क्या हुआ सुधा, कुछ पूछा मैंने। तुम्हें आया फ़ोन शेखर का?"

"आया था जीजी और...,


"और क्या?"


"और शेखर ने कहा कि मैं आपको भी.."


"रहने दो सुधा। शेखर तो माँ के जाने के बाद अचानक से ही बड़ा हो गया। बाबूजी के गुज़र जाने के बाद वो हमेशा मुझसे यही कहता था कि आपके रहते मुझे किसी भी रिश्ते की कमी का एहसास तक नहीं होता जीजी। अगर आप ना होती तो मैं बाबूजी के जाने का गम बरसों तक अन्दर लिए खुद को रोता हुआ ही पाता, और अब! अब तो माँ भी नहीं रही, अब क्या उसे रोना नहीं आता या अब माँ के साथ साथ अपनी जीजी को भी..."


"ऐसा मत बोलो जीजी। भगवान के लिए ऐसा मत बोलो। हम सब पर माँ बाबूजी के बाद आपका साया ही तो बचा है"


"ऐसा तो तुम कह रही हो न सुधा, शेखर को तो मुझसे बात किए भी साल भर होने आया"


"आप ही अगर एक बार शेखर को फ़ोन..."


"रखती हूँ, अगर शेखर का फ़ोन नहीं आया तो मैं शायद..."


"ऐसा आप सोच भी कैसे सकती हो जीजी? भाई का फ़ोन इतना मायने भी तो नहीं रखता कि आप मायके जाने में भी उसकी इजाज़त का इंतजार करो!"


"इजाज़त!"


"नहीं, मेरा मतलब था कि..."


कावेरी ने बाद में बात करते हैं का बहाना करके फ़ोन काट दिया। वो खुद भले ही शेखर के फ़ोन पर बुलावे का इंतज़ार कर रही थी लेकिन सुधा के मुँह से इजाज़त शब्द उसे अन्दर तक कचोट गया। कुछ बातें लाख सोच ली जाए किन्तु वही बातें अगर कोई और मुँह पर बोल जाए तो असहनीय हो जाती है। घुटन दे जाती है। अपने ही घर में छोटे भाई की इजाज़त सुधा से बात करके मोबाइल को टेबल पर पटक कर कावेरी लॉन में ही अपनी आराम कुर्सी पर जम गई। सुकांत कावेरी की इन दिनों की मनोदशा से अच्छे से वाकिफ़ थे और उन्हें मालूम था कि इस उम्र में इंसान अपनी तकलीफों को बोलने की बजाय अपनी खामोशियों से ज़ाहिर करता है। कावेरी का मूड बदलने की नाकाम कोशिश करते हुए सुकांत ने उसकी तरफ रूख किया "कावेरी मैं सोच रहा हूँ, बच्चों को फिर से ट्यूशन देना शुरू कर दूँ! तुम्हारा क्या सोचना है?"


"आदमी भी अजीब फितरत का होता है सुकांत। जब तक नौकरी में रहे, यही सोचता है की कब मुक्ति मिले और चैन से अपने परिवार के साथ वक़्त बिताए और जब सेवा से निवृत हो जाता है तब उसे फिर से कोई नौकरी करनी होती है"


"अरे बाबा! ट्यूशन कोई नौकरी थोड़ी होती है। ये तो टाइम पास की तरह मान लो। दिमाग भी चलता रहेगा"


"प्रोफेसर साहब, दिमाग तो आपका वैसे भी खूब ही चलता है। आराम कब दीजिएगा इसे भी?"


"दिमाग के आराम का मतलब समझती हो, मौत"


ये बोलकर कावेरी के चेहरे के भाव देखकर सुकांत को अपनी गलती का एहसास हुआ। मुद्दे पर आना अब और भी ज़रूरी सा हो गया उसके लिए।


"कावेरी, शेखर के फ़ोन ना आने को किसी भी और बात से जोड़कर मत देखो। कौन से घर में भाई बहनों में मनमुटाव नहीं होते! तुम घर में सबसे बड़ी हो और तुम्हें वो लोग बड़ी बहन नहीं बल्कि माँ की जगह देते आए हैं। मेरी सुनो तो तुम ही फ़ोन कर लो"


"मनमुटाव या बैर सुकांत! सही शब्द क्या होना चाहिए यहाँ?"


"कावेरी, जहाँ तक मैं अपनी बात बताऊँ तो माँ के जाने के बाद महीने भर में ही जब शेखर ने जायदाद के बँटवारे की बात छेड़ दी थी तब मुझे भी बहुत आश्चर्य हुआ था। अगर इस जगह कोई और परिवार रहा होता जहाँ रिश्ते ऊपरी सतह पर साँस ले रहे होते तब मुझे कोई आश्चर्य नहीं होता। किन्तु यहाँ तो ऐसा था कि तुम्हारा छोटा भाई अपनी जीजी में अपनी माँ और अपने बाबूजी को देखता था। मैं खुद नहीं समझ पाया था कि अचानक ऐसा क्या हो गया कि माँ के जाते ही शेखर ने ये सब किया। ये भी हो सकता है कि वाणी ने उससे ये सब करने को कहा हो। दांपत्य में ना चाहकर भी पति, पत्नी के कठोरे फैसलों को बहुत बार मानने पर मजबूर हो जाता है। ये दो तरफ़ा भी हो सकता है, मैं किसी एक पर इल्ज़ाम नहीं लगा रहा"


"दांपत्य हमारा नहीं है क्या? सुधा और अनिल का नहीं है क्या? किसका नहीं होता? माँ के जाने का ही इंतजार भर रहा होगा क्या! यही सोचकर मैं सो नहीं पाती सुकांत। जायदाद तो सारी शेखर ही रख ले। उससे मोह भी किसे है! मुझे कमी ही किस बात की है जो ज़मीन के टुकड़े के लिए सोचे भी। तुम भी जानते हो मैं इन ग्यारह महीनों में बस यही नहीं समझ पाई कि शेखर के दिमाग में ये जायदाद के बँटवारे की सनक यकायक कैसे चढ़ी! वाणी को जहाँ तक मैं जानती हूँ उसे हम लोगों ने किसी चीज़ के कमी महसूस नहीं होने दी और शेखर तो उसे पलकों पर रखता है, माँ के सारे जेवर तक हमने वाणी को ही दे दिए थे। बस इतना ज़रूर था कि माँ की साड़ियाँ मैंने और सुधा ने रखी, अगर वाणी कहती तो उसे भी दे देते। उसने कोई दिलचस्पी ही नहीं दिखाई। झूठी भी नहीं। फिर मैं ऐसी जगह माँ की साड़ियाँ धूल खाने को कैसे छोड़ देती! अव्वल तो बात इन सब चीजों की है ही नहीं। मैं ना चाहते हुए भी क्यों इन सब पर बात कर रही हूँ! बात तो आख..."


"कावेरी, इतना अपने आपको परेशान करने से, जो हुआ वो बदल जाएगा क्या? माँ नहीं रही। तुम और सुधा वैसे भी उनके रहते हुए भी एक बरस में मुश्किल से तीन या चार बार ही जा पाती थी उनके पास। और माँ बाबूजी जब अब दोनों ही नहीं रहे तो मायका भी कहाँ मायका रह जाता है एक औरत के लिए! अपने आपको समझा पाओ तो बेहतर होगा, वरना घुटने से क्या हासिल?"


सुकांत इन बातों में जितना उस वक़्त साथ दे सकते थे कावेरी का, दिया और रुख कर गए अपने रीडिंग रूम की ओर। किन्तु सुकांत की आखिरी बात ने कावेरी के जख्मों पर मरहम की जगह नमक का काम कर दिया जिसमे सुकांत की तो कोई गलती नहीं थी किन्तु वो जिस कड़वी हकीकत को सहजता से बोल गए थे, वो सहनीय कैसे कर हो? माँ बाबूजी के बाद मायका भी कहाँ मायका रह जाता है एक औरत के लिए! क्या वाकई! लगभग एक बरस पहले ऐसे ही लॉन में सुकांत और कावेरी, सुकांत की सेवानिवृति के दिन एक आयोजन करने की प्लानिंग कर रहे थे। कहाँ करें, कितनों को बुलाया जाए! शेखर को ही ज़िम्मा सौंपने का तय हुआ। शेखर के बिना कब कहाँ कुछ हुआ है कावेरी के घर में! भाई कम बेटा बनकर रहा अपनी जीजी के जीवन में। सब कुछ ठीक ही चल रहा था शेखर ने फंक्शन के पाँच दिन पहले आने का वादा किया था तो सुकांत और कावेरी को चिंता ही किस बात की होती!


माँ, सुधा, वाणी और दोनों के बच्चों ने, एक साथ ही कावेरी के यहाँ पहुँचने की योजना बनायी थी। फंक्शन के तीन दिन पहले शेखर पहुँचा, जो कि पाँच दिन पहले पहुँचने वाला था। देर से पहुँचने की वजह से जल्दी जल्दी काम निपटा रहा था। घर का लॉन इतना बड़ा है कि शेखर ने लॉन में ही खाने की व्यवस्था का कहा और सभी ने इसे मान लिया।

माँ, सुधा, वाणी और बच्चों के आने के ठीक एक दिन पहले फ़ोन आया और उस मनहूस खबर ने सब कुछ पलट कर रख दिया। शेखर दौड़ता हुआ कावेरी के पास पहुँचा और घबराते हुए बोला, "जीजी, माँ की तबियत अचानक बहुत बिगड़ गई है। उन्हें लेकर वो सब अस्पताल गए हैं। मैं निकलता हूँ, ये फंक्शन..."


"कैसी बातें कर रहे हो शेखर, कौनसा फंक्शन! ये ज़रूरी है भी क्या? रुको हम भी साथ ही चलते हैं" कावेरी तो कुछ बोल भी नहीं पाई थी सुकांत ने ही दिलासा दिया शेखर को। कावेरी को ये आभास हो चला था कि इस बार माँ अस्पताल से वापस नहीं आने वाली। पिछली बार जब छह महीने के कोमा से लौटी थी तब बोल चुकी थी कि, "इस बार अगर अस्पताल का रास्ता देखा तो सीधा तुम लोगों के बाबूजी के पास ही जाऊँगी, वैसे भी मेरा अब क्या काम बाकी रहा है! जितना देखना था उससे ज़्यादा देख चुकी। नाती नातिन पोता पोती। और क्या चाहिए! अब बस तुम्हारे बाबूजी वहाँ अकेले कब तक रहेंगे। मुझे जाने देना। मेरे जाने का शोक मत मनाना। राजी ख़ुशी विदा कर देना। ये सोचना जो इस दुनिया का था ही नहीं वो इस दुनिया से चल पड़ा। सबका यही होना है मेरे बच्चों इस पर रोना नहीं। किसी के जाने की स्मृति वैसे भी वक़्त के साथ साथ धुंधली पड़ ही जाती है चाहे कोशिश की जाए चाहे ना की जाए। कावेरी को बस ये धक्का लगता जा रहा था कि कैसे भी करके वो लोग माँ के पास पहुँच जाए। रास्ते भर सब खामोश बैठे रहे। गाड़ी भी सुकांत ने अकेले ही चलाई। शेखर को ये अंदाज़ा भी नहीं रहा कि सफ़र में आधा रास्ता उसे पार लगाना चाहिए था। जब घर पहुँचे तब वहाँ वाणी थी। सुधा और अनिल माँ के पास अस्पताल में थे। कावेरी को वाणी को वहाँ पाकर ख़ुशी नहीं हुई। उसे उम्मीद थी कि वाणी भी अस्पताल में ही होनी चाहिए थी माँ के पास।


ऐसे में वाणी का ये कहना और अखर गया कि थोड़ा आराम कर लेने के बाद अस्पताल के लिए निकलना चाहिए। आराम! माँ वहाँ और यहाँ आराम! खामोश रहकर ही इशारे से ये जता दिया कावेरी ने कि बिना इंतज़ार और आराम के माँ के पास जाया जाएगा।


अस्पताल पहुँचकर कावेरी जिस डर को पूरे रास्ते दुगुना करते हुए बैठी रही वही डर अस्पताल में माँ के कमरे में हर जगह पसरा हुआ था किन्तु माँ शांत थी। कावेरी को देखकर मुस्कुरा दी। गोया कावेरी ही सब को सूचित कर दे कि ये माँ का आखिरी वक़्त है। कोई औलाद ऐसा ख़्वाब में भी नहीं करना चाहती फिर अभी माँ तो ज़िन्दा बिस्तर पर थी। सुधा और अनिल बिना कुछ कहे थोड़ी देर के लिए बाहर निकल गए उन्हीं के साथ सुकांत ने भी जाना ठीक समझा। शेखर और कावेरी माँ के दोनों तरफ सिरहाने पर बैठ गए। शेखर हमेशा की तरह माँ से ये कहकर जीत जाना चाहता था कि माँ ने दवाइयाँ लेने में लापरवाही दिखाई होगी इसीलिए ये नौबत आई जबकि उसने डॉक्टर से जाकर पूछना ज़रूरी नहीं समझा।


"माँ, आपने फिर वही किया होगा, दवाइयाँ नहीं ले होगी। मेरे बस घर से जाने की देर होती है आपको मनमानी के मौके मिल जाते हैं!"


"रुको शेखर, एक काम करो ज़रा मेरे लिए चाय ले आओ"


कावेरी ने छोटे भाई को उस डर से कुछ देर के लिए दूर भेज देना चाहा जिसे वो जीजी होने के नाते अकेले ही सह लेना चाहती थी।


"लाता हूँ जीजी। आप ही समझाओ माँ को। सुने तब तो"


शेखर के बार बार एक ही बात दोहराने की आवाज़ कॉरिडोर से लौट लौट कर माँ के कमरे में जीजी और माँ के कानों में आती रही जब तक कि वो बहुत दूर नहीं चला गया।


"कावेरी!"


"ठीक होकर घर चलोगी ना माँ!"


"तुझसे कुछ छिपा होता तब तो झूठा दिलासा दे भी देती। शेखर शायद ये नहीं देख पाया कि ये सामान्य कमरा नहीं आईसीयू है, तू तो देख ही..."


"माँ, आईसीयू से भी लोग सामान्य कमरों में लौटते हैं। नहीं क्या!"


"ज़रूर लौटते है बिटिया, अब तेरे बाबूजी से मुझे और कितने दिन दूर रखोगे? उनके बिना पाँच बरस भी कैसे गुज़रे ये तुम लोग कभी जान पाओगे भी क्या?"


"माँ, बाबूजी छोड़ गए, तुम भी चली जाओगी तो क्या हमें भी वहीं आने की बाट..."


"नहीं, नहीं, ये क्या कहती है कावेरी! माँ बाप पहले ही जाने के लिए होते हैं री, तुम लोगों को तो अभी अपने बच्चों के लिए जीना है, अपने कर्तव्यों और उनके हिस्से के प्यार से मुँह नहीं मोड़ सकते तुम"


"अच्छी हो जाओ माँ, घर चलो। तुम्हारे बिना घर भी घर नहीं रह जाएगा"


"एक दिन जाना ही है बेटा, मेरी बात सुन ले कावेरी। बड़ी गहरी नींद आती है और सीने में दर्द रह रह कर उठ रहा है"


"माँ, डॉक्टर को..."


"नहीं, डॉक्टर कर चुके उनके हिस्से का काम। सुन कावेरी! शेखर तो तुझमे ही अपने बाबूजी और माँ की छवि देखता रहा है। उसे तुझे ही संभालना है। उसे कभी मेरी कमी महसूस मत होने देना। सुधा तो समझदार है। संभाल ही लेगी खुदको। शेखर का मुझे समझ नहीं आता ये क्या करेगा। दो बच्चों का पिता है पर बड़ा आज तक खुद भी नहीं हो पाया है"


"माँ, रहने दो ना। क्या बातें करने लगी हो। आराम करो जब दर्द हो रहा है तो"


कावेरी ने माँ को दवाइयों की घेर की वजह से नींद में भी यही बुदबुदाते पाया और जब शेखर चाय लेकर लौटा तब तक उसका चाय पीने का मन नहीं रहा। वो कमरे में अथाह अँधेरा महसूस कर कर रही थी। माँ के सिरहाने उसने अपनी थकान उतारने के लिए जब अपना सिर टिकाया तब वो भी एक गहरी नींद में जा पहुँची। ऐसी नींद जो सिर्फ माँ के पास ही नसीब हो सकती है किसी को भी। जहाँ उसने देखा...


एक लम्बी गुफ़ा, जिसका कोई ओर छोर नज़र में नहीं आ रहा। अँधेरा, स्याह अँधेरा सिर्फ एक मामूली सी रोशनी जिसके सहारे वो आगे बढती चली जाती है। उसे अपने भाई बहन की दबी दबी सी आवाज़ मदद के लिए सुनाई पड़ रही है किन्तु वो उनको देख नहीं पाती। अँधेरी गुफा में डर और उन दबी आवाज़ों के बीच बस एक हल्की सी रोशनी के सहारे वो सरकती हुई एक दीवार से जा लगती हैं जहाँ अपनी माँ की साड़ी का एक कोना उसके हाथ आ जाता है और वो उसी को पकड़कर आगे सरकती जाती है जिसके अंतिम छोर पर उसे शेखर और सुधा डरे सहमे दो छोटे बच्चों के आकार और रूप में रोते बिलखते मदद के लिए अपनी जीजी को पुकारते हुए दिखते हैं। कावेरी पसीने से तरबतर भय से काँपती हुई ये समझ नहीं पाती कि उसके भाई बहन दो छोटे बच्चों के रूप में कैसे तब्दील हो गए और यहाँ इस डरावनी गुफा में क्या कर रहे हैं! माँ की साड़ी ज़रूर वहाँ थी जिसे सहारे वो अपने भाई बहन तक पहुँची किन्तु माँ वहाँ नहीं थी। कावेरी बेतहाशा चिल्लाती है माँ, माँ, माँ एक धक्के के साथ उसकी नींद खुलती है और पास में सुधा और शेखर की रोती चिल्लाती आवाज़ों में उसकी आवाज़ मंद पड़ जाती है। माँ जा चुकी थी, जाने से पहले अपने दोनों बच्चों को कावेरी को सौंपकर। माँ को अस्पताल से घर लाने से लेकर अंतिम संस्कार तक कावेरी, शेखर और सुधा से नज़रें बचाती रही। सब अपना अपना काम करते रहे। बड़ी संतान से ये उम्मीद बाँधी जाती है कि वो अपने आँसुओं को आँखों में ही रहने दे। उसका मन किया शेखर और सुधा को लेकर एक अकेले कोने में जाए और माँ के चले जाने का मातम चीख चीखकर मना ले जिसे कि रिश्तेदारों की भीड़ ना देख पाए। ये एक घर का, एक दहलीज़ का, एक चौखट का आंतरिक और एकाकी दुःख था जो क्यों और कैसे किसी से साझा किया जाए! बच्चों ने अपनी जननी को खो दिया है, अपनी माँ को खोया है इस स्थायी दुःख को कोई और क्या समझेगा, क्या बाँट पाएगा भला! किन्तु समाज में ये सब कहाँ होता है? अपने हिस्से का रोना तो आदमी को बंद कमरे में सुबकते हुए ही निभाना है। वही हो भी रहा था। तीनों भाई बहन अपने अपने हिस्से के कोने में माँ को ढूंढते हुए अपने आँसुओं को बहाकर फिर पोंछ देते और दुनियादारी निभाने लगते। एक महीने तक कावेरी वहीं रही। जब सब मेहमान चले गए और बारह दिनों के औपचारिक सामजिक मातम पर विराम लगा तब घर ऐसा काटने को दौड़ा कि उससे निकल निकल कर कावेरी मंदिर की सीढ़ियों पर जा बैठती और शुरू हुआ एक पारिवारिक मातम जिसमें घर की दीवारों, कोनो, दहलीज़ पर मातम पसर गया। माँ जा चुकी थी जो कि जाकर भी नहीं गई। शेखर ने कावेरी के वहाँ से जाने के पाँच या छह दिन पहले अपने अकेलेपन और रोने को बहनों के साथ साझा किया। तीनों भाई बहन अनाथ हो जाने के बोझ को सहने के लिए एक दूसरे को बहला रहे थे। माँ बाप के जाने के बाद दुनिया ना सिर्फ बुरी लगती है बल्कि निरर्थक और सबसे बेकार शाय लगने लगती है। दोनों में से कोई एक भी रहे बच्चों पर साया बनकर, तब तक भी इसे झेला जा सकता है किन्तु जब दोनों ही चले जाए, तब खुद भी जाने का ही मन करता है।


कावेरी को माँ के सिरहाने वाला सपना जो कि सपना कम हकीकत ज़्यादा थी, का ख्याल आया और उसने स्वयं को ज़बरदस्ती संभाला ताकि शेखर और सुधा को ये दर्द सहने के काबिल कर जाए। जाने का वक़्त नजदीक आता गया और शेखर उदास होता ही गया। सुधा शुरू से ही बहुत बेफ़िक्र तबियत वाली बच्ची रही और उसे कावेरी से ही मोह रहा तो माँ बाबूजी के जाने का रंज उसे उतना प्रभावित कर भी नहीं पाया। मुश्किल तो शेखर को सँभालने में थी। कावेरी जाने की बात करती, सामान बाँधना शुरू करती तो शेखर घर के बाहर चला जाता। उसे ये सब देखकर घुटन होती। उस रोज़ जब शाम तक शेखर नहीं लौटा तो घर में सबको चिंता हुई। कावेरी बार बार बाहर सड़क तक जाकर देखती। कभी मंदिर की सीढ़ियों पर देखती, कभी सुधा और बच्चों को दौड़ाती। बस एक बात कावेरी नहीं समझ पा रही थी। माँ के जाने के कुछ दिन तक शेखर एकदम बुझा बुझा रहता, और अब जब महीना भर होने आया है तब उसके चेहरे पर भावों की जगह किसी और चीज़ ने ले ली थी। वो क्या चीज़ थी ये कावेरी नहीं समझ पा रही "वाणी, तुमसे कुछ कहकर गया है क्या शेखर! बहुत देर कर दी। ऑफिस भी तो नहीं जा रहा फिर इतनी देर कहाँ रुक सकता है?"


"माँ के जाने के बाद से किसी से भी कहाँ बात कर रहे हैं ये जीजी! बस हाँ, ना में जवाब दे देते हैं, ज़्यादा पूछो तो चिढ़ने लगे हैं। तीन दिन से रोज़ सुबह निकल रहे हैं, शाम में यही देर से लौटना बस "वाणी, अब तुम्हें ही उसे संभालना है। थोड़ा संयम धरना तुम उसके गुस्से के आगे अब कुछ दिन। वो जब छोटा था तब माँ बाज़ार भी चली जाती और उसे अकेला रहना पड़ता तो वो गुस्से से भर उठता था। अब तो माँ..."


"जीजी, मैं समझ सकती हूँ, आप चिंता मत... अरे जीजी वो आ गए"


पीछे शेखर थका हारा यूँ खड़ा था मानो पूरा शहर पैदल मापता रहा हो दिन भर।


"शेखर, कहाँ चले गए थे यूँ बिन बताए! सब यहाँ कितना परेशान..."


"जीजी, आपसे कुछ बात करनी है"


"हाँ कहो, पहले आओ अन्दर बैठ लो तसल्ली से। इतना कहाँ थक गए! पैर भी सारे मिटटी में हो रहे हैं? कहाँ गए थे? ये हाथ में क्या है?"


"वाणी ज़रा चाय बना देना, और सुधा दी को भी बैठक में भेज देना"


"क्या हुआ शेखर?"


"जीजी, बैठक में चलते हैं, ज़रा बात करनी है"


कावेरी अनमनी सी शेखर के पीछे चल दी। आज उसे पहली बार अपने छोटे भाई की बात में आग्रह कम निर्देश जैसा कुछ ज़्यादा लग रहा था। बैठक में घुसते ही माँ की महक शरीर में दौड़ पड़ी। जब भी इकट्ठे होते थे सब, माँ यूँ ही बैठक में सबको लिए बैठ जाती और लम्बी लम्बी बातों में ना रात के गुज़र जाने का पता चलता, ना सुबह हो जाने का। हर चीज़ पर माँ के हाथों का स्पर्श पसरा हुआ था। खिड़की के पर्दों को हाथ लगाकर सरकाने का मन भी नहीं हुआ कावेरी का कि कहीं माँ के हाथों का एहसास इन पर्दों से कम ना हो जाए। पीछे पीछे सुधा भी आ गई और वाणी भी चाय देकर बैठक से निकल गई। शायद वो भाई बहनों के बीच नहीं बैठना चाहती होगी या घर के काम देखना ज़्यादा ज़रूरी समझा हो "जीजी, सुधा भी आपके साथ ही निकल रही है क्या?"


"हाँ शेखर, साथ ही निकल जाते हैं। हम इसे छोड़ते हुए चले जाएँगे। कल तेरे जीजाजी आ रहे हैं गाड़ी लेकर ही। यही सही रहेगा"


"जीजी... मैं ये कह रहा था कि... जो बाद में होना है वो अभी हो जाता तो ठीक रहता"


शेखर के महज़ दो बार हल्का सा अटकने के बाद बोली गयी सपाट बात को कावेरी और सुधा समझ नहीं पाए। जिस बात की दूर दूर तक उम्मीद ना हो, अंदेशा ना हो उसका तो अनुमान लगाना भी मुश्किल ठहरा। फिर कैसे समझते अपने छोटे भाई की बात वो दोनों!

"जीजी, बाबूजी की वसीयत को देखा जाए तो मकान..."


"क्या? किसको देखा जाए तो!"


"चाय लो जीजी। सुधा दी तुम भी लो"


"वो हम ले लेंगे शेखर। किसकी बात की अभी तुमने!"


"घुमा फिराकर बात क्या करूँगा जीजी, बुरा लगने की तो कोई बात भी नहीं इसलिए आपसे सीधा ही कह देता हूँ। बाबूजी की वसीयत के बारे में तो आप दोनों को भी पता ही है। ये काम तो वो पहले ही कर गए थे। माँ के रहते तो ये बात उठती भी क्यों लेकिन अब जब माँ ही.."


"बोलते जाओ शेखर, सुन रहे हैं हम। अटको मत। बोलो"


"क्या हो गया है शेखर! कैसी बातें कर रहे हो?"


"रुक सुधा, बोलने दे इसे। चेहरा भी तो बोल ही रहा है इसका। ज़ुबान पर भी आने दे जो मन में है"


"गलत मत समझो जीजी। मैं तो आप ही का शेखर हूँ। बस कुछ बातें निपट जाती तो ठीक ही रहता। नहीं तो बाद में भी तो ये करना ही था"


"मुझे कोई चाय वाय नहीं पीनी जीजी, मैं बाहर जा रही हूँ"


"नहीं। रुको सुधा दी। बात पूरी सुनकर जाओ"


"माँ को अभी एक महीना भी नहीं हुआ है शेखर, क्या बात सुनाना चाहते हो?"


अब बात सिर्फ शेखर और सुधा के बीच हो रही थी। कावेरी तो माँ के तखत पर सर टिकाकर सुन्न सी बैठी रही। बस कानों में वो सब पड़ता रहा जो एकदम नया और अप्रत्याशित था।


"सुधा, जीजी और तुम जा रही हो तो मैंने सोचा वसीयत खोल लें। कल भी तो खोलनी ही है तो आज ही सही"


"ऐसी भी क्या आफत आन पड़ी शेखर जो इतना जल्दी ही तुम्हें ये करना है। कौन कहाँ भागे जा रहा है!"


"कोई आफत नहीं आई सुधा दी। कोई कहीं नहीं भागे जा रहा। इतना असहज क्यों हो रहे हो आप दोनों! ये एक बात ही तो है"


"बात तो है ही शेखर! और उससे भी बड़ी बात ये है कि तुम इसे कर किस मौके पर रहे हो!"


"मौका क्या होता है सुधा दी! अब उसका भी अलग से इंतज़ार नहीं किया जा सकता ना। फिर मैं भी अब व्यस्त हो जाऊँगा, आप दोनों भी चली जाएँगी। अब अलग से इस बात के लिए बुलाता तो आप दोनों को ही दिक्कत होती"


"नहीं शेखर, तब शायद हमें दिक्कत नहीं होती, अभी लेकिन ज़रूर हो रही है"


"शेखर!"


"हाँ जीजी"


"हमें कुछ नहीं चाहिए। सब तुम्हारा ही है भाई"


कावेरी ने सोचा इस एक बात से ये पूरा मुद्दा खत्म करके कमरे से निकल जाएगी लेकिन शेखर ने हाथ पकड़कर माँ के तखत पर उसे बिठा दिया और खुद भी पास बैठ गया जैसे आज जीजी उससे छोटी और वो सबसे बड़ा हो "जीजी, ऐसे कैसे सब मेरा! बाबूजी सबका अपना अपना हिस्सा लिखकर गए हैं। मैं क्या आपको इतना स्वार्थी लगता हूँ?"


"बाबूजी लिखकर गए हैं ना, तो मैं अपना हिस्सा अपनी ख़ुशी से तुम्हें और बच्चों को दे रही हूँ। सुधा का वो जाने"


"मुझे भी नहीं चाहिए जीजी" इतना कह सुधा जीजी से लिपटकर रो पड़ी।


"अरे सुधा दी, जीजी आप दोनों ऐसे क्यों कर रहे हो। मैं बस ये कह रह हूँ कि जो कल होना ही है वो आज हो जाए"


"कल तो बहुत कुछ होना है शेखर, वो अगर आज ही हो जाए तो आदमी को एक रात की भी चिंता नहीं करनी पड़े। चीजें अपने तय वक़्त पर ही हों तो सबके लिए सही रहता है। मुझे ये तो नहीं पता कि मेरा छोटा भाई इन दो तीन दिनों में ही इतना बड़ा कैसे हो गया लेकिन अंदाज़ा लगा पा रही हूँ। हमें कोई हिस्सा नहीं चाहिए भाई और वो भी तब जब मैं अपनी माँ का मातम मनाकर इस घर से निकल रही हूँ। माँ तो अभी इस घर से पूरी तरह से गई भी नहीं है और शायद ही कभी जा पाए। किन्तु मैं इन सबमें भागीदार बनकर उसको इस घर से नहीं निकालना चाहती"


"अरे जीजी! ये बात आपने कहाँ की कहाँ पहुँचा दी। ऐसा मत कहो। ठीक है लो मैं रख देता हूँ कागज़। ये सब मत कहो। मेरा क्या वो मतलब था जीजी!"


कावेरी शेखर की बातों को सुने बिना बैठक से निकल गई। पीछे पीछे सुधा शेखर को ये कहकर निकली, "ये तुमने क्या किया शेखर!"


दूसरे दिन कावेरी ने माँ की अलमारी से सारी साड़ियाँ निकाल कर जो सुधा को चाहिए थी, वो उसे देकर बाकी खुद के सामान के साथ बाँध ली। शेखर ने ऐतराज़ जताया और कुछ साड़ियाँ वाणी को देने के लिए कहा तो वाणी ने खुद ही आगे होकर मना कर दिया कि जीजी को ही ले जाने दो। इसी बात से साबित हो गया कि वसीयत वाली जल्दबाजी कहाँ से निकली थी। सास की एक भी साड़ी झूठे मन से ही अगर वाणी रख लेती तब भी कावेरी खुश हो जाटी "तुम्हारे जीजाजी भी आ गए हैं शेखर, हम आज ही निकल रहे हैं"


"लेकिन आप लोग तो दो दिन बाद जाने वाले थे ना!"


"अब जाना तो है ही शेखर, आज नहीं तो कल। जो कल होना है वो आज ही हो जाए"


कावेरी ने शेखर की समझाई बात उसे ही समझा दी थी। अब उस घर की हवा में वो बात घुल चुकी थी जो कल शेखर ने बैठक में घोली थी। वहाँ अब कावेरी और सुधा दोनों के रहने से या जाने से शायद ही कोई फर्क पड़ने वाला था। ना ही शेखर ने दो दिन पहले जाने पर कोई आपत्ति दर्ज कराई।


शाम को सारा सामान गाड़ी में रखकर सुधा ने औपचारिकता निभाते हुए शेखर और वाणी से विदा ली और आँसुओं के साथ कार में जाकर बैठ गई।


कावेरी को औपचारिकता भी बोझ लग रही थी। बड़े होने का सबसे बड़ा नुकसान उसे आज ही समझ आया था कि छोटी हरकतों से परहेज़ करना ही पड़ता है। वाणी को समझाने लायक उसके पास कुछ था नहीं क्योंकि वाणी की समझदारी वो कल बैठक में शेखर के रूप में और आज सुबह माँ की अलमारी खोलते वक़्त देख चुकी। फिर भी शेखर को लेकर जी नहीं माना। कैसे मानता! अँधेरी गुफा में रोते वो दो बच्चे आज उसके सामने अलग अलग जगह पर आंसू बहा रहे थे। शेखर कावेरी से लिपटकर रोया लेकिन कावेरी समझ नहीं पाई कि ये आँसू माँ के जाने के थे या कल बैठक में एक बार फिर से हुई माँ की मौत के! शेखर को खुद से अलग कर कावेरी तेज़ी से घर की आँगन में फ़ैली मिट्टी को पैरों और साड़ी में लपेटती कार में जाकर बैठ गई। वाणी के मन का चोर उसे आगे बढ़कर अपनी ननदों से नज़रें नहीं मिलाने दे पाया। गाड़ी चलने के बाद सुधा और कावेरी पीछे मुड़कर अपने घर को देख पाने की हिम्मत नहीं कर पाए। अब क्या घर! बाबूजी गए, माँ गई और कल बैठक में भाई बहन भी चले गए। कुछ बातें ज़हर से ज़्यादा कडवी होती हैं जिनके आगे ज़हर पी लेना ज़्यादा सही मालूम जान पड़ता है। कावेरी को अपने ब्याह के बाद की विदाई ने इतना नहीं रुलाया होगा जितना आज की इस हमेशा के लिए हो गई विदाई ने आँसुओं में डुबो कर रख "कावेरी... कावेरी..!"


"कावेरी... कबसे आवाज़ दे रहा हूँ। क्या हो गया भाई। सो गयी थी क्या!"


लॉन में पीछे से सुकांत ने आकर वर्तमान में पटका तब कावेरी को एहसास हुआ की वो एक साल पीछे चली गई थी। बोझिल मन और भरे हुए जी से कावेरी सुकांत के पीछे पीछे घर के अन्दर जाकर आराम करने लगी। बच्चों ने भी एक दो बार पूछा भी कि मामा जी का कोई फ़ोन आया क्या माँ! लेकिन क्या कहती! फिर बच्चों से भी कुछ छुपा हुआ कहाँ था। सुधा ने सब बता दिया था। तबसे कावेरी के दोनों बच्चे भी शेखर से दूरियाँ बना बैठे थे।


"सुकांत, आपकी बात के बाद मैं सोच रही हूँ कि मैं ही एक बार शेखर को फ़ोन कर लूँ। सुधा की तो बात होती ही रहती है। वो तो सब कुछ पीछे छोड़ चुकी। मुझसे ही नहीं छूटता कुछ"


"क्या नहीं छूटता कावेरी! अतीत! उस बैठक की बातें! मैं तुमसे आज पूछता हूँ सच सच बताना ज़रा"


"क्या?"


"एक साल होने आया उस बात को। शेखर चाहता तो फिर से वो बात छेड़ सकता था। क्या उसने तुमसे या सुधा से ज़िक्र भी किया! नहीं ना! हो सकता है वो पछता रहा हो। छोटा तो है ही। गलती कर बैठा होगा। हो सकता है वाणी ने मजबूर किया हो। कुछ भी हो सकता है। तुम तो हक़ से भी उससे पूछ सकती थी। बहुत लम्बी दूरी बना दी तुमने भी कावेरी। माँ तुम्हें ही सौंप कर गई थी न शेखर और सुधा को। सुधा तो पास ही रही तुम्हारे लेकिन शेखर! मैं ये नहीं कह रहा कि उसकी गलती नहीं है। गलती तो उसी की है बेशक। पर मैं तुमसे पूछता हूँ अगर तुमने ऐसी कोई गलती की होती और माँ तुमसे इस तरह से दूरियाँ बना लेती तब तुम्हारा क्या सोचना होता? सच बताऊँ तो उस दिन जब वो जाते वक़्त तुमसे लिपट कर रोया था तब मुझे उसके रोने में उसकी गलती एहसास महसूस हुआ था। मैं गलत भी हो सकता हूँ लेकिन हमें इस तरह से भी सोचना चाहिए कावेरी एक बार। छोटा भाई है तुम्हारा माफ़ कर दो उस"


"किसे माफ़ कर दूँ सुकांत! मुझे तो पता तक नहीं है कि उसे अपनी गलती का एहसास है भी या नहीं"


"कैसे पता होगा कावेरी! बात करोगी उससे तब ना!"


"आप चाहते हैं मैं उसे फ़ोन कर लूँ, तो मैं कर लेती हूँ। लगता नहीं मुझे कि अब कुछ बाकी..."


"ना! ये सोचकर तो फ़ोन मत ही करो। रहने ही दो फिर तो। जब मन में सब सोचकर ही बैठी हो तब तो यकीन जानो असर भी वैसा ही दिखेगा"


सुकांत तो ये कहकर चले गए किन्तु कावेरी को महसूस होने लगा कि उसने वाकई थोड़ी सी ज़्यादती तो कर ही दी थी शेखर के साथ। वो उसे डांट भी तो सकती थी। एक बरस बहुत लम्बा वक़्त होता है अपनों से दूर रहने के लिए और उससे भी बुरा होता है अपनों से मन में दूरियाँ बिठाकर रहने के लिए। जिस फोन को वो शेखर की तरफ से बजने के लिए देखती रही थी उसी फ़ोन से उसने शेखर का नंबर मिलाया। छोटे भाई को फ़ोन मिलाते वक़्त उसे महसूस हुआ कि इस मनहूस बरस में इतनी कितनी दूरियों ने कब्ज़ा कर लिया है कि अजीब सी बेचैनी मन में हो उठी है, अगर फ़ोन उठ गया तो क्या बात हो पाएगी दोनों के बीच


"हेलो! हेलो! जीजी?"


"कौन शेखर बोल..."


"जीजी! जीजी, हाँ मैं शेखर"


"कैसे हो तुम?"


उधर से कोई आवाज़ नहीं आई और कावेरी को समझ आ गया कि भाई के एक बरस का इंतजार आज खत्म हुआ था। वो बोल नहीं पा रहा था। अगर वो बोल भी पाता तो कावेरी भी क्या ही बोल पाती।


"शेखर!"


"जीजी, कब आ रही हो?"


"अभी तो दस दिन पड़े हैं ना माँ की बरसी में!"


"दस दिन भी कम ही होंगे ना जीजी, एक बरस पुराने गुनाहों को धोने के लिए?"


"ये तू क्या...!"


"अब भी नहीं तो कब जीजी! अपने गुनाह मान लेने दो मुझे। जिनकी वजह से मैंने माँ को एक बार नहीं दो बार खोया। बैठक में और उस दिन आपको उस तरह से जाने देते वक़्त। एक बरस एक उम्र की तरह गुज़रा है। रोज़ चाहा आपको फ़ोन करूँ। खुद आ जाऊँ। खुद आया भी जीजी, लेकिन आपके सामने आने की हिम्मत नहीं कर पाया, जीजाजी से मिलकर चला गया। आपको बताने के लिए मैंने ही मना किया था"


"तू आया था शेखर?"


"आया था जीजी। आया था मैं। रोज़ जीजाजी को फ़ोन करके आपके बारे में पूछता हूँ। इंतज़ार करता था कि कभी गलती से भी आपका फ़ोन लग जाए तो आपकी आवाज़ ही"


"शेखर! कब आऊँ मैं!"


"क्यों पूछती हो जीजी! अब भी क्यों पूछती हो? आज, अभी। माँ की बरसी है सब आप ही को तो करना है। मुझे और वाणी को कुछ समझ ही नहीं आ रहा कैसे क्या होगा?"


"अरे! मेरे होते हुए तुम दोनों क्यों करोगे कुछ! तुझे तो वैसे भी पता नहीं रहता किसको बुलाना है किसको नहीं। तूने तो पंडित जो भी अभी तक बोला नहीं होगा! बोला है क्या?"


"कहाँ जीजी। जब तक आप लिस्ट नहीं दे देती मुझे कैसे पता होगा किसको न्यौता देना है!"


"देख फिर लापरवाही। अब कल ही आती हूँ इतना कम वक़्त बचा है कितना कुछ करना है"


"वही तो। आप आ जाओ तो सब संभालो भी। वाणी को कुछ पता नहीं। मुझे तो वैसे ही पता नहीं रहता"


"आती हूँ कल"


सुकांत सब सुन रहे थे। बाहर से ही। बोले "मैं छोड़ दूँगा। ज़्यादा दूर भी तो नहीं अब"


"आपको ही छोड़ना पड़ेगा। देख नहीं रहे, उसने कुछ भी तैयारी नहीं की है। यहाँ तक कि पंडित जी तक को नहीं बोला है अभी तक। मैं बैग पैक कर लेती हूँ सवेरे जल्दी निकल लेंगे। तीन घंटे में तो पहुँच ही जाते हैं वैसे भी"


कावेरी बैग पैक करने चली गई और सुकांत हँसने लगे। एक बरस पुरानी दूरियाँ तो यूँ नाप गई थी गोया कल की बात थी।


सवेरे तीन घंटे की दूरी नाप कर एक बरस की दूरियाँ खत्म करने के लिए कावेरी जब अपने घर पहुँची तब दरवाज़े पर वाणी ने स्वागत किया। कावेरी के मन में कोई बैर नहीं था उस वक़्त उसने हँसकर वाणी को गले लगाया और थोड़ी दुखी भी हुई कि शेखर वहाँ मौजूद नहीं था।


"वाणी, शेखर ऑफिस गया है क्या!"


"नहीं जीजी, वो बैठक में हैं। आप सामान मुझे देकर वहीं ही..."


कावेरी वाणी के बोलने से पहले ही सामान नीचे रखकर बैठक की तरफ चल पड़ी। माँ की महक अब भी बैठक में उसी तरह आती थी जिस तरह से पहले, "शेखर..."


शेखर एक बार में पीछे नहीं मुड़ पाया क्योंकि उसे अपनी जीजी को देखने के लिए अपनी भरी हुई आँखों को खाली करना था। उसके हाथ में कुछ था। कावेरी देख नहीं पा रही थी।

"जीजी..."


"यहाँ क्या कर रहा है तू! मैं तो... ये तेरे हाथ में क्या है! ये तो मेरी...."


"हाँ। ये आपकी साड़ी है जीजी। जिस दिन आप यहाँ से गई थी उस दिन शाम को मैंने ही ये आपके बैग से निकाल कर अपने पास रख ली थी। माँ की साड़ियों पर से अधिकार मैं और वाणी अपने गुनाहों की वजह से खो चुके थे। मैं आपको नहीं खो सकता था" कावेरी ने आगे बढ़कर शेखर को थामा और एक माँ की तरह उस चुप कराने लगी। शेखर को तब संभालना इतना मुश्किल नहीं हुआ था जितना कि अब हो रहा था कावेरी के लिए।


"कैसे रोता है रे! दो बच्चो का बाप है और बच्चों की तरह रो रहा है!"


"आप तो बड़ी हैं। बचपन से माँ के पास कम आपके पास ज़्यादा रहा हूँ। आप कान पकड़कर दो थप्पड़ मारकर भी तो मुझे समझा सकती थी। इतना क्या पराया किया"


"मेरी भी गलती रही शेखर, छोटे भाई को संभाल नहीं सकी। मुझे भी माफ़ कर दे"


"ये ना कहो जीजी। आप बैठो, मैं चाय लाता हूँ। उस दिन यहीं छोड़ कर गई थीं ना आप!"


"तू लाएगा!"


"हाँ, अब मैं काम करने लगा हूँ। आप कहती थी ना कि वाणी का हाथ बंटाया करूँ। अब करता हूँ मैं"


शेखर जाने लगा फिर रुक गया।


"आपके जन्मदिन पर जो साड़ी सुधा ने दी थी, वो पसंद आई थी आपको!"


"जन्मदिन पर! अरे हाँ। सुधा ने दी थी"


"रंग आपकी पसंद का ही था ना! समझ ही नहीं आ रहा था आपको पसंद आएगी या नहीं!"


"वो तूने भेजी थी शेखर?"


"चाय लता हूँ जीजी। सुधा भी आती ही होगी"


शेखर परदे को हिलता हुआ छोड़कर बाहर निकल गया और कावेरी माँ के तखत पर ख़ुशी और अपने घर की मिट्टी की गिरफ्त में आँसुओं से एक बरस पुरानी दूरियों को धो रही थी।


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