मैं आज पूरी हुई
मैं आज पूरी हुई
मैं उस रास्ते से जा रही थी, उतने में पीछे म से किसी ने आवाज़ दी। आवाज़ उस वृद्धाश्रम से आई थी, जहाँ से सेवा समाप्त करै अभी-अभी प्रस्थान कर रही थी। लेकिन वहाँ के किसी भी व्यक्ति से तो मैं अपरिचित थी, फिर मुझे कौन पुकार था? मैं यह तो नहीं जानती थी; लेकिन वो आवाज़ कुछ जानी-पहचानी-सी प्रतीत हो रही थी, इसलिए मैंने पीछे मुड़कर देखा, और जो दृश्य दिखाई पड़ा, उससे मैं वही जमी रह गई।
वहाँ एक बूढ़े आदमी खड़े थे। उमर हो गई थी उनकी, फिर भी उन्हें पहचानने में मुझे तनिक समय न लगा। मैंने उन्हें जैसे ही देखा, समय ने मुझप्र अपना जादू कर दिया और अतीत के पन्ने मेरे समक्ष खुल गए। वो अतीत, जिसमें कुछ कमी थी, खालीपन था। ऐसा अतीत, जो गुमसुम था, और जहाँ सब कुछ होने के पश्चात भी, ज्ऐसे मेरे पास कुछ भी नहीं था। क्योंकि मेरा सब कुछ तो दादाजी थे। और जब एक दिन दादाजी अचानक गायब हो गए थे, मैंने पूछा था माँ-पिताजी से कि वे कहाँ है, जिसके उत्तर स्वरूप, मैं सिर्फ़ यह ज्ञात कर पाई थी कि वे सदैव के लिए गाँव रहने चले गए थे। इस उत्तर से मैं संतुष्ट तो थी, कि वे सुरक्षित थे; लेकिन उनके बिना मैं सदा अधूरी थी। और आज उन्हें देखकर न जाने कितने खुशी के आँसू बहाए होंगे मैंने।
यह दुनिया भी कितनी अनोखी है न! जिन माता-पिता पर मैंने संपूर्ण जीवन विश्वास किया, जिन्हें मैंने अपना आदर्श माना, उन्होंने ही.....। आज के बाद, दादाजी के अलावा किसी पर भी विश्वास करना मेरे लिए कठिन होनेवाला था। लज्जित थी मैं, कि जिन्होने मेरे माता-पिता का हाथ थामकर उन्हें स्कूल भेजा, हर मोड़ पर उनका साथ दिया, उन्होंने कितनी आसानी से उन्हें वृद्धाश्रम भेजकर उनका हाथ छोड़ दिया।
खै़र आज जैसे मैं परिपूर्ण हुई थी उन्हें पाकर। मैने दौड़कर उन्हें गले लगा लिया, सालों की उनकी कमी, भर दी थी उन्होंने। अब मेरी बारी थी, मैं अपनी और उनके अपने घर की कमी भरूँ।