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Manish Dwivedi

Drama

4.5  

Manish Dwivedi

Drama

बरसात की रात

बरसात की रात

9 mins
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डर एक काल्पनिक चीज है और साहस भी !

लेकिन कल्पनाओं के चुनाव में मैंने हमेशा सस्ती चीज ही पकड़ी है

बचपन में पिता जी जब सिक्के और नोट में से एक ही चीज लेने को कहते थे,मैंने पंजों पर उचक कर सिक्का ही पकड़ा!

फायदे और नुकसान के बीच का जो गुणा गणित है न। वहाँ सब दिमाग की बपौती है, और दिल के हिस्से एक चवन्नी नहीं आती।

साहस, डर के इसी कारखाने(दिमाग) से नीचे वाली मंजिल पर(दिल) रहता है,लेकिन मजाल है कि दिमाग के शोर में दिल की आवाज सुनाई भी पड़ जाए।

7 बरस हो गए बैंक में नौकरी करते,कभी प्रमोशन के लिए नहीं बैठा,डर था घर से दूर हो जाऊंगा।

बीवी बनारस में नौकरी करती है,और घर में ज़रूरत भी थी मेरी।फिर भी मेरे गूगल मैप की समरी बताती है कि पिछले साल मैंने 10,373 किलोमीटर यात्रा की।

तो पूरी नौकरी में कोई 50- 60 हजार किलोमीटर तो चला ही होंगा, धरती का कोई डेढ़ चक्कर गणित के हिसाब से तो पूरा सिंदबाद हूं,पर भूगोल के लिहाज से वो कोल्हू का बैल जिसने एक बोझ भूसे के लालच में खूटे के इर्द-गिर्द हजारों चक्कर लगाएं। बनारस और सुल्तानपुर के बाद कोई तीसरा जिला नहीं देखा। सब जानते थे मैं ट्रान्सफर से डरता हूँ। अपने डर कभी दुनिया को नहीं बताने चाहिए, और ऑफिस में तो कत्तई नहीं।

पिछले हफ्ते ही तो बनारस था फिर एक छोटी सी बात पे 700 किलोमीटर दूर तबादला हो गया।

यकीन नहीं होता। तीन घंटे हुए हल्द्वानी बस स्टैंड से एक सरकारी बस पकड़ी जो आधी नेपालियों से भरी है।

लोग कह रहे हैं -अभी तो टनकपुर भी नहीं पहुंची, लोहाघाट पहुंचने में तो शाम हो जाएगी।

इस खचाखच भरी बस में भी खुद को अकेला महसूस कर रहा हूँ।अधिकतर लोग पहाड़ी में बात कर रहे हैं, हाँ बीच बीच में 370 और 35a सुनाई पड़ जाता है जैसे उर्दू के अखबारों में अंग्रेजी में लिखे अंक भर समझ में आते हैं।जो हिंदी बोलते हैं उनकी बोली में वो बनारस वाली तासीर नहीं है।

 रास्ते में एक ढाबे पर बस रुकी है, यहां कटकी चाय पीते दो पुलिसवालों को भीड़ ने यूं घेर रखा है,जैसे बच्चे अलाव घेरकर भूतों की कहानियां सुनते हैं। मैंने भी कान टिका दिए, पता चला कि आगे रास्ते पर पत्थर गिर गया है 7- 8 घंटे लगेंगे हटने मेंहाँ छोटी गाड़ियाँ जा रही हैं।मौसम का अंदाजा तो था नहीं, तो टीशर्ट डालकर चल पड़ा था, अब ठंड लग रही है।

रात पहाड़ी में बिताने के ख्याल ने मन को छुआ भर था, कि देह जम गयी।

5 मिनट बाद मैं अपना बैग उठाकर सड़क पर छोटी गाड़ियों से लिफ्ट मांग रहा था। इसने मुझे मेरे ऑफिस कि याद दिला दी, वहां भी मुझे वैसा ही महसूस हुआ, महत्वहीन और शायद अदृश्य भी। 20-25 गाड़ियों से जलील होने के बाद सड़क किनारे ही बैग रख कर बैठ गया। थोड़ी देर में एक सरकारी सी दिखने वाली सफ़ेद कार ने बिना हाथ दिए ही रोक दिया।मैं पीछे वाली सीट पे अपना बैग फेककर बिछ गया जैसे बच्चे स्कूल में बैग फेक कर सीट ब्लाक करते है “बैग से दिक्कत होगी आगे बैठ जाइये”

पहाड़ों के ड्राईवर अलग होते हैं किसी ने बताया तो था लेकिन एक महिला को ड्राइविंग सीट पे देख कर न जाने क्यूँ थोडा अचम्भा हुआ। इतने में पीछे वाली गाड़ी ने हमारी खड़ी गाड़ी को लंबे लंबे हॉर्न की हैट्रिक दे डाली।

आगे बैठा ही था कि उसकी शक्ल देख कर मेरा खून सूख गया

वही नैन नक्श वही आंखें और पेन के डॉट जितनी बड़ी बिंदी, बंद शीशों के अन्दर मुझे अपनी धड़कन सुनाई देने लगी।5 मिनट तक मुझसे पूछती रही -क्या करते हैं ? घर में कौन-कौन है ? कहां के रहने वाले हैं ? मैं कुछ बोला या नहीं, याद नहीं आता

फिर मुझे अंदेशा हुआ शायद ये वो नहीं है, उसे तो सब मालूम होगा।

दिमाग उस पढ़ाकू दोस्त की तरह होता है जो दुश्मनों से घिरने पर साथ नहीं देता और शांति काल में बड़े-बड़े उपदेश देता है। कुछ तसल्ली मिलने पर, दिमाग में तर्क दागने शुरू किये - वह थोड़ी और पतली भी तो थी, आवाज भी थोड़ी अलग लग रही है, सुना था उसकी तो शादी हो गई इसने तो सिन्दूर भी नहीं लगाया , वो भी तो पहाड़ी ही थी अब थोड़ी बहुत शक्ल तो मिल ही सकती है।मैंने हेडफ़ोन लगा लिया,गाड़ी जैसे जैसे ऊपर पहाड़ों में जाती थी कान बंद होते जाते थे,जैसे फ्लाइट में होता है।कोई और होता तो पूछ कर तसल्ली करता - कि यह हो भी रहा है या बस मेरा भ्रम है लेकिन हिम्मत नहीं हुई। जगजीत सिंह कि गज़ले सुनते सुनते मैं 10 साल पहले बीएचयू एमएससी की उस केमिस्ट्री लैब में पहुंच गया था, जहां मैंने मंजरी का ध्यान खींचने के लिए सोडियम में पानी डालकर ना जाने कितने टेस्ट ट्यूब तोड़े थे, वो तो I A S बनाना चाहती थी लेकिन मेरी वजह से केमिस्ट्री जैसी अर्धविकसित विधा पढ़ रही थी, जहा कोई केमिकल किसी दुसरे से कैसा व्यव्हार करता है ये तो पता है, लेकिन क्यों ? ये नहीं – जैसे वो और मैं ! हमने अपने जीवन में कई अधूरे सपनो के लिए वैसे ही जगह छोड़ राखी थी जैसे पीरियाडिक टेबल नए रसायनों के लिए छोड़ रखता है।

बिरला हॉस्टल के बाहर सूखी घास पर अशोक पेड़ों की अशोक के पेड़ों के नीचे हम सुबह से लू चलने तक पढ़ाई के लिए बैठे रहते थे। वो पहाड़न जिसे बनारस का अक्टूबर-नवंबर भी गर्म लगता था,याद नहीं आता कभी उसने पहले उठने के लिए कहा हो। कभी कभी कोई दिलजला सीनियर किताब सीधी पकड़ने का ताना दे कर सारा मोशन तोड़ देता था।

मैं बेइमान नहीं था लेकिन पिताजी को ‘फर्त्याल’ कोई जाति नहीं बल्कि प्रजाति लगती थी। “अरे दुबे मिश्रा तिवारी पांडे इम्मे से कोई होती तो फिर भी सोचते, उहाँ पढ़ने गए हो कि गुलछर्रे उड़ाने”- पिताजी ने पान थूकते हुए कहा था।

दिन तय था या कहो रात तय थी, बारिश कि हलकी फुहारें उस्मान का वाटर स्प्रे याद दिला रही थी, अब उसके सलून पे शायद कभी शेविंग न करा पाऊँ । तारीख थी 20 जुलाई 2009 ! बनारस के कैंट स्टेशन के पीछे से छोटी गोल्ड फ्लैक और क्लोरोमिन्ट ली, वादा था शादी के बाद सिगरेट नहीं पियूंगा। अम्मा ने अपने बेटे में कुछ कमियाँ शायद बहू के लिए छोड़ दी हो। वो भी कुछ अधिकार आजमा सके मुझपे।

प्लेटफ़ॉर्म 9 पे 10:30 बजे मुंबई जाने वाली गाडी आनी थी। अभी तो सात ही बज रहे थे मैंने बैग से पानी की बोतल निकाली तो वो ताबीज भी गिर गया। माँ जानती थी मैं नहीं पहनूंगा, तो चुपके से मेरे बैग में रख दी थी, अभी परसों ही एक पंडित का जंतर उतार का मैंने आंगन में फेंका था। ठाकुर बाबा के आगे जंतर रखकर माँ में घंटों रोइ थी।

छुवाछुत मानने वाली वही औरत मेरे लिए मदनपुरा के लाल दाढ़ी वाले मौलवी से ताबीज न जाने कब ले आई।

 आज दोपहर जब मैं इलाहाबाद पेपर देने के बहाने पिताजी से पैसे मांगने गया तो उन्होंने कितनी जली कटी सुनाई थी, यह कहकर कि “डर्बी में लंगड़े घोड़े पर कोई कब तक दांव लगाएगा “और पान खाने चले गए। रसोई में मेरे सफर के लिए ठकुआ तलती मा माँ ने बुलाकर हजार रुपए मुट्ठी में छिपाकर थमाए थे। ‘छोटी की शादी भी तेरे जिम्मे है, ठाकुर बाबा ने चाहा तो अबके नौकरी लग ही जाएगी’। याद आया 10 दिन बाद रक्षाबंधन भी तो है। छुटकी की सहेलियां जब रक्षाबंधन पर मिले पैसे गिनवायेंगी तो बेचारी क्या बोलेगी कि उसका भाई भाग गया।

मैं कमजोर हो गया। उस 55 साल की बुढ़िया के आगे एक 21 साल की लड़की का प्यार कमजोर पड़ने गया ।प्लेटफार्म एक्वेरियम लगने लगा। मेरी आंखें डबडबा गई थी। मैंने ताबीज उठाकर माथे लगाया और अपना सारा आत्मविश्वास, अपना सारा प्रेम ,अपने सारे सपने प्लेटफार्म की उसी कुर्सी पर छोड़कर, जिम्मेदारियों का बोझ ताबीज के साथ झोले में डाले वापस चला गया,या कहो भाग गया।

एक नौजवान आया था मुंबई जाने के लिए, लेकिन तेज बारिश में झुके हुए कंधे लिए एक बूढ़ा आदमी वापस गया।

5 साल हुए दो बार मिसकैरेज हो चुका बीवी का। कोई बच्चा नहीं हमारा। मैं जानता हूं यह सब मेरा ही पाप है !

कितना वक्त हुआ याद नहीं लेकिन एक तीखे मोड़ पर ध्यान टूटा तो क्षितिज पे अजीब से नुकीले बादल से दिखाई देते हैं।

“वो हिमालय है”- कार चलाती महिला ने कहा।

“जब मौसम साफ़ होता हैं तो कई ऊंची जगहों से भी दिखता है यहाँ “ मैं विस्मित था, यह दिखने से ज्यादा महसूस हो रहा था।सूरज की किरणों ने इसे फोटोशॉप की हुई किसी तस्वीर से ज्यादा रूमानी बना दिया था। जयमाल की दुल्हन जैसा –थोड़ी देर के लिए ही सही - वास्तविकता से भी ज्यादा खूबसूरत !

थोड़ी आबादी दिख रही है, महिला देवदार से घिरे एक बस स्टैंड के पास गाड़ी लगाकर बोली –“यह रहा आपका लोहाघाट”

“अब रात होने को है,और कितना आगे जाएँगी ?” मैंने 4 घंटे में पहला सवाल पूछा

मुझे तो चंपावत ही आना था वो तो 10-15 किलोमीटर पीछे ही रह गया।

मुझे बड़ा अजीब महसूस हुआ, “मैडम इतनी तकलीफ क्यों उठाई।”

“अब एक पुराने दोस्त के लिए इतना तो कर ही सकती हूं !”

 मुझे अपने सर में गुज़रता खून अचानक से महसूस होने लगा, कान गर्म से लगने लगे, चेहरा ज़रूर लाल हो गया होगा जैसे किसी ने मन के चोर को सरे बाज़ार नंगा कर दिया हो।  मैं कुछ ना बोल सका, उस ठंडी, बरसाती,अँधेरी रात में उसकी चमकती आँखे बर्फ सी लगीं – सफ़ेद और धीमे- धीमे पिघलती 

तुम कुछ नहीं बोलोगे मुझसे ? । मैं बोलने लायक भी नहीं हूं न ।हाँ मैंने धोखा दिया है तुम्हें,

 उस रात मैं नहीं आ पाई, हिम्मत ही नहीं हुई।।दिमाग ने दिल को गद्दारी सिखा ही दी उस दिन।

 फिर पापा का तबादला हो गया। चंडीगढ़, पता चला तुम भी इलाहबाद चले गए, इच्छा हुई फिर मिलूँ तुमसे ।

लेकिन एक खाली लिफाफा पते पर पहुच भी जाए तो क्या।।।

वो आखरी मुलाकात मेरे मन में  एक जमे हुए फ्रेम कि तरह अभी तक जिंदा है, जिसमे तुम मुझसे प्यार करते हो ।। मिल लेती तो शायद वो भी टूट जाती।।। इसीलिए !

 तुम माफ कर दोगे मुझे देर-सबेर ये मैं जानती हूं, लेकिन भगवान बदला लेगा मुझसे

उस रात के बाद दुबारा वो अहसास नहीं हुआ – कभी नहीं, कहीं नहीं !

 बरसों हुए तलाक हो गया बच्चों से भी 2-3 महीने में ही मुलाकात होती है, वहीं से आ रही थी…।

वो बोल रही थी और मैं सोच रहा था कि उसके होठों के ऊपर के उस तिल को मैंने कैसे नोटिस नहीं किया था अब तक, जिसे देखकर मैं कहता था- भगवान थोड़ा सा चूक गया वरना सीधे नाक पे लगती। 

वो आई होगी, इंतजार किया होगा, रोई होगी। ऐसी हजार कहानियां बनाई थी मैंने अपने मन में।

मुझे उसी वक़्त पता चला कोई आपकी वजह से रोए तो आत्मा दुखती है, लेकिन कोई आपके लिए रोए तो अहम् संतुष्ट होता है। उस रात मुंबई जाने वाली उस ट्रेन की दोनों सीटें खाली नहीं गई थी, वो ले गई थी -हमारी सुख और शांति।

आज मुझे मेरा खोया हुआ सामान वापस मिल गया।

जबरदस्त बारिश हो रही थी मैं गाड़ी से उतरा, जब वो गाड़ी घुमा रही थी तो मैंने नंबर प्लेट के ऊपर लिखा देखा -मंजरी फर्त्याल (एसडीएम चंपावत)

 बुदबुदाया- थोड़ा सा चूक गई वरना...

आज आत्मा मुक्त हो गई, जैसे बनारस के मणिकर्णिका घाट पर किसी ने मेरे पाप जला दिए, जैसे गया में किसी ने पिंड दान कर दिया मेरा

सड़क पार कर भीगते हुए सिगरेट की दुकान पर गया।

गाना बज रहा था लेकिन बारिश के शोर ने रेडियो की आवाज दबा दी थी। सालों बाद उसी जोश से बोला-“ एक छोटी गोल्ड “

सिगरेट सुलगाकर दुकानदार को वॉल्यूम बढ़ाने का इशारा किया।।।

रफ़ी कि रूमानी आवाज़ लोहबान कि खुशबू कि तरह दूर तक फ़ैल गई – ज़िन्दगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात...


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