पीले पत्ते
पीले पत्ते
दरख़्तों के पीले हो चुके पत्ते
होते हैं निरुत्साह, निस्तेज
जैसे सूखे फूलों पर कब भँवरे
प्रेम का गीत सुनाते
नहीं अब मोह
गुनगुनाने का, लहलहाने का
डर है कहीं टूट न जायें
छूट न जाए अपनों से
बिछड़ न जायें शाख़ों से
जैसे उड़ रहीं हों आशाएँ
कसक उठती है बिखर जाने की
जैसे मन हुआ जाए नीरव सा
बिना इन्द्रधनुषी रंगों के गगन सा
जैसे धड़कने भी होती निश्चल सी
एक अनुभूति है
आने वाले हर पल में बेचैनी है
पीले पत्तों की यही नियति है
स्पर्श, स्नेह के अहसास को
जी लेना है, दरख़्त के तले ही
बिछ जाना है
संतुष्टि है
मुकुलित हो रहे पुष्पदल
नव पल्लव ले रहा अंगडा़ई
नित नए घोंसलों से जीवंत है तरुवर
जीवन कहाँ रुका है
किसलय का आना
कुंज का महकना
ही बहारे ज़िंदगी है..!!
