कौन था?
कौन था?
उस रोज़ जैसी भविष्यवाणी अखबार में पढ़ी थी, उतनी ही तेज़ बारिश हुई भी। अमूमन इसका उल्टा होता रहा था।
यूँ तो छुट्टी का दिन वो घर में बैठा बैठा आराम से काट लेता किंतु उस दिन काटे नहीं कट रहा था मरा वो समय उसका।
पिछली रात अचानक उसे महसूस हुआ कि उसके हाथ में किसी का हाथ था। वो चौंककर और डरकर पलंग पर बैठ गया। बत्ती जलाकर आसपास देखकर पूरा बिस्तर टटोला। पसीने से तरबतर अपने हाथ को देखा। कोई नहीं था। कैसे होता जब वो रहता ही अकेला था। सपना था?
सपने तो रोज़ आते हैं किन्तु ये सपना नहीं था। जब तक शराब ना पी रखी हो, रात के सपने और हकीकत में फर्क वो कर सकता था और पिछली तीन रातों में उसने शराब नहीं पी। उसे पेट में दर्द था और दवा लेने की वजह से पी नहीं पा रहा था वो।
रात के एहसास से वो निकल नहीं पा रहा था।
तेज़ बारिश के साथ बिजली ने खौफ पैदा किया हुआ था। डर उसे बिजली से बचपन से ही लगता था। सुबह से रुक रुककर होती बारिश शाम होते होते भयावह हो गई। कहाँ जाता वो हर तरफ पानी भर चुका था।
बिजली कैसे नहीं जाती। वो गई और अब वो कब आनी थी ये भला ऐसी बारिश में कैसे कहा जा सकता था। टाॅर्च ढूँढकर उसे साफ किया लेकिन वो तो बोल चुकी थी। सेल कौन से ज़माने में चैक किए थे उसे कौनसा याद था! मोमबत्ती कहाँ रखी होगी जो पिछली दीपावली पर माँ आई थी तो खूब सारी लेती आई थी लेकिन कहाँ होगी इस पर सोचना ही रात निकाल देना था।
मोबाइल में फ्लेशलाइट कब तक जलाता, इसकी बैट्री ऐसे तो कब तक साथ देगी, इसी में चली जाएगी! उसने दीपक उठाया और बाहर छलकते तेल तक भरकर रख दिया। अब पूरा अंधेरा होने का इंतज़ार करने लगा। अभी उसे ठीक ठाक दिख रहा था।
बाहर पानी ही पानी। बिजली के साथ बादलों ने भी डराने का मोर्चा संभाल लिया था। पूरा मौसम सूखा निकाल दिया और आज एक बार में बरसकर बाढ़ इसे लानी है क्या! बड़बड़ाते हुए रसोई में चिड़चिड़ापन लिए घुसा। सुबह का आटा फ्रिज से निकालकर रोटी सेंकने की कोशिश में चार कच्ची पक्की रोटियाँ सेंककर अचार से खाने को ढककर रख दी। खाना बनाने वाली को ऐसे हालात में फोन करके पूछने की सोचना भी मूर्खता थी।
शयनकक्ष में वो जाना चाहता नहीं था। पिछली रात की हरकत ने उसे अजीब तरह से डरा दिया था। वहम होता तो वो फर्क कर लेता लेकिन जो इस तरह से महसूस हुआ उसे वहम कैसे माने! हर डर वहम थोड़ी होता है।
सोफे पर ही सोने का उसने सोचा। अभी तो रात आधी बाकी थी।
आज दिन भर ना उसने फोन पर किसी से बात की, ना कोई मैसेज चैक किया या ही किसी को भेजा। मन उजाड़ हो रखा हो तब प्रिय से प्रिय इंसान या कि चीज़ भी चिढ़ ही पैदा करते हैं। अबूझ मन का कोई पैटर्न नहीं होता। बेतरतीब, बेलिहाज़, बोझिल, फफक-फफक रोने को आतुर मन। और क्या!
जैसे जैसे अंधेरा बढ़ता गया पानी की आवाज़ डराती गई। बारिश उसे यूँ भी नहीं अच्छी लगती थी। उसे खुले आसमान और झुग्गी झोपड़ी के लोगों की बर्बादी असहज कर जाती थी। ऊपर से ऐसा बेतहाशा बरसना आखिर किस काम का!
अकेले रहते आदमी के लिए खाना खाकर पेट भरना भी एक काम ही होता है जिसे वो निपटा लेना चाहता है। भूख का एहसास और उसे किसी अपने के हाथ से बने भोजन से मिटाना तो परिवार के साथ ही अच्छा लगता है।
दीपक उसने अब जला दिया और उसके एक जैसी लौ पकड़ने का इंतज़ार करने लगा।
बिना उजाले के भी रोज़ के जीवन की चीज़ों की दूरियों को अंदाज़े से नापा जा ही सकता है लेकिन रात की बात उसके ज़ेहन से निकलने को कब तैयार थी इसलिए बिना उजाले के वो रसोई तक में नहीं जाना चाहता था।
दीपक जो कि गर्म होता जा रहा था, को ऊपर से उठाकर जैसे तैसे रसोई तक ले जाकर उसने एक कटोरी में रख दिया। अब आसानी हुई उसे। थाली में वो चार रोटियाँ अचार के साथ रखकर पानी का जग उठाए वो सोफे पर बैठ गया।
खुद ही की बनाई रोटियाँ अचार से कम पानी से ज़्यादा निगली, दवा जो लेनी थी।
खाना खाकर एहसास हुआ कि आज दवा ना लेकर शराब पी होती तो सो जाता। जैसे तैसे ये रात कट जाती और सुबह अपनी माँ के पास निकल जाता।
कभी कभी एक रात और एक दिन भी इतना भारी हो जाता है कि उसके हरसंभव बीत जाने में ही जीवन भर का सुकून नज़र आने लगता है।
बहुत देर तक सोचता रहा और शयन कक्ष में जाने की हिम्मत जुटाता रहा। उसने मन को समझाने की जुगाड़ बिठाई और हँसने का उपक्रम कर बोला, 'अकेले रहते रहते इतने बरस हो गए और आज खुद के ही घर में डर!'
हालाँकि ये तरकीब रत्ती भर काम आई नहीं।
उठा और जो होगा देखा जाएगा सोचकर शयनकक्ष में चला गया।
फोन में इतनी बैट्री थी कि किसी से बतिया ले, मैसेज कर ले लेकिन मन भी कोई चीज़ है। है तो है, नहीं है तो नहीं ही है फिर।
बिस्तर बिना ठीक किए वो दीपक टेबल पर रखकर लेट गया। लौ की परछाई ऊपर पंखे के आसपास अजीब सी आकृति बना रही थी। घड़ी की टिक-टिक और नल की टप-टप जो होती तो रोज़ ही थी किन्तु परेशान आज कर रही थी। धड़कने उसकी आज सामान्य नहीं ही थी।
उसने फोन उठाकर माँ से बात करनी चाही लेकिन मैसेज नोटिफिकेशन में निशा का मैसेज देखकर उसे खोला।
हालाँकि निशा जब अपने प्रोजेक्ट के काम से शहर से बाहर गई थी तब बोलकर गई थी कि गाँव में नेटवर्क नहीं मिला तो परेशान मत होना। नेटवर्क मिलते ही मैं मैसेज कर दूँगी।
उसने चौंककर मैसेज बॉक्स खोला, 'विशाल यहाँ नेटवर्क की बहुत मारामारी है पता नहीं ये मैसेज तुम तक कब तक पहुँचेगा। जानते हो कल रात क्या हुआ मैं इस प्रोजेक्ट के काम में शायद हमेशा के लिए तुमसे बिछड़ जाती। कल रिपोर्ट लिखते वक्त मैं यहाँ बनी नदी के किनारे बनी दीवार पर आ बैठी और ना वक्त का पता चला ना किसी ने आवाज़ लगाई। उठकर जाने को हुई तो मेरा उल्टा पैर पीछे की दिशा में मिट्टी खोदता हुआ फिसल गया और मैं घिसटती हुई पानी में गिरने लगी। तभी ऐसा लगा मानो किसी ने मेरा हाथ खींचकर मुझे अपनी तरफ खींचते हुए ऊपर ला पटका। अजीब बात है, वहाँ कोई नहीं था। मैंने ही अपने दोनों हाथों से मुहाने पर बनी कच्ची दीवार को अपने नाखूनों की पकड़ से कसकर मुट्ठी में लिया और ऊपर आई। मेरा वहम हो सकता है कि वहाँ कोई था। विशाल लेकिन उस वक्त मैंने तुम्हें पुकारा था। ये मैसेज मिलते ही मुझे पता लगने देना।'
पिछली रात का डर जो सच में डर था वो अब अपनी वजह बदल चुका था। तो वो हाथ निशा का था। विशाल ने फोन लगाया, नहीं ही लगना था। मैसेज छोड़ा और डर और उसके बाद के सुकून के साथ लौ की परछाई में अपने हाथों से अलग अलग आकृतियाँ बनाकर अपनी धड़कने सामान्य होने का इंतज़ार करने लगा। नींद कब लगी, पता नहीं उसे।
वो जब सुबह उठा, चारों तरफ पानी था लेकिन आसमां साफ था।
आज बादल और बिजली के डराने की कोई संभावना नहीं थी, गरजने-चमकने की तो ज़रूर थी।
