एक कली... बेज़ुबानी...
एक कली... बेज़ुबानी...
खिलती कली एक गुलाब की,
जा मिल बैठी कैसे अंगारों में ?
टूट कर कैसे तन से वो,
बिक बैठी माटी के दामों में ?
ना तूफानों से, ना आँधी से,
ना बारिश की तलवारों से,
ना अंधियारों से डर कर, छिप कर,
ना नटखट तितलियों की हुंकारों से !
ना कंपन थी इस भूमि पर,
ना मेघों में कोई ऐब ही थी;
यूँ तो पर्वत भी अडिग, शांत से थे,
ना आहट ही कोई प्रलय की थी !
आँखों में बस कुछ सपने थे,
साँसों में भार भी शायद उन्हीं का था;
जो पंखुड़ियां शायद बिखर गई यूँ,
हाँ दोष भी शायद, इन्हीं का था !
बगिया का माली तो बस अभागा था,
निश्छल, पवित्र, निवाण था;
तो क्या हुआ जो उसके मन में,
वो कली नहीं उसका कपाल था ?
खिलती कली वो गुलाब की,
झकझोर- सी बैठी अंगारों में,
जिन हाँथों ने सींचा था,
वही बागबान संहारक था !
श्वासों की ही तो बात थी,
बस धड़कन ही तो सुलगानी थी;
कुछ लहू भी बहा तो क्या हुआ ?
वो कली भी तो बेज़ुबानी थी...
वो कली भी तो बेज़ुबानी थी...