एक नई सुबह
एक नई सुबह
रामलाल रोज की तरह आज मॉर्निंग वाक पर निकले और वो अपने विचारों में इस कदर खोये थे कि वे अपनी कॉलोनी से कब बाहर निकल आऐ ...? और कब मेन रोड पर पहुँच गए ...? उन्हें पता ही नहीं चला. वे रोड के किनारे के फुटपाथ से उतर कर मेन रोड के किनारे किनारे चलने लगे. उनका ध्यान न तो गाड़ियों की आवाजाही की और था, न उनके हॉर्न की ओर. वे न जाने कब तक ऐसे ही चलते रहते...?, यदि पीछे से आ रही गाड़ी के लगातार बजते हॉर्न ने उनको खींचकर अपने विचारों की दुनिया से बाहर न निकल दिया होता.
“ अरे जनाब...! सबेरे सबेरे पत्नी से लड़कर घर से निकले हैं क्या...?” हॉर्न बजाने वाली कार के अन्दर से झांकता एक चेहरा उनसे परिहास के स्वर में बात कर रहा था. रामलाल अचकचाकर फुटपाथ पर चढ़ जाते हैं. उनकी साँस थोड़ी सी फूल जाती है, मानो वे कई किलोमीटर दौड़ लगाकर आ रहे हों.
कार वाले व्यक्ति की दृष्टि जैसे ही रामलाल पर पड़ती है, वो चौंक उठता है,” अरे रामलाल ...तुम!” और रामलाल अपनी सांसों को थामते हुए उसकी ओर देखते हैं .पर उनके चेहरे पर परिचय के कोई भी चिन्ह न पाकर वह व्यक्ति कार से बाहर आकर उनकी तरह बढ़ता हुआ उत्कंठ स्वर में बोलता है,” क्या ...यार रामलाल! पहचाना नहीं क्या...? मै क्या तू भी तो बूढा हो गया है और अपने बचपन के दोस्त को नहीं पहचाना ...?”
अब रामलाल उस चहरे को गौर से देखते हैं,” अरे...! ये तो उनके बचपन का दोस्त हरिओम है.” उनकी ख़ुशी का पारावार नहीं रहा.
“अरे साले तू !”, वे अपने चिरपरिचित अंदाज में ख़ुशी से चीख़ ही पड़ते हैं. दोनों दोस्त एक दूसरे से गर्मजोशी से गले मिलते हैं. आखिर क्यूँ न मिलते, दोनों की मुलाकात 30-32 वर्षों ले बाद जो हो रही थी.
“ अरे यार...जरा धीरे! हार्ट पेशेंट हूँ.” थोडा हँसते हुए रामलाल बोले.
“ कुछ नहीं होगा ...” हँसते हुए हरिओम ने जवाब दिया.
“ पर ये बता तू यहाँ नेशनल हाईवे पर कैसे घूम रहा है...?” हरिओम ने पूछा.
“नेशनल हाईवे पर ...?” रामलाल बडबडाये और जब अपने चारों ओर निगाह दौड़ाई तो उन्हें भान हुआ कि वास्तब में वे अपने घर से करीब 2 किलोमीटर दूर निकल आये हैं. तभी हरिओम ने उन्हें टोका, “ क्या बात है यार बता न...?”
“कुछ नहीं ओमी...?” उन्होंने धीरे से कहा. वे हरिओम को इसी नाम से पुकारा करते थे. और कोई समय होता तो हरी अपने पुराने नाम को सुनकर बेहद खुश होते पर वह उनके चेहरे को देखते हुए अचानक गंभीर हो गया और उनका हाथ पकड़कर बोला,” चलो घर चलते हैं.”
“घर...?”. रामलाल हडबडा जाते हैं, मनो चोरी पकड़ ली गई हो.
“ मै तेरे घर नहीं अपने घर चलने की बात कर रहा हूँ”, हरी ने मानो उन्हें बचा लिया .
“ फिर कभी यार...! आज नहीं”, वे जान छुडाते हुए बोले.
“ नहीं आज ही”, हरिओम जिद पर ही उतर आया,” इतने सालों बाद आज तो मिले हो फिर कहीं खिसक गए तो ...?, पता नहीं कब मिलो”, उसने ठिठोली की.
“ अरे घर वाले इंतजार कर रहे होंगे”, उन्होंने हल्के प्रतिरोध के स्वर में कहा, शायद वे स्वयं चाहते थे की हरिओम उन्हें अपने घर ले जाये.
“ठीक है. पहले तेरे घर ही चलते हैं, उन्हें बता देंगे, फिर मेरे घर चलेंगे...”” ओमी ने तुरंत कहा.
रामलाल न जाने क्या सोचकर घबरा उठे और हडबडाते हुए कहा,” नहीं...नहीं! चलो तुम्हारे ही घर चलते हैं.” कहते हुए कर का दरवाजा खोलकर अन्दर बैठ गए.
“ क्यों बे...! अपने घर ले कर जाने से डरता है. कहीं भाभी से चाय की फरमाइश न कर बैठूं.” हरी ने चुहल करते हुए कहा.
“ भाभी...?” रामलाल अस्फुट स्वर में बुदबुदाये. फिर धीरे से सिर झुकाकर बोले-“ तुम्हारी भाभी तो मुझे 5 साल पहले ही छोड़ कर जा चुकी है.”
“माफ़ करना यार...! अनजाने में ही तुम्हारे जख्म कुरेद दिए. मुझे बेहद अफ़सोस है.” हरी ने दुखी स्वर में कहा.
“कोई बात नहीं...,तुम्हे कैसे पता चलता ?” वे धीमी आवाज में बोले.
“ पर यार... तुम्हे मेरे घर चाय पीने तो चलना ही पड़ेगा. मुझे लगेगा तुमने मुझे माफ़ कर दिया,” हरिओम के स्वर में इसरार था. वे इंकार नहीं कर सके.
ओम सदर में रहते थे और जबलपुर का ये इलाका अंग्रेजों का बसाया हुआ था जब जबलपुर कमिश्नरी थी, आज के समय ये काफी पोश इलाका माना जाता है. अंग्रजों के ज़माने के बड़े-बड़े बंगले आज भी मौजूद हैं और उन्ही में से एक हरी का भी है, जो उनके दादा को ब्रिटिश शासन में हाई कोर्ट के जज की हैसियत से मिला था और फिर उन्ही के नाम अलोट कर दिया गया. जब रामलाल ने उनके बंगले में प्रवेश किया तो बचपन और जवानी के दिनों की बहुत सारी यादें कौंध गई. हाँ...उन्हें थोडा परिवर्तन दिखाई दिया. बंगला को रिनोवेट कर थोडा आधुनिक रूप दिया गया था. वे लोग बाहर लॉन में बैठ गए. उन्होंने काफी सालों के बाद यहाँ कदम रखा था. बचपन और कॉलेज दोनों ने साथ-साथ किया था और दोनों का लगभग एक दूसरे के घर आना-जाना प्रायः लगा ही रहता था.
रामलाल के पिता पंडित रामासरे पंडिताई करते थे, वहीँ हरिओम के पिता हाई कोर्ट जबलपुर में जज थे. रामलाल का घर बड़ी ओमती में था, जोकि जबलपुर का बेहद पुराना इलाका है. ये छोटी-छोटी तंग संकरी गलियों में आबाद मोहल्ला है. जिसमें एक पुश्तैनी हवेलीनुमा घर रामलाल का भी है. पिता और उसके पहले दादा-परदादा ने पंडिताई का पुश्तैनी धंधा जीवित रखा और बड़ी ओमती में तिवारी पंडित का घर किसी से भी पूछ लिया जाये तो कोई भी उनका हाथ पकड़कर उनकी हवेली के बड़े दरवाजे पर छोड़ आता था. पंडिताई का धंधा रामलाल तक आते –आते ख़त्म हो जाता यदि उनके बड़े भाई रामस्वरूप उसपर काबिज न होता. कॉलेज जाने और उस समय के पश्चिम बंगाल में चले नक्सलवाड़ी आन्दोलन के समाजवादी विचारों का प्रभाव ये पड़ा कि रामलाल ने अपने पुश्तैनी धंधे को अलविदा कहा, गनीमत ये रही कि वे उक्त आन्दोलन का हिस्सा नहीं बने, पर... उन्होंने अध्यापक बनने का फैसला किया. पिताजी ने नालायक, कुलकलंक जैसे न जाने कितने विभूषणों से नवाजा पर वे टस से मस नहीं हुए. उसी जोश
में उन्होंने एम.ऐ. हिंदी प्रथम श्रेणी में कर लिया और उसी दौरान न जाने क्या सूझी कि राज्य प्रशासकीय परीक्षा में बैठ गए और पहली बार में ही उतीर्ण डिप्टी कलेक्टर बन खानदान का नाम भी रौशन कर दिया. उनकी पहली पोस्टिंग सागर में हुई और वे फिर 30-32 सालों तक जबलपुर के बाहर ही रहे. केवल तीज-त्यौहारों पर ही घर आना होता था और तभी वे जी भरकर मेहमानवाजी का लुत्फ़ अवश्य उठाते थे. समय पर प्रभा से विवाह हुआ और वे एक अच्छी पत्नी व बहु साबित हुईं. पर दोनों संतान सुख से वंचित रहे पर उन्होंने उस कमी को भी समय पर दूर कर लिया. अपने एक रिश्तेदार के पुत्र को गोद लेकर अपने उस सुख को भी पूर्ण कर लिया. लेपालक पुत्र का लालन-पालन बड़े यत्न से किया. उच्च शिक्षित अ उच्च पदस्थ पुत्र राहुल आज्ञाकारी व स्नेही निकला और उन्होंने उसकी पसंद की लड़की से उसका विवाह किया. पति-पत्नी दोनों रिटायर्मेंट के बाद अपने पुत्र राहुल के पास आकर रहने लगे. नौकरी के दौरान ही उन्होंने कटंगा में अपने लिए एक डबल स्टोरी तीन बेडरूम वाला मकान बनवा लिया था. जिसमें उनका पुत्र राहुल रह रहा था. पाँच साल किस तरह हँसते-खेलते गुजर गए पता ही नहीं चला, पर एक रात प्रभा सोई तो सुबह चिरनिद्रा में मिली और रामलाल का 40 -42 वर्षों का साथ छूट गया और साथ ही कुछ ही दिनों में उनकी जिंदगी में बहुत कुछ बदल जाने वाला था, वे स्वयं ये भी नहीं जानते थे.
धीरे-धीरे राहुल की पत्नी सुमेधा का रवैया उनके प्रति लापरवाह और रुखा हो चला था. रामलाल वैसे भी कम बोलते थे और बेटे से तो बहु के व्यवहार के विषय में मौन ही साधे रहते थे. अब तो आलम ये था कि राहुल के वास्तविक माता-पिता भी आकर डेरा डालने लगे. वे कई कई दिनों तक रहते और सुमेधा के कान भरने लगे. जैसे की कहा जाता है कि एक झूठ को अगर 10 बार बोला जाये तो वह सच लगने लगता है. वैसा ही कुछ राहुल के साथ भी हुआ. अपने माता-पिता द्वारा रामलाल के प्रति अनर्गल प्रलाप को वह भी सच मन बैठा, जिसका परिणाम ये हुआ कि राहुल की उपेक्षा से वे अपने ही घर में पराये होते चले गए. बेटे-बहु और पोते-पोती की बदमिजाजियों ने उन्हें अपने आप में ही सिमटने को विवश कर दिया. अब ये हाल हो गया था कि उनका खाना-पीना उनके कमरे में ही पहुंचा दिया जाता .एक तरह से वे अपने ही घर में निर्वासित जीवन व्यतीत करने लगे. उनका पूरे घर में प्रवेश वर्जित कर दिया गया. घर के गैराज वाले हिस्से को कमरे की शक्ल दी गई थी और एक दिन उनका बिस्तर वही स्थानांतरित कर दिया गया.
हालात तो यहाँ तक आ गए थे कि राहुल के माता-पिता स्थायी रूप से उसके साथ आकर रहे लगे. रामलाल की दुश्वारियां और भी बढ़ गई थीं. वे राहुल को उकसाने लगे कि वह मकान अपने नाम करवा ले. और वो रामलाल पर इस बात का दवाब बनाने लगा. हद तो तब हुई जब उसने उन्हें जान से मारने की कोशिश की ताकि वे घर छोड़कर चले जाएँ. पर किसी तरह से पुलिस सहायता प्राप्त कर वे बचे और अभी भी अपने घर के गैराज वाले हिस्से में रह रहे थे. सुमेधा ने उन्हें खाना देना भी बंद कर दिया था, वे होटल का खाना खाकर गुजारा कर रहे थे, पर उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता था.
रामलाल अपने अतीत में इसी तरह विचरण करते रहते यदि हरिओम उन्हें आवाज देकर वर्तमान में नहीं लौटते.
“ कौन सी दुनिया में खोये हो...यार! चाय तैयार हो गई है.”
रामलाल ने देखा उनके सामने हरिओम की पत्नी सरला चाय का कप लिए खड़ी है. वे थोड़ा शर्मिंदा से हो जाए हैं.
“ कैसे हैं भाईसाहब आप...? काफी सालों के बाद मिलना हो रहा है...” सरला उनकी ओर चाय का प्याला बढ़ाते हुए बोलीं. प्रत्युतर में वे केवल मुस्करा कर रह गए.
चाय पीने के बाद वे चलने को उद्धत हुए तो हरी उनसे रुकने के लिए इसरार करने लगे. पर वे घर में सबके इंतजार करने की बात कह उठ खड़े हुए. हरी ने उन्हें घर तक छोड़ आने की पेशकश की तो उन्होंने कटंगा नजदीक है कहकर टाल दिया, और जब उन्होंने रामलाल के घर का पता पूछा तो उन्होंने अचानक ही घबराकर कहा कि वे स्वयं ही आकर मिल लिया करेंगे. हरिओम भांप गए कि कुछ बात अवश्य है- आखिकार वे जज रह चुके थे. उन्होंने जिद कर रामलाल से घर का पता ले लिया. उन्होंने बात की तह तक जाने का निश्चय कर लिया था.
उधर रामलाल जब समय पर घर नहीं पहुंचे तो भी किसी को कोई फर्क नहीं पड़ा. उलटे राहुल के माता-पिता सोच कर खुश हो रहे थे कि बूढा कहीं मर खप गया होगा, पर सब चिंतित दिखने का नाटक कर रहे थे , क्योंकि पुलिस उन्हें वार्निंग देकर गई थी. अब वे रामलाल के खिलाफ कुछ करने की सोच भी नहीं सकते थे अलबत्ता उन्हें प्रताड़ित करने का कोई भी मौका नहीं छोड़ते थे, क्योंकि उनका सोचना था कि वे एक न एक दिन तंग आकर घर छोड़ कर स्वयं ही चले जायेंगे और उस दिन का उन्हें बेसब्री से इंतजार था.
ओम से मुलाकात के बाद रामलाल ने उनसे मिलने की चेष्टा ये सोचकर नहीं की कि कहीं ओम उनके घर तक न आ जाये. पर काफी दिनों तक न आने से हरिओम फिक्रमंद हो गए और उन्होंने रामलाल के घर जाने की ठानी. शाम को वे रामलाल के घर ऐसे समय पहुचें जब सुमेधा और राहुल अपने माता-पिता के साथ उन्हें घर से निकलने के लिए प्रताड़ित करने में लगे थे. उन्होंने जैसे ही डोरबैल बजाने के लिए हाथ बढ़ाया, तो एक कमरे से कई लोगों के ऊँची आवाज में चिल्लाने की आवाज आती सुनाई दी. वे चुपचाप गेट खोलकर अंदर दाखिल हो गए और रामलाल के कमरे के बाहर खड़े होकर अन्दर चल रहे वार्तालाप को सुनने लगे. राहुल रामलाल को धमका रहा था कि वे चुपचाप घर उसके नाम कर दें अन्यथा उन्हें घर में कैद कर दिया जायेगा और धीरे-धीरे उन्हें इस तरह से प्रताड़ित करेंगे कि उन्हें एकदिन आराम से पागल घोषित करवा देंगे और छत से धकेलकर लोंगों को ये बता देंगे कि उन्होंने स्वयं पागलपन में ख़ुदकुशी कर ली. हरिओम ये बातें सुन रहे थे और उन्होंने उसे अपने मोबाइल में रिकॉर्ड भी कर लिया.
वे धीरे से कमरे में दाखिल हुए तो रामलाल हडबडाकर उठ बैठे,” अरे... हरिओम ! तुम कब आये...?”
“ अभी-अभी जब तुम्हे ये मिलकर धमका रहे थे...” कड़वाहट भरे स्वर में वे बोले.
“ अरे नहीं नहीं ...! ऐसा कुछ भी नहीं है .” रामलाल अन्यमनस्क होकर बोले.
“तुम अभी चलो मेरे साथ. मै...सब कुछ सुन चुका हूँ. और मेरे पास इसकी रिकॉर्डिंग भी है.” फिर कुछ रूककर ओम बोले,” तभी तुम मुझे उस दिन अपने घर का पता देने से कतरा रहे थे...”
“ अरे...यार किस घर में खटपट नहीं होती...?” रामलाल ने सफाई देनी चाही.
“ ऐसी कोई बात नहीं अंकल ...! हम तो पापा से...” राहुल कुछ और भी कहना चाहता था पर हरिओम ने उसकी बात कट दी, “ तुम तो रहने दो..., मैंने अपने कानों से सुना है. पता चल गया है तुम कैसे बेटे हो.”
हरिओम रामलाल को समझा बुझाकर अपने साथ ले आये, पर वे हरिओम के घर नहीं गए तब हरिओम रामलाल को एक वृद्धआश्रम में छोड़ देते हैं और उनके ठहरने का इंतजाम करते हैं. रामलाल के पास रुपये-पैसे की कमी नहीं है पर वे बुढ़ापे में इस तरह वृद्धआश्रम में रहेंगे, उन्होंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था. उन्हें अपना घर- परिवार होते हुए भी दर-दर भटकना पड़ रहा था.
हरिओम अब रामलाल को समझाते हैं कि अपने लेपालक बेटे को अपनी जायदाद से बेदखल कर दे, पर उनके संस्कार उन्हें इस बात की इजाजत नहीं देते. न जाने कैसे राहुल को उनके रहने की जगह का पता चल जाता है, वो वहीँ पहुँचकर उन्हें लोगों के सामने बेइज्जत करता है और ये जताने की कोशिश करता है कि वे पागल हो गए हैं और वो उनकी देखभाल के लिए घर ले जाना चाहता है. वो उन्हें जबरन वापिस घर ले आता है और गैराज वाले कमरे में कैद कर देता है. अब वो रामलाल को और भी अधिक तंग करने लगता है पर ओम को किसी तरह से पता चल जाता है और वो उन्हें अपने घर ले आते हैं. वे रामलाल को समझाते हैं कि ऐसे नालायक बेटे को जायदाद से बेदखल नहीं करेंगे तो उसको उसके किये की सजा नहीं मिलेगी और वो उनको नुकसान पहुँचाने की फिर से कोशिश कर सकता है. अब वे ओम की बात को अच्छी तरह से समझ जाते हैं और उसे उसके परिवार सहित अपनी संपत्ति और मकान से बेदखल कर देते हैं.
रामलाल आज अपने घर “जानकी सदन” में बैठे अपनी पिछली जिंदगी के बारे में सोचते हुए उन्हें एक बार वास्तव में लगा था कि शायद वे कभी भी उस घर को दुबारा पा भी सकेंगे या नहीं. वे manमन ही maमन हरिओम को धन्यवाद कर रहे थे जिसने उन्हें उनके लेपालक बेटे के चक्रव्यूह से बाहर निकाला था, अन्यथा वे न घर के रहते न घाट के. आज वे शायद महीनों बाद इत्मिनान से हाथ में अख़बार लेकर पढ़ रहे थे. उन्होंने घर के काम के लिए एक बाई और खाना बनाने वाला रख लिया था. अखबार के रविवारीय संस्करण पर वे गाहे-बगाहे निगाह डाल रहे थे पर manमन अतीत की गलियों में ही भटक रहा था. वे अपने विचारों की गंगा में न जाने का तक यूँ ही डूबते उतरते रहते कि अचानक उनकी दृष्टि के लेख के शीर्षक पर जाकर ठहर गई. लेख का शीर्षक था, “ 60 के पार : दूसरी पारी के लिए हों तैयार “. शीर्षक उन्हें काफी दिलचस्प लगा. उन्होंने लेख पढ़ना शुरू किया और वे उसमें डूबते चले गए. उन्हें लग रहा था मानों लेखक ने उन्हें ही लक्ष्य कर के लेख लिखा था. वे लेख पढ़कर उन्हें आश्चर्य हुआ कि लेखक कैसे उनकी मानसिकता को भांप गया ?
भारत में रिटायर व्यक्ति यही सोचता है कि उसने अपनी जिंदगी में काफी कमा लिया, बहुत काम कर लिया और अब आराम करने के दिन आ गए. पेंशन के सहारे जिंदगी आराम से कट जाएगी. एक तरह से 30-35 साल व्यस्तता से लबालब जिंदगी गुजरने के बाद अचानक से जैसे चलती गाड़ी को ब्रेक लग जाता है वैस कि कुछ रिटायर व्यक्ति का हाल होता है. रिटायरमेंट के बाद के कुछ दिन तो आराम से कट जाते हैं पर जैसे-जैसे समय गुजरता जाता है वक्त काटना मुश्किल लगने लगता है पर रिटायर्मेंट के बाद पेंशन के सहारे जिंदगी गुजारने की मानसिकता के चलते वे इस बात को मानना ही नहीं चाहते कि चलते रहने का नाम ही जिंदगी है. दिन भर खाली बैठने से जिंदगी में भी खालीपन भरता जाता है और उसे भरने के लिए घर के दूसरे सदस्यों की दिनचर्या की ओर ध्यान देने लगते हैं, परिणाम स्वरुप वे उनके कामों में अनचाहे ही दखल देना शुरू कर देते हैं. और वे गाहे-बगाहे उन्हें बिना मांगे ही सलाह देने या उनके कामों में मीनमेख निकालने लगते हैं. धीरे-धीरे घर के सदस्य उनकी बातों की अनदेखी करना शुरू कर देते हैं और इसे वे अपनी उपेक्षा के रूप में लेने लगते हैं. उन्हें लगने लगता है कि वे अभी तक घर में कमाकर लाते थे तो उनकी पूछ-परख होती थी और अब अब जब कोई काम नहीं है तो उनकी उपेक्षा की जा रही है.उन्हें परिवार के लोग स्वार्थी और मतलबपरस्त लगने लगते हैं. धीरे -धीरे वे अपनी सोच में धिरने लगते हैं और हीनता के शिकार हो जाते हैं. इस उम्र में इस विचार के साथ व्यक्ति डिप्रेशन में भी जा सकता है. लेख का सार यही था कि व्यक्ति रिटायर होने के बाद के जीवन कि तैयारी नहीं करता है तो उसे ऐसी परिस्थितयों का सामना करना पड़ जाता है. वास्तव में नौकरी से रिटायर्मेंट का मतलब जीवन की व्यस्तता से रिटायर होना नहीं होता बल्कि जीवन को एक और सार्थक काम में लगाना होता है. सच तो यह है कि रिटायरमेंट के बाद की जिंदगी के बारे में एक पूर्वनिश्चित सोच के कारण ही व्यक्ति एकदम से जीवन में समय के कारण उभरे खालीपन के साथ तालमेल नहीं बैठा पाता और उसे समझ नहीं आता कि वह अब क्या करे...? उसके जीवन में एक खालीपन भर जाता है और ये उसकी खुद की ही उपजाई समस्या है.
रामलाल जैसे-जैसे लेख पढ़ते जा रहे थे तो उनके सामने मानों बहुत समय से बंद पड़ी खिड़कियाँ एक-एक कर खुलने लगी. उन्हें स्वयं ही लगने लगा कि वे अब तक कितनी नादानी कर रहे थे. लेख पढ़कर वे अखबार फोल्ड कर रहे थे, तब उनके चहरे पर एक ख़ुशी चमक रही थी, ऐसा लग रहा था कि उन्हें अपने जीने का उद्देश्य मिल गया हो. वे मन ही मन किसी निश्चय पर पहुंच चुके थे. अचानक से उन्हें लगने लगा था कि अभी बहुत कुछ करना बाकि है. वे एक नए उत्साह से अपने बारे में सोचने लगे. उनके कदम अपने स्टोर रूम की ओर स्वयं ही बढ़ चले. गोपाल जो उनका खाना बनता था और भी घर के काम किया करता था, ने उन्हें स्टोर रुम कि तरफ जाते देखा तो आश्चर्य में पड़ गया. वो भी ऊनके पीछे चल पड़ा. बहुत दिनों के बाद स्टोर रूम खुला था और उसमें धूल-धक्कड़ भी हो रही थी. दरवाजा खुलने के साथ ही सीलन कि गंध बाहर तक आने लगी. वे रूम के अन्दर खड़े नहीं हो पाए, उन्हें खांसी आने लगी. गोपाल उनके पीछे लपका और कहा, “ काका...! आप बाहर आ जाएँ, क्या चाहिए....? मैं निकाल देता हूँ”. उन्होंने उससे स्टोर रूम साफ़ करने को कहा. रूम साफ़ हो जाने के बाद उन्होंने एक बंद संदूक खोकर कुछ फाइलें निकालीं और बहार लॉन में पड़ी कुर्सी पर बैठकर उन्हें देखने लगे. ये उनकी स्केच फाइल थीं. नौकरी पर जब वे नए नए लगे थे तो उनका ये शौक परवान चढ़ने लगा था. वे बहुत अच्छे लैंडस्केप बनाते थे जो कि पेन्सिल से बनाना बेहद मुश्किल था. उन्हें लगा अब इस शौक को ही क्यों न पूरा किया जाये. वे जल्दी ही बाजार से ड्राइंग शीट्स और एच और बी सीरिस कि ब्लैक पेन्सिलें ले आये. अब वे थे उनका समय था और उनका स्केचिंग आर्ट. उनके इस आर्ट का कुछ प्रचार गोपाल ने कर दिया जो शाम के समय कॉलोनी के अपने जैसे कुछ नौकरों के साथ मिल बैठा करता था. अब आस-पड़ोस के बच्चे भी उनसे सिखने आने लगे और उनके दादा-दादी और नाना-नानी जो उनके जैसे रिटायर्ड लोग थे और कुछ शौंक भी रखते थे उनके साथ आ मिले. रामलालजी जो अकेले चले थे अपनी राह पर उनके साथ धीरे-धीरे उनके जैसे लोंगों का कारवां बनता चला गया. ओम को जब पता चला तो वे भी पीछे नहीं रहे. उनका भी गाने का पुराना इश्क जोर मारने लगा और उन्होंने भी अपना ग्रुप बना लिया. अब सबने यही मिल कर तय किया कि इन सब प्रयासों को कोई नाम दिया जाए. इस तरह “सृजन” नाम की संस्था की नींव पड़ी और “जानकी सदन” उसका ऑफिस और वर्कशॉप में बदल दिया गया. अगले 2-3 साल बीतते न बीतते रामलालजी अपनी 4-5 प्रदर्शनियाँ राष्ट्रीय स्तर पर लगा चुके थे. “सृजन” संस्था से सीख कर निकले कुछ बच्चे अपने-अपने कला के क्षेत्र में काफी नाम कम रहे थे.
रामलाल जी आज काफी दिनों के बाद आराम से सुबह की चाय की चुस्कियां ले रहे थे कि तभी कुछ डरता-सहमता गोपाल उनके पास आया और उसने अपने दोनों हाथों को पीछे कर रखा था. रामलाल का ध्यान उसकी ओर चला गया. उन्होंने उससे पूछा कि पीछे क्या छुपा रखा है...? तो प्रत्युतर में वह कुछ न बोल सका, फिर उनके जोर देने पर उसने अपने हाथ सामने किये तो उसके हाथों में एक सफ़ेद कागज था जो उसने धीरे से उनके हाथ में रख दिया और तेजी से सामने से हट गया. रामलाल जी ने वो कागज खोला तो वे देख कर दंग रह गए वो उनका पेन्सिल स्केच था. ऐसा लग रहा था कि रामलाल कागज में जीवन्त हो उठे हों. उन्होंने आवाज देकर गोपाल को पास बुलाया और पूछा कि ये स्केच किसने बनाया है तो उसने कहा ‘मैंने’. सुनकर वे दंग रह गए. एक होनहार चित्रकार उनके घर में था और उन्हें ही नहीं पता था. वे उससे बोले कि आज से घर का कोई भी काम वो नहीं करेगा. ये सुनकर वो घबराकर रोने लगा कि उसकी नौकरी चली जाएगी. ये सुनकर रामलाल जी हंस पड़े और कहा, “ पगले ...! अब मै तुझे सिखाऊंगा और अब तू घर का कोई भी काम नहीं करेगा, सिर्फ स्केचिंग सीखेगा. तेरे जैसे होनहार की कला यूँ जाया नहीं जाने दूंगा, मेरे बाद तू सृजन संस्था को जीवित रखेगा”. गोपाल को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ. रामलाल जी ने उसे तैयार होकर बाजार चलने को कहा. और उनकी अब एक और यात्रा प्रारंभ हो चुकी थी.