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ज़िंदगी की होड़ और हम।

ज़िंदगी की होड़ और हम।

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 रोजमर्रा की जरूरतों में आजकल सख़्सियत इतनी धुंधली सी होती जा रही है, इतनी की ख़्वाब देखते तो हैं पर महसूस नहीं कर पाते। ज़िंदगी से कहीं ना कहीं हम पीछे छूटते जा रहे हैं वो ख़ूबसूरत हंसी याद है जो ख़ुद-ब-ख़ुद चेहरे पर आ जाया करती थी, याद भी है हमें या शायद नहीं, वो आख़िरी मुलाक़ात भला ख़ुद से कब हुई थी। अब तो चेहरे पर महज़ गुंजाइश ही रह गयी और भी इतनी नकली की हंसी को हँसी में तब्दील कर देती है । अफ़सोस होता है शायद आप लोगों में से कई लोगो को होता होगा, क्योंकि जीने की होड़ में तो सभी हमराही ही हैं, पर दिल से कहिए क्या सच में हम किसी के हमराह बन पाए है; शायद ख़ुद के भी नहीं, बस ज़रूरत और मतलब के मानिन्द रह गए है। सच कह के देखिएगा एक बार कोशिश करिएगा सुकूँ मिलेगा, और ना भी कह पाए तो कोई बात नहीं क्योंकि आईना सिर्फ नक़ल करता है वो हमारा झूठ नहीं दोहराता। जिस राहत कल की जिस जरूरत के लिए हम जिसे दिन ब दिन गवांते जा रहे हैं वो कोई और नहीं बल्कि हम ख़ुद हैं। चलिए हम ये भी मान लें की इंसान से ग़लती तो होती रहती है वो ख़ुदा या भगवान तो नहीं है। पर कब तक ऐसे मुहावरों की हम आड़ लेते रहेंगें। चलो ये भी मान लिए की ये इतना भी आसान नहीं है, कल की ज़रूरत और सहूलियतों के इंतज़ामात में ही हम आज काफ़ी मशगूल हो गए हैं और ये क़िस्सा बस हर रोज़ वही का वही रह जाता है। लेकिन कम छोटी-छोटी खुशियों में हम खुश नहीं रह सकते या बड़ी ख़ुशी के आमद की ख़ातिर हम उसे भी नजरअंदाज कर देंगे एक बार फिर? कब तक हम दूसरों में अपनी ज़रूरत देखते रहेंगे ? हमें पता भी है की हम ख़ुद में ही कितने ज़रूरत-मंद हो चुके है? क्या इसी तरह नकली हँसी ओढ़े हम ज़िंदगी की होड़ में ख़त्म हो जाएँगे?????? 


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