और बस एक दिन यूँ ही
और बस एक दिन यूँ ही
"तुमने कभी इस बारे में कुछ सोचा है?"
"किस बारे में?"
"उस आदमी से शादी क्यों की तुमने?"
"फिर वही बात वेद, क्यों शुरू हो जाते हो हर वक़्त?"
"जब तक तुम जवाब नहीं दे देती मैं पूछता रहूँगा वृंदा।"
"करते रहो कोशिश।"
"हमेशा करूँगा।"
"पागल हो?"
"जो चाहो सो समझो।"
और मैं उसे हमेशा इसी तरह चुप कराती रहती, उसके मासूम सवालों का जवाब तो था मेरे पास लेकिन क्या फायदा था देने का, और ना ही मैं देना चाहती थी। हालांकि सवाल तो वेद जायज़ ही करता था। मेरी शादी तो अब दस बरस पुरानी हो चली थी, लेकिन मेरे लिए तो क्या नयी और क्या पुरानी। शिव ने तो मुझे कभी जानने की कोशिश ही नहीं की और मैंने जब भी उन्हें जानने की कोशिश की तो उन्होंने जानने ही नहीं दिया। शादी का मतलब शिव के लिए बस वैसा और उतना ही था जितना कि अधिकतर लोगों के लिए होता है या कि करीब करीब सभी के लिए होता है। अब जब अग्नि के सात फेरे ले ही लिए हैं तो साथ तो रहना ही है, एक ही छत के नीचे, एक ही बिस्तर पर सोना, दिन, हफ्ते, महीनों लगातार एक दूसरें से बिना बात किये गुज़ार देना। लोगों के सामने एक दूसरें की थोड़ी सी तारीफ करके उन्हें जलाना और उनकी इस ग़लतफ़हमी को हवा देते रहना कि हाँ हम एक आदर्श पति-पत्नी है। और क्या मतलब है इन सब बातों का? कि हाँ हम दो लोग शादीशुदा है? वाहियात सच है और कुछ नहीं। सूरतें तक याद नहीं एक दूसरें की। हद हुई ये तो।
वेद हमेशा मेरे ज़ख्मो को कुरेदने की कोशिश करता, यक़ीनन उसके हिसाब से तो ये उसका मेरी परवाह करने का एक नायाब तरीका होता था, लेकिन मेरे लिए तो बिलकुल ही नहीं।
"वृंदा तुम खुद पर एक एहसान करो और आज़ाद करो इस शादी से अपने आप को, एक अजनबी शादी को क्यों लिए घूम रही हो वो भी इतनी शिद्दत से। मेरी समझ के बाहर हुआ जाता है सब।"
वेद ना जाने ये नसीहत कितनी बार दे चुका था। वैसे ये नसीहत कम उसकी मुझ पर दया ज़्यादा थी। शिव को लेकर जितनी जिज्ञासायें वेद को थी उससे कहीं ज्यादा मुझे थी। आखिर क्यों रह रहे थे हम साथ? एक ही छत के नीचे अजनबियों की तरह रहने से तो एक एक पल भी एक एक बरस के सामान लगता है, फिर हम तो दस बरस से साथ रह रहे थे। एक उम्र बिता दी हो जैसे और पाया कुछ भी नहीं।
"वेद, हम मिल सकते हैं?"
"हर वक़्त वृंदा।"
"कल मिलते हैं 2 बजे, देर से मत आना।"
"पहले ऐसा कभी हुआ है क्या?"
"जो कभी न हुआ हो वो ज़रूरी तो नहीं की आगे भी कभी ना हो।"
"मैं हर वक़्त तुम्हारे बुलाने पर वक़्त पर ही आऊंगा।"
वेद से मेरी इस तरह की मुलाकातें जो कि अक्सर बेमतलब की ही होती थी, होती रहती थी। जब मैं उससे पहली बार मिली थी तब से लेकर आज तक बस वो ही मुझे समझने की कोशिश करता रहा था। मैं तो खुद में ही मसरूफ थी। शिव को नहीं जान पाई इसलिए किसी को भी जानने में दिलचस्पी नहीं रही।
"वेद तुम हमेशा वक़्त पर क्यों आते हो?"
"क्योंकि मुझे मालूम है कि तुम्हे देर से आने वालों पर कोफ़्त होती है।"
"तुम्हे मेरे बारे में बहुत कुछ पता है ना?"
"नहीं, ऐसा बहुत कुछ है जो मैं नहीं जानता लेकिन जानना ज़रूर चाहता हूँ।"
"कोई बात नहीं सब कुछ जानना ज़रूरी भी नहीं। अच्छा एक बात बताओ? मैं तुम्हे यूँ कभी भी मिलने बुला लेती हूँ, और तुम बिना कुछ पूछे कहे आ भी जाते हो, क्यों?"
"अभी तुमने कहा ना सब कुछ जानना ज़रूरी भी नहीं।"
"हम्म बदला ले रहे हो"
"किस बात का?"
"तुम्हारे सवालों का जवाब जो नहीं देती। तो तुम भी वैसा ही कुछ कर रहे हो।"
"बदला लेने के लिए पूरी दुनिया पड़ी है। तो तुमसे ही क्यों?"
"तुम्हारा शर्ट अच्छा लग रहा है।"
"तुम्हारी साड़ी ज़्यादा अच्छी लग रही है।"
"शिव लाये थे।"
"ओह! अच्छी पसंद है शिव की।"
"शायद!"
"शायद क्या, तुम हो न उसकी पसंद, तुम्हे कोई शक है क्या?"
"तुम्हारी घड़ी अच्छी लग रही है, और ये तुम पर ज़्यादा अच्छी लग रही है, तुम्हारे हाथ के लिए ही बनी हो शायद"
"आज कुछ खास है क्या?"
"क्यों?"
"नहीं, तुम्हारे मुंह से तारीफ ..क्या वाकई?"
"तुम्हारी कभी किसी ने तारीफ नहीं की क्या?"
"किसी के करने से क्या होता है। जिनसे चाहते है, वो करें तो बात अलग होती है ना"
"इसीलिए सह नहीं पा रहे हो ना"
"हो सकता है।"
"तुम्हारा थिएटर कैसा चल रहा है?"
"चल रहा है, तुम कब आ रही हो देखने? नया नाटक करने जा रहा हूँ मैं कुछ ही दिनों में।"
"वाह क्या बात, वेद तुम्हारा सही है। खुद को जताने का माध्यम है तुम्हारे पास, खुशनसीब हो।"
"क्यों जो खुद को जता सकते हैं वो खुशनसीब होते हैं क्या?"
"बेशक।"
"तो तुम्हे किसने रोका है, तुम भी तो करती थी पहले थिएटर, फिर से क्यों नहीं आ जाती!"
"शिव को ऐतराज़ है।"
"किस बात पर!"
"यही कि मैं अब कोई और काम करूं, थिएटर नहीं। उन्हें ये सब नाटक वगैरह पसंद नहीं। अव्वल तो उन्हें मेरा घर के बाहर जाकर कोई काम करना ही पसंद नहीं।"
"अच्छा! शिव को नाटक पसंद नहीं! देखना या करना!"
"क्या मतलब!"
"मतलब तो तुम खूब समझती हो वृंदा। नाटक पसंद नहीं और तुम दोनों खुद जो दस सालों से कर रहे हो, उसके बारे में क्या विचार है!"
"तुम फिर शुरू हो गए।"
"वृंदा तुमने शिव से शादी क्यों की!"
"क्योंकि शादी सबको करनी होती है।"
"मज़ाक कर रही हो!"
"नहीं, करनी होती है इसलिए कर ली।"
"और उसके बाद क्या करना होता है!"
"बहुत कुछ।"
"और वो बहुत कुछ तुमने किया क्या!"
"हम यहाँ कब से बैठे हैं, कॉफ़ी तो पी ही सकते हैं।"
मैंने कॉफ़ी का आर्डर दिया जो कि हमेशा मैं ही देती थी, वेद की तो जैसे कोई पसंद ही नहीं थी।
"वेद वहाँ देखो, कितनी खूबसूरत पेंटिंग है ना!"
"वृंदा, जब जीते जागते लोग खूबसूरत नहीं लगते ना तब ये ही चीजें दिल बहलाती हैं।"
"नहीं, ऐसा तो बिल्कुल नहीं, तुम मुझे खूबसूरत लगते हो, बेहद खूबसूरत हो तुम। वैसे तुम मुझसे कितने छोटे हो!"
"यही कोई तीन या चार साल।"
"ओह!"
"और तुम शिव से कितनी छोटी हो!"
"यही कोई नौ या दस साल...शायद दस साल।"
"मज़ाक कर रही हो क्या!"
"तुम्हे मेरी हर बात ही मज़ाक लगती है।"
"अरे क्या मतलब है इसका यार, दस साल छोटी! तुमने ये शादी क्यों की!"
"हा हा हा...तुम्हारा ये एक रटा रटाया सवाल बड़ा मासूम है!"
"वृंदा, एक नया नाटक है, नायिका की तलाश है, तुम कर लो ना।"
"लेकिन कैसे, एक तो शिव नहीं मानेंगे, ऊपर से मुझे दस साल हो गए, मैं अब अभिनय भी भूल चुकीं।"
"क्या बात कर रही हो, तुम्हारा अभिनय अब तो और भी परिपक्व हो चुका है।"
"अब तुम मज़ाक कर रहे हो!"
"अरे कैसा मज़ाक! तुम और शिव जो घर में दस सालों से कर रहे हो, तुम जो ये मेरे सामने करते हो, लोगों के सामने करते हो, ये अभिनय नहीं तो और क्या है!"
"अच्छा कॉफ़ी इतनी ठंडी करके जो पीते हो, कोल्ड कॉफ़ी ही मंगा लिया करो।"
"एक बार फिर शानदार अभिनय।"
"मैं शिव से बात करके देखूंगी, अगर मान जाये तो..."
"वृंदा तुम्हारी साड़ी वाकई कमाल लग रही है । शिव की पसंद लाजवाब है।
"द्विअर्थी संवाद वेद साहब।"
"अब मैडम थियेटर करता हूँ इतना तो बनता है । वैसे भी सीधे सपाट संवाद आजकल लोगों की समझ से परे है।"
"वैसे नाटक है क्या, किसने लिखा है! बंधोपाध्याय जी ने ही लिखा है या पहले से लिखा हुआ है!"
"लिखा है किसी ने, तुम नहीं जानती नया है।"
"तो मैं चलूँ, शिव को मनाना आसान ना होगा।"
"पहले उसे तुमने कितनी बातों के लिए मनाया है वैसे।"
"कोई खास तो नहीं।"
"तो मतलब तुम्हे इसका भी कोई अनुभव नहीं!"
"हाँ नहीं है, क्योंकि कभी ज़रूरत ही नहीं पड़ी।"
"शादी के दस साल, दस साल बड़ा पति और ज़रूरत और अनुभव किसी भी चीज़ का नहीं, आप महान तो है मैडम, बंदा आपको सलाम करता है।"
"ठीक है ले लिया तुम्हारा सलाम, अब मैं चलूँ!"
"तुम्हारी मर्ज़ी।"
शिव से आज तक कुछ माँगा नहीं मैंने। उन्होंने भी अपनी तरफ से कभी कुछ दिया नहीं। जवाब मुझे मालूम ही था लेकिन कोशिश करना ज़रूरी ठहरा। और रात को हमेशा की तरह वही संवादों की नीरसता....
"खाना लगा दूँ!"
"हम्म"
''यहीं या उस कमरे में!"
"कहीं भी लगा दो।"
इससे ज़्यादा था क्या हमारे बीच में बात करने को या एहसास दिलाने को कि हम एक दूसरें के साथ या पास बैठे हैं भी। उनका फ़ोन उनके ज़्यादा नज़दीक था या यूँ कहो कि सिर्फ वो ही नज़दीक था।
"मैं घर पर यूँ बैठी परेशां हो जाती हूँ।"
"ज़रा नमक पकड़ाना"
"सोच रही हूँ कुछ काम कर लूँ"
"नमक वाकई कम है या सिर्फ मुझे ही लग रहा है!"
और मुझे अपनी खास बातों को बीच में ही छोड़कर उस बेजान सब्जी को चखना ही पड़ा।
"नमक तो ठीक ही है।"
"कल रात भी पानी ज़्यादा गर्म कर दिया था, आधी रात तक भी पीने लायक नहीं हुआ था।"
"ध्यान रखूंगी"
"सब्ज़ी में कोई स्वाद नहीं आ रहा ले जाओ।"
यही ढंग था शिव का, जब भी मैं उन्हें अपने ज़िन्दा होने का एहसास दिलाती थी तब यही सब होता था, एक बार फिर कोशिश...
"मैं थियेटर फिर से करना चाहती हूँ"
"क्यों!"
"क्योंकि मुझे खुद को व्यस्त रखना है।"
"घर के काम कम पड़ने लगे है!"
"घर के काम कोई काम नहीं होते और उन्हें करना आना या न आना कोई अच्छी या बुरी बात नहीं है और ना ही वो कोई काबिलियत की बात है।"
"थिएटर मुझे कतई पसंद नहीं।"
"क्या बुराई है!"
"अच्छाई क्या है..नौटंकी"
"उसे अभिनय कहते है।"
"जो भी हो, जो भी कहते हो, फ़िज़ूल का काम है निहायती। मुझे सुबह ऑफिस जाना है, नींद भरी है आँखों में।"
और शिव के कहने का यही मतलब कि सोना है तो सो जाओ नहीं तो मुझे तो सोने ही दो। और मैं भी शायद बहुत रात तक यही सोचती रही थी कि अब आगे क्या! आँख कब लगी नहीं पता कुछ ...खैर उसके बाद...
"वेद, मिल सकते हैं!"
"हमेशा।"
"दो बजे।"
"वक़्त पर पहुँच जाऊंगा।"
वह हमेशा की तरह हाज़िर था पहले से ही।
"वेद आज कोल्ड कॉफ़ी पिए!"
"क्यों..तबियत तो ठीक है!"
"बिलकुल ठीक है, हमेशा एक सा क्या करना ये बहुत बोरिंग होता है ना हमेशा वही वही करते जाना बिना मतलब का और बस..."
"क्या हुआ वृंदा..तुम ठीक हो!"
"ठीक है सब, कुछ नया करें! परिवर्तन ज़रूरी है।"
"हाँ, लेकिन क्या हुआ....तुम्हारी तबियत
सुनिए भाईसाहब! दो कोल्ड कॉफ़ी प्लीज़।
"तुम भी कोल्ड कॉफ़ी पियोगे!"
"हाँ वो परिवर्तन ज़रूरी है ना।"
"तो वेद, वो नाटक क्या है कुछ बताओगे"
"क्या!"
"वो नाटक, कह रहे थे ना उस दिन.."
"आज तो तेवर बदले हुए है। इजाज़त मिल गयी!"
"क्यों, इजाज़त नहीं मिलेगी तो कुछ होगा नहीं क्या!"
"क्या मतलब, वृंदा मुझसे कुछ छुपा रही हो क्या!"
"शिव नहीं माने, कभी नहीं।"
"तो फिर!"
"तो फिर, तो फिर क्या! जब मुझे अधिकार देने आते है तो वापस लेना क्यों नहीं आएगा"
" बगावत! हा हा हा..."
"जी नहीं, सजगता।"
"दस सालों बाद!"
"ज़िंदगी खत्म होने से पहले आ गयी ये क्या कम बात है?"
"मज़ाक कर रही हो, मैं जानता हूँ ये तुम्हारे लिए बिल्कुल भी आसान नहीं होगा"
"मेरे लिए आसान तो वैसे भी कुछ भी नहीं"
"लेकिन वृंदा!"
"नाटक क्या है वेद? कल से आ जाऊं!"
"वृंदा, क्या हुआ है, तुम ठीक नहीं ना?"
"हां मैं ठीक नहीं, लेकिन अब मैं ठीक होना चाहती हूँ।"
"क्या हुआ है..अब तो मुझे मेरे सवालों का जवाब दे दो"
"क्या मैं कल से आ सकती हूँ?"
"क्यों नहीं"
"इतने सालों बाद..क्या मुझे वहाँ सब लोग!"
"तुम्हे वहाँ कौन नहीं जानता...तुम्हारे लिए वहाँ के हर दरवाज़े पर तुम्हारा नाम लिखा होगा। तुम आओ तो।"
"तुम वहीँ मिलोगे ना!"
"और कहाँ जाऊंगा मैं..इंतज़ार करूँगा।"
"मैं वक़्त पर पहुँच जाउंगी।"
"मुझे हमेशा से ही यकीं है।"
"तो फिर मैं चलूँ?"
"तुम्हारी मर्ज़ी।"
वह यह कहना कभी नहीं भूलता। मुझे तो कल हर हाल में वक़्त पर पहुंचना ही था, पहुँचने की जल्दी भी थी। और क्यों ना होती भला एक उम्र बस सोचने भर में और खुद को खोजने भर में ही बिता दी थी.. अब और क्या हाँ? अब तो रास्तें सामने थे।
"शिव, कल से मैं थियेटर शुरू कर रही हूँ"
"रोज़ रोज़ एक ही सवाल का जवाब नहीं दे सकता मैं।"
"सवाल किसने किया है, और कौन मांग रहा है जवाब, मैं तो सिर्फ बता रही हूँ।"
"क्या मतलब!"
"मतलब वही जो तुम समझ रहे हो।"
"लेकिन मैं मना कर रहा हूँ ना, मुझे नहीं पसंद ये सब।"
"इजाज़त नहीं मांग रही हूँ।"
"क्या हुआ है?"
"कुछ होने का इंतजार करूँ क्या अब?"
"मुझसे ये टेढ़ी बातें नहीं की जाती जो कहना है सीधा कहो।"
"कल से मैं थियेटर फिर से शुरू कर रही हूँ, ये रही सीधी बात।"
"मैं मना करूँ तब भी ये होगा?"
"बिल्कुल"
"कोई एनर्जी ड्रिंक पी आई हो लगता है"
"जी नहीं, कॉफ़ी"
"किसके साथ?"
"कॉफ़ी पीने के लिए कॉफ़ी की ज़रूरत होती है किसी के साथ की नहीं।"
"फिर भी..."
"वेद"
"ओह, वेद! तो और क्या सिखाया वेद ने?"
"अगर मुझे वेद से ही सीखना होता तो इतना वक़्त मैंने तुम पर लगाया ही क्यों होता?"
"अच्छा? खैर..अब जब यही बात है तो ये भी बता दो कि और क्या इच्छा है तुम्हारी!"
"मेरी कोई इच्छा नहीं, अब ये मेरी ज़रूरत है।"
"आखिरी फैसला है?"
"मेरी तरफ से लिया हुआ तो पहला ही है।"
"मैं इसके पक्ष में नहीं, बिलकुल नहीं..आगे तुम ज़िम्मेदार हो मेरे हर उस फैसले की जो तुम्हारे और हमारी शादी के खिलाफ भी हो सकता है।"
"शिव, जानते हो हम दोनों के बीच में सबसे बड़ी समस्या क्या है...हमारी ये शादी, और इस बेगानी और गैरज़रूरी शादी से ज़्यादा हम दोनों के खिलाफ और कोई मसला ही नहीं।"
"बहुत खूब वृंदा! ये आज दस सालों बाद समझ आया तुम्हें?"
"नहीं ना शिव... ये तो शादी के फेरे के वक़्त ही समझ आ गया था लेकिन सिर्फ समझने से क्या सुलझता है, सुलझाना पड़ता है।"
"क्या चाहती हो?"
"आज तक तो कुछ समझे नहीं। ना बोलने से और ना ही चुप रहने से। अब आगे समझते हो तब भी ठीक और ना समझते हो तो तब भी ठीक।"
उस रात के ये आखिरी शब्द थे जो मैंने कहे थे, शिव की आगे की प्रतिक्रिया के लिए मैं उस कमरे में रुकी नहीं। और उस रात मुझे नींद भी आ ही गयी थी जो हमेशा मुझसे दूर भागती थी। दूसरे दिन जब मैं थियेटर पहुंची....
"वेलकम वृंदा"
वहाँ के हर दरवाज़े पर वेद की लिखावट में यही दो शब्द स्थिर थे। स्टेज की तरफ जाते हुए कानों में शब्द आ जा रहे थे, शायद वेद किसी नाटक की पंक्तियाँ दोहरा रहा था....
"और फिर एक दिन सिया ने अग्नि परीक्षा देने से मना करते हुए कहा "यदि मेरे अग्नि परीक्षा देने से ही मेरा सतीत्व साबित होता है तो मुझे इनकार है ऐसी अग्नि परीक्षा से, मैं आने वाली पीढियों को ऐसी कोई सौगात नहीं देना चाहती जिससे अग्नि परीक्षा एक प्रतिमान के रूप में स्थापित हो जाये और हर औरत के खिलाफ एक औज़ार की तरह काम में लायी जाई।"
"अरे वृंदा आ गयी तुम। मैं वो ज़रा नाटक में.."
"अच्छी पंक्तियाँ थी वेद, तुम्हे इसी नाटक के लिए नायिका की तलाश थी क्या?"
"हाँ बिल्कुल।"
"तो समझो तुम्हारी तलाश पूरी हुई।"
"वाकई, समझ लूँ आखिर?"
"समझ लो।"