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anita rashmi

Drama

4.8  

anita rashmi

Drama

कहानी - फैसला

कहानी - फैसला

12 mins
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24 जनवरी

सजा

आज मैंने एक अजीब से केस का फैसला सुनाया। गवाहों के बयान ने केस को इस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया कि मुझे फैसला देना पड़ा। हालांकि यह बहुत कठिन था। फिर भी मैंने दिया। हैंग टिल डेथ।

फैसला सुनाते ही मैंने पेन की नींब तोड़ डाली। किसी और को फाँसी की सजा न देनी पड़े, इसलिए कलम तो तोड़ दी, पर बात खत्म कहाँ हुई। सबके लिए बात खत्म, मेरे लिए शुरू।

मैं निरंतर फाँसी की सजा के खिलाफ आवाज़ उठाने की सोचता रहा हूँ। मेरा मानना है, हम जीवन दे नहीं सकते, फिर ले कैसे सकते हैं । - ये मेरे अल्फा़ज नहीं, मेरे दिवंगत बेटे अमन के हैं।

वह भी जज था। एन. एच. 33 में हुए भयंकर एक्सीडेंट ने उसे हमसे छीन लिया। वह कार में था और अनियंत्रित हाइवा ने उसे सामने से टक्कर मारी थी। रफ्तार के शौकीन युवाओं की तरह वह भी हवा से बातें कर रहा था। लेकिन बातें वह गंभीर किया करता था।

मैंने अपने लंबे कैरियर में पहले भी तीन - चार बार फाँसी की सजा सुनाई है। हत्यारों को यह दंड दिया। लेकिन इस बार इतनी बेचैनी क्यों? क्या सिर्फ अमन के कारण, उसकी विचारधारा के कारण? हालांकि अब काफी कम मृत्यु दंड मिलता है फिर भी वह कहता, किसे मौत मिलती है पापा? अपराधी को या उसके घरवालों को?

16 मार्च

बेचैनी

बढ़ती जा रही। उस हत्यारे की बातें, हाथ, चेहरा, आँखों के सामने अक्सर आ जाते रहे हैं। मैं सर झटक कर एक बार में उसे परे कर देना चाहता हूँ। वह बेताल की तरह मुझ पर सवार है।

याद आता है, उसका हाथ झटकना। उसका इकबाले ज़ुर्म, गवाहों का बयान, परिस्थितियों का दबाव और वकील की ज़िरह ने उसे फाँसी के तख़्ते तक पहुँचा दिया। पर मैं क्यों इतना बेचैन हूँ?

मेरा काम हत्यारे - अपराधी को मात्र दंड देने का है ना। मैं न्याय व्यवस्था का अदना सिपाही मात्र हूँ। मुझे अपने कर्त्तव्य को सही ढंग से अंजाम देना था। फिर यह सही- गलत का द्वंद मन की विकलता क्यों बढ़ा रहा है? इतने दिन गुजर गए, बेचैनी घटने का नाम ही नहीं ले रही।

कुछ है, जो कचोट बन सीने में जमा है..अबूझ, अनजाना सा। मैं मशीन था। अब मशीन से आदमी में क्यों बदल रहा हूँ? फैसला देने के बाद मशीन के अंदर एक तिकोना कोना बन गया है। मेरे ही फैसले ने यह क्या अनर्थ कर डाला? इस लाल तिकोने में बारंबार सुई चुभोने पर भी यह पिचकता नहीं।

18 जून

चित्कार

लंबी जिरह के बाद चुपचाप खडा़ रहनेवाला संज्ञाशून्य हत्यारा चीखा था - हाँ! मैं हत्यारा हूँ।... मैंने अपनी दो बेटी, चार बेटे को मार डाला। मैंने उस बनिये के बच्चे को भी मार दिया , जिसने एक पाव चावल देने से मना कर दिया था।

सर झुका हर अपराध स्वीकारता सा दिखलाई पड़नेवाला वह उस दिन नकारता सा लगा।

- मैं पढ़ा - लिखा आदमी हूँ हुजूर। मैं इंटर पास। कहीं नौकरी नहीं लगी, तो पुश्तैनी धंधा अपना लिया। मैं जगह - जगह घूम कर तमाशा दिखलाता था। मेरी वाइड और बच्चे साथ रहते थे। पहले बचपन में अपने पिताजी का कमाऊ पूत था,अब मेरे बच्चे बड़े हो गए थे ।

वह साँस लेने के लिए रुका। एकटक मेरी ओर देखते हुए कहने लगा, - मेरा यह नन्हां बेटा, जो मेरी वाइफ की गोद में किलकारी मार रहा है, वह सबसे बड़ा कमाऊ पूत है। इसे जब हम फटे चिथड़े में लपेट चारों ओर गोलाकार घुमाते, खूब तालियाँ बजतीं।

खूब शोर मचता। फिर साँस रोक कर देखने, आन्नद लेनेवाले सब लोग खुशी से पैसे उछाल देते।

गोरी, पर मैल से काली माँ की गोद में गोरा -चिट्टा, मैल से काला बच्चा किलकारी मार रहा था। मैंने एक निगाह डाली। उसकी पत्नी सहमी - सिकुड़ी बैठी थी। उसकी आवाज़ धीमी हो गई थी।

- तब पैसे की खनखनाहट सबसे ज्यादा होती और हम रोटियों के टुकड़े गिनने लगते। साथ ही अपने इन पिल्लों के सर भी। बेटी बाँसों की कैंची के ऊपर पतली रस्सी पर चक्के के सहारे चलते हुए सबकी साँस को सांसत में डाल देती। हम तब भी खनखनाते सिक्के और रोटी के गणित में उलझे होते।

- जब मेरा दो साल का राजू रोटी के लिए रोता, मैं उसके गले में रंग लगा, मैला कपड़ा ओढ़ा लोगों को डराता कि रूपये, पैसे, चावल, आटा, रोटी कुछ भी घर से लाकर दो, नहीं तो तुम्हारे सामने ही इसकी गर्दन रेत दूँगा। ...थोड़ी देर बाद आधी गर्दन लटकती देख बच्चे तो बच्चे, बूढ़े - जवान भी सामान लाने घर की ओर दौड़ पड़ते। फिर वही रोटी और सर का गणित ।

उसने पतले - दुबले, लंबे से आदमी ने चारों ओर सर घुमा कर देखा।

- कभी यह भूखा, तो कभी वह नंगा। उतने पैसे में अँधा ओढ़े क्या, बिछाए क्या? कभी - कभार टी वी में उलझे लोग अपने बच्चों के साथ इस तरह घरों में दुबके रहते कि चिल्लाते -चिल्लाते हलक सूख जाता मेरा, बीवी, बच्चों का। एक माथा भी बाहर नहीं झाँकता।

उसने आह भरी - उस दिन भी पाँच - छः मुहल्ला खँगाल चुका था। चौक, चौराहे की भीड़ को आकर्षित करने की कोशिश भी बेकार हो चली थी। मेरी पुनो बेटी दोनों बाँसों को उठाए - उठाए बेदम हो चुकी थी। मानू बेटा भी बाँसों का बोझ नहीं उठा पा रहा था। एक दिन के भूखे बच्चों का दर्द मुझसे देखा नही जा रहा था। फिर भी चंद सिक्कों और पूरी - आधी रोटी के लिए हम भटक रहे थे।

उसने एक लंबी साँस लेते हुए बीवी की ओर गौर से देख नजरें झुका लीं। सर उठाया तो उसकी भूरी आँखों में आँसू थे। वह ठहर-ठहर कर कहने लगा

- हार कर पुलिया के नीचे बने अपने आशियाने के पास के बनिया की दुकान पर पहुँच गिड़गिड़ा उठा। कभी भीख नहीं मांगी थी हुजूर, बहुत मेहनत लगी। दो छोटे बच्चे माँ की गोद में लुढ़क चुके थे। बेहोशी से निकालने का उपाय बस थोड़ा सा भात या रोटी थी। मैंने बहुत गिड़गिड़ाने के बाद भी उसे पिघलते नहीं देख एक पाव चावल मांगा। उतना भी देने को वह तैयार नहीं हुआ। ऐसी दुत्कार.. ऐसी दुत्कार... जैसे रोड वाले कुत्ते को... पालतू तो बिस्कुट - दूध गोद में बैठ कर खाते हैं।

आँसू गालों पर बहते रहे - मेरी हिम्मत और धीरज जवाब दे गया। एक पाव चावल तो मैं ले कर रहूँगा, मैंने ठान लिया।

उस समय सबके साथ पुलिया के नीचे आकर पसर गया। हाथ में थामे गोलू को चिथड़े से बने टेंट के अंदर लिटाया। कँधे पर बैठी मुनिया पहले ही धीरे से उतर गई थी। एक हाथ से बाएँ कँधे पर लटके चक्के को उतारा। और बगल में बने दो ईंटों के चूल्हे में चैलियों को डाल डेगची चढ़ा पानी उबालने लगा। पत्नी ने चार - छः पड़े उबले आलुओं को जगे बच्चों को खिला दिया।

- मैं रात गहराने का इंतजार कर रहा था। उस दिन खूब बारिस।... झमाझम! उसके चलते ही अँधेरा जल्दी हो गया था। बनिया दुकान बंद कर रहा था, जब में पहुँचा। सड़क सुनसान थी। मैं चक्के को थामे हुए था, जिसके बीच से कूद कर मानू और मुनिया करतब दिखाती थी। मैं फिर गिड़गिड़ाया... फिर - फिर गिड़गिड़ाया , बस! एक पाव चावल... बस एक पाव... अच्छा चलो, आधा पाव...।

वह पीठ देकर रूपये गिनता रहा।

- बच्चों का चेहरा मेरी आँखों के सामने घूमा और मैंने उसके सर पर चक्के से भरपूर वार किया। करता रहा। एक चित्कार के साथ वह ढेर। मैं एक पाव चावल ले कर वापस भागा।

इतना कह कर वह चुप हो गया। मैं उसकी चुप्पी में चित्कार सुनता रहा।

30 नवम्बर

वादा

कल मैं पटना से लौट रहा था। पटना में सम्मेलन में सम्मानित किया गया था मुझे। मैं वहाँ पर वहीं का था। लौटते हुए भी। रास्ते की हरियाली , खूबसूरती में गुम। शहर में प्रवेश करते ही पुलिया के नीचे सुगबुगाते जीवन को देख थोड़ी देर गाड़ी रूकवा दी। पुलिया के नीचे इधर- उधर सोए पड़े लोगों, बगल में पसरे कान - सर खुजाते कुत्तों, बोरासी में श्मशान से लाए गए अधजले कोयलों को तापते लोगों को देखता रहा। पहले कई बार उधर से आना हुआ था। आज पहली बार गौर किया। बोरों पर बिछे लोग पाँव पर पाँव चढ़ा , बेतरतीब सो रहे थे।

पता नहीं क्यों, मुझे उस हत्यारे की याद आ गई। एक दिन इसी पुलिया के नीचे एक चूल्हे पर चढ़ी डेगची में पानी उबल रहा था। एक पाव चावल के लिए छटपटाता हत्यारा बनिये की हत्या कर एक पाव, बस, एक पाव चावल ला चुका था। बच्चे सर पर सवार थे। अब भी, बोझ की तरह। उसने बीन कर लाए गए लकड़ी के चंद भीगे - अधभीगे टुकडों को चूल्हे में फिर झोंका। खौलते पानी में चावल डाल माड़ बनाया। भर डेगची माड़ और उसका पूरा कुनबा भूखा।

उसने खुद हिंडालियम की पिचटी कटोरियों, गिलासों, थालियों में माड़ डाल सबको पकड़ा दिया। सबके साथ खुद भी लोटे में माड़ डाल सुड़प -सुड़प कर पीने लगा। तृप्ति से सबके चेहरे तमतमाने लगे थे। दिन भर की थकान से पस्त सब थोड़ी देर में बेसुध ।

सवेरे की धूप पुलिया से उतरती हुई नीचे आ गई। उससे पहले ही जागनेवालों ने अपना काम शुरू कर दिया था ।

पर पति, पत्नी और नन्हें कमाऊ पूत को छोड़ उसका कोई नहीं जगा। दिन चढ़ता रहा। उसकी सिसकी रुदन से विलाप में बदली। सब सोए ही रहे। वह रात से सोए पड़े जगेसरा को पीट कहता रह गया - कुत्ते के पिल्लों, उठो।... उठो।... उठो। विलाप करते हुए संज्ञाशून्य हो गिर पड़ा। बीवी सर पर दोहत्थड़ मारती रही। उसने अचानक देखा कि उसका पति हाथ में बड़ा सा कागज पकड़े हुए है।

हाथ से छुड़ाया पर अखबार के उस टुकड़े को पढ़ न सकी।भुरभुरा कर गिरते पाऊडर को बस देखती रही। सब के सब अनपढ़। कोई नहीं पढ़ पाया।

उस पर लिखा था - भूख से किसी को मरने नहीं दिया जाएगा।

तारीख थी, 15 अगस्त

अखबार के टुकड़े को पुलिस ने बरामद किया था। पावडर के अंश को फोरैंसिक लैब भेज दिया गया। अखबार के टुकड़े को भी।

मुझे कार में ही याद आया था, एक बार हत्यारा बोला था

- पता नहीं, यह मरदूद कैसे बच गया?

बच्चा किलकारियाँ ले रहा था उस समय और हत्यारा पिता उसे नफ़रत से देख रहा था।

26 जनवरी

नई सदी

करवट बदल चुकी थी। मैं भी उन सबको भूल चुका था। अक्सर बेटे की बात याद आती। परिस्थितिवश उसे इग्नोर करना पड़ता।

एक दिन लाॅन में इजी चेयर पर बैठ ' गली आगे मुड़ती है '

पढ़ रहा था कि गली के मुहाने पर टेर सुनाई दी। चेयर खिसका, आगे झाँका। सामने से एक महिला बच्चे को गोद में लिये हुए आती दिखलाई पड़ी।

उसके कँधे पर साड़ी का एक बड़ा सा झोला, बाएँ हाथ में डमरू था। वह दाहिने हाथ में थाम डमरू बजाने लगी। ठीक गली के पासवाले मैदान के पास। डमरू बजता रहा।

मैंने सोचा, अब वह बड़ी भीड़ के सामने झोले को उतार कर रख देगी और साड़ी से बच्चे को बाँध जोर - जोर से झूला झुलाएगी। या झोले से रंग - चाकू निकाल बच्चे के गले के बीचोंबीच रख चाकूवाला खेल दिखाएगी। या फिर.....।

मुझे बाँस भी दिखाई देने लगा, जिसके सहारे वह झूला झुला सकती है। मुझे यह भी लगा कि झूलते - झूलते बच्चा मर जाएगा।

या माड़ पीकर ही गुजर जाए। मैं अजीब तंद्रिल अवस्था में खड़ा रहा। डमरू बजता रहा। घरों के अंदर टी वी पर समाचार, सास - बहू के बेसिर - पैर के सीरियल, वल्गर नाच-गाने या रियल्टी शो चल रहा था, कोई नहीं निकला ।

कुछ देर बाद वह आगे बढ़ने लगी। थोड़ी देर में ही आँखों से ओझल हो गई। मुझे लगा, कहीं यह वही तो नहीं?

अदालती कार्रवाई , फैसला सबके बीच निर्विकार उसका चेहरा एक बार मेरी ओर घुमा था। ख़ामोश आँखों में ग़ज़ब की खुश्की, उलाहना। सजा दे कर उठते वक्त नज़रें उससे टकराईं थीं। और उस अनपढ़, बेबस, अनाथ की चमकीली आँखों ने जैसे उगला था ....स्पष्ट,

- आप किसे सजा दे रहे हैं हुजूर? उसे या हमें? किसको मौत?

तब से उलाहनों से भरी दो आँखें पीछा नहीं छोड़ रहीं। मेरे पीछे पड़ गईं हैं, डबडबाई आँखें।

मैं अंदर की ओर पलटा। हाथ की किताब नीचे गिर गई। उसे उठा, जल्दी से अंदर चला आया।

डरा, आगे की गली में बढ़ती हुई बेसहारा स्त्री दौड़ कर न आ जाए और पूछ बैठे - किसे सजा दी हुजूर? उसे या हमें? उसे तो मुक्त कर दिया, हमें क्यों नहीं करते?

कब पीछा छूटेगा इन बोलती आँखों से, मैंने सोचा और लाइब्रेरी में आकर बैठ गया। फिर मुझे ' गली आगे मुड़ती है ' में मन नहीं लगा। मुझे गलियों में भटकती, बिखरती वह नज़र आने लगी।

अब मुझे अमन और याद आने लगा था।

एक बार कोर्ट से लौटते ही अमन लिविंग रूम में मुझसे मिलने आ पहुँचा।

आते ही उत्साह से कहा था - पापा! मैंने आज एक व्यक्ति को फाँसी की सजा नहीं दी। आगे का डेट दिया है। कुछ भी सजा दूँगा पर फाँसी नहीं।

दो महीने बाद

एक और फैसला

आज फिर हमारे पाॅश एरिया में एक तमाशेवाली आई थी। अपने तीन बच्चों के साथ। ये इक्के-दुक्के लोग कभी-कभार तमाशे के साजो-समान के साथ आ ही जाते हैं। मैंने खिड़की से देखा और कोई गलती नहीं की। मैं जानता था, इसी से मुझे सुकून मिलेगा। गार्ड मनोज को उसे बुला लाने के लिए फोन कर दिया।

वह सिमटकर खड़ी थी, जब कमरे में पहुँचा। उसके तीनों बच्चे उसका हाथ, कमर पकड़कर खड़े थे। सामान बाहर था।

- सुनो, कल से तुम यहाँ घर का काम सँभालने आ सकती हो। बच्चों की चिंता न करो। वे यहाँ तुम्हारे साथ रह सकते हैं। मैं उन्हें स्कूल भेजूँगा।


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