वो एक दिन
वो एक दिन
छुट्टियों में हम अक़्सर दादा जी के घर जाते थे। कई दिनों वहाँ रहते और खूब मज़े करते। मैं उस वक़्त लगभग दस वर्ष की थी और यूँ ही एक मनमोहक शाम के समय मैं दादा जी के साथ बगीचे में टहल रही थी। वह मौसम रसीली बेरियों का था और यह एक और कारण है, जो मुझे छुट्टीयों में, इन पहाड़ियों के बीच, दादा जी के पास ले आता है। उन ही रसीली बेरियों को, मैं और दादा जी, बड़े मज़े से खा रहे थे। जब तक हम घर पहुँचे, समस्त बेरियाँ समाप्त हो चुकी थी। मैं आखिरी बेरी के बीज को हाथ में थाम, यह विचार कर रही थी कि उसका क्या किया जाए और यही सवाल मैंने दादा जी से पूछ लिया। उन्होंने उत्तर देते हुए कहा,
"वहाँ उस ज़मीन के अंदर डाल दो और देखो, कुदरत का अनोखा करिश्मा"
मैंने दादा जी के उपदेशों का पालन किया और कुछ दिनों तक उसे पानी देती रही। कुछ दिनों पश्चात, मैं उसके बारे में भूल गई; लेकिन वह नहीं भूला था कि उसे बढ़ना है, इसलिए कुछ दिनों पश्चात, मुझे धरती के भीतर से, कुछ हरा बाहर आता नज़र आया। पहले तो मैं यह जानने में असमर्थ थी, कि आखिरकार वह था क्या लेकिन पास से देखने पर मैं यह जान गई थी कि वह एक नन्हा-सा पौधा था। पहाड़ों में होने के कारण उस पौधे को कई चीज़ों से खतरा था, जैसे चरने आने वाली बकरियाँ आदि लेकिन मैंने एवं दादा जी ने उसकी अच्छे से हिफ़ाज़त की, और उसे सुरक्षित रखा।
आज लगभग पाँच वर्ष जो चुके है, जब मैंने बीज बोया और मैं भी तो बड़ी हो गई हूँ। पंद्रह वर्ष की हूँ, थोड़ी और लंबी हो गई हूँ और मेरे साथ-ही-साथ वह पौधा भी।
यूँ ही एक दिन मैं और दादा जी उस पेड़ को देख रहे थे, और यह विचार करे रहे थे, "वह केवल एक बीज था, जब हमने उसे उगाया था। हमने उसे छाँव एवं सुरक्षा प्रदान की, ताकि वह बड़ा हो सके, और अब जब वह बड़ा हो चुका है, तो वो हमारी देखबाल कर रहा है।"