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Prapti Sharma

Abstract Drama Tragedy

5.0  

Prapti Sharma

Abstract Drama Tragedy

एक कली... बेज़ुबानी...

एक कली... बेज़ुबानी...

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खिलती कली एक गुलाब की,

जा मिल बैठी कैसे अंगारों में ?

टूट कर कैसे तन से वो,

बिक बैठी माटी के दामों में ?


ना तूफानों से, ना आँधी से,

ना बारिश की तलवारों से,

ना अंधियारों से डर कर, छिप कर,

ना नटखट तितलियों की हुंकारों से !


ना कंपन थी इस भूमि पर,

ना मेघों में कोई ऐब ही थी;

यूँ तो पर्वत भी अडिग, शांत से थे,

ना आहट ही कोई प्रलय की थी !


आँखों में बस कुछ सपने थे,

साँसों में भार भी शायद उन्हीं का था;

जो पंखुड़ियां शायद बिखर गई यूँ,

हाँ दोष भी शायद, इन्हीं का था !


बगिया का माली तो बस अभागा था,

निश्छल, पवित्र, निवाण था;

तो क्या हुआ जो उसके मन में,

वो कली नहीं उसका कपाल था ?


खिलती कली वो गुलाब की,

झकझोर- सी बैठी अंगारों में,

जिन हाँथों ने सींचा था,

वही बागबान संहारक था !


श्वासों की ही तो बात थी,

बस धड़कन ही तो सुलगानी थी;

कुछ लहू भी बहा तो क्या हुआ ?

वो कली भी तो बेज़ुबानी थी...

वो कली भी तो बेज़ुबानी थी...


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