वो पटाखे वाला
वो पटाखे वाला
अभी दिवाली आने में 2 दिन बाकी थे पर मोहल्ले में एक सजीव सी चहल-पहल थी।
बच्चों के स्कूलों की छुट्टियां हो चुकी थी। घरों की साफ़ सफाई की जा रही थी। दीवालों पर लगने वाले पेंट की महक हवा में महसूस की जा सकती थी। सोसाइटी के हर कोनों की सफाई जोर-शोर से चल रही थी। घर के बड़े सफाई में व्यस्त थे और बच्चे पूरा दिन उधम-चौकड़ी करने में। कॉलोनी का कूड़ा उठाने वाली गाड़ी आ चुकी थी और उस दिन कूड़ेदान की रौनक भी देकने लायक थी।
मेरे घर के चौथे माले की खिड़की से सारा नज़ारा किसी सिनेमा के चल चित्र जैसा प्रतीत हो रहा था। एक सी फ्रेम में कई सारे चीजें घटित हो रही थी। चिंटू का क्रिकेट खेलना, कूड़े की गाड़ी का गुज़रना, स्वीटी का छोटे पप्पी के साथ खेलना, और एक पतले व्यक्ति का नुक्कड़ पे एक ही अवस्था में खड़े रहना। दिवाली के दो रोज पहले से ही वो पटाखे वाला वही पे खड़ा था और आज तो दिवाली को बीते 2 दिन हो गए है पर वो पटाखे वाला आज भी वही खड़ा है।
आंखें उसकी भूरी सी है, बदन सूखे ककड़ी के से, नाक पर है उसके ऐनक, कंधे पे एक छोटा थैला, कमीज उसकी ढीले ढाले, चप्पल उसके सिले सिलये। पटाखों की सजावट उसकी किसी अधूरे दुकान सी है। चंद फुलझड़िया, कुछ चर्खियाँ, तीन चार अनार, एक दो राकेट।
सोसाइटी में हर आने जाने वालों से वो आँखों ही आँखों में पूछ लेता है " साहब पटाखे चाहिए क्या " , और बच्चों से तो उसकी आंखें बाकायदा बातें भी करती है।
आज 4 रोज़ हो गए पर वो पटाखे वाला वही खड़ा है। उसके चेहरे पे अब हलकी उदासी देखी जा सकती है। थक कर कभी-कभी वो दीवाल का सहारा लिए वहीं बैठ जाता है। अब बच्चों के भी स्कूल भी खुल गए है। रोड पर २ रात पहले के पटाखे अब भी देखे जा सकते है।
मोहल्ले में दिन के 11 बज रहें है बच्चें स्कूल में है, माता पिता भी अब ऑफिस जा चुके है। अब सोसाइटी में शांति पसरी हुई है, बीच बीच में किसी घर से बर्तन के खनकने की आवाज कानों को अचानक जगा देती है। पर वो पटाखे वाला अब भी वहीं खड़ा है।
लगता है इस बरस उसके पटाखे बिक न सकेंगे और उसे भरी टोकरी और हलके जेब के साथ ही घर को लौटना पड़ेगा।