वो दस का नोट.....
वो दस का नोट.....
जनवरी 1979, दूसरा सप्ताह.....
दिल्ली की ठंड..... दिन में इतनी तो नहीं थी, फिर भी थी, मीठी भी, तीखी भी !!!
शाम के..... कोई चार-सवा चार का वक़्त था।
बहादुर शाह जफर मार्ग, आईटीओ पर द टाइम्स ऑफ इंडिया के ऑफिस की बिल्डिंग का ग्राउंड फ्लोर – लिफ्ट हाल में एक अंधेरे सा, अंधेरा था। दो मरियल सी ट्यूबलाइट, भरपूर रोशनी देने की, नाकाम कोशिश कर रही थी। हाल में, जितनी भी रोशनी आ रही थी, वो केवल प्रवेश द्वार से ही आ रही थी। हम भी हाल का उड़ती निगाहों से अवलोकन करते हुए, दो जंगलों वाली लिफ्ट का इंतजार कर रहे थे। जी हाँ, इस लिफ्ट के जब तक दोनों जंगलों वाले द्वार बंद नही होते थे, ये महारानी अपनी जगह से टस से मस नहीं होती थी। 4 व्यक्तियों से ज्यादा झेल भी नहीं पाती थी।
लिफ्ट के सामने हम दो मूक प्राणी खड़े थे, लिफ्ट के इंतज़ार में। वो चल तो नहीं रही थी, पर आभास हो रहा था, नीचे आएगी ज़रूर। मेरे साथ जो सज्जन खड़े थे, उनका इत्मीनान देख, लग रहा था की, एक अरसे से वो इसी बिल्डिंग में कार्यरत हैं।
बिल्डिंग के प्रवेश द्वार तक पहुंचने के लिए कुछ सीढ़ियां चढ़नी पड़ती थी, लिफ्ट हाल तक पहुंचने के लिये। निगाहें उधर ही लगी थी, क्योंकि रोशनी उधर से ही आ रही थी। क्या देखते हैं कि, एक युवती का पहले चेहरा दिखा, फिर जैसे जैसे वो सीढ़ी चड़ रही थी, धीरे धीरे उनका स्वरूप दिखने लगा और हौले हौले चलते हुए वो भी लिफ्ट के सामने आ कर रूक गयी। लंबी चोटी, सुंदर साड़ी, माथे पर छोटी सी लाल बिंदिया। उसने पहले अपना पर्स संभाला, फिर खुद को और बोली, मुझे Central School/केन्द्रीय विद्यालय के ऑफिस जाना है। मेरे साथ खड़े सज्जन चुप थे, तो हमने कहा हम भी वहीं जा रहे है, आप साथ आ सकती हैं।
इतनी देर में लिफ्ट की रस्सी हिली, कोई चकरी सी घूमी और लिफ्ट धरातल पर आ कर रुक गयी। 4 के बदले 6 व्यक्ति बाहर आये। हमारे देश में भगवान सब जगह सहाई होते हैं।
ख़ैर, लिफ्ट में प्रवेश किया, दूसरी मंज़िल पर हम दोनों उत्तर गये। इधर उधर देख, एक सज्जन से पूछा, Central School, टीचर जॉब के लीये एप्लिकेशन फॉर्म कहाँ मिलेंगे? उन्होंने सामने वाले कमरे का इशारा किया और हम भी उधर बढ़ गये।
बाबू के सामने दोनों पहुँचे।
साथ आयी युवती दस का नोट बाबू के आगे करते हुए बोली - एक फार्म दीजिये।
बाबू: दो रुपये छुट्टा लाइये,
युवती: छुट्टा तो नहीं है,
बाबू: छुट्टा करवा कर लाइये..... कहते हुए मेरी तरफ देखा, सिर हिलाकर पूछा - आपको?
हम बोले, हमें भी 2 फार्म चाहिये। कहते हुए हमने युवती की तरफ देखा। उनके माथे पर आई परेशानी की सिलवटें दिखी।
छुट्टा है..... बाबू कुछ खीज़ कर बोला?
हां है...... कहते हुए हमने युवती की तरफ देख कर कहा.… अभी मैं आपके फार्म के पैसे दे देता हूँ, आप नीचे, बाहर जा, छुट्टा करा कर मुझे दे देना।
युवती थोड़ा सकुचाई लेकिन तब तक हमने 6 रूपये बाबू को देते हुये बोले, इनके फार्म के पैसे भी मैं दे रहा हूँ, आप इनको एक फार्म और मुझे दो फार्म दे दीजिये।
बाबू ने नाम पूछे, रजिस्टर में नोट किए और दोनों को फार्म दे दिए।
युवती की परेशानी कम तो हुई थी, वो थोड़ा मुसकुराई भी और फिर हम उसी लिफ्ट की तरफ बड़ गये। लिफ्ट में आये तो साथ-साथ एक महिला और दो जन और भी आ गये। पाँच जन लिये, लिफ्ट के दोनों जंगले बंद हुए और वो चरमराती इठलाती चल, ग्राउंड फ्लोर आकर रुक गयी।
बाबू ने जो नाम पूछ, रजिस्टर पर लिखा तो हमने जाना की वो बंगाली हैं। जाने क्यौं इस जानकारी से हमारे चेहरे पर एक दबी सी मुस्कान दौड़ गयी।
द टाइम्स ऑफ इंडिया के ऑफिस से बाहर निकले तो सूर्यास्त अपने अंतिम चरण पर था। अब ठंड कुछ ज्यादा मीठी लग रही थी। युवती ने भी अपनी शाल संभाली, सकुचाई सी मेरी तरफ देख कर बोली..... वो आपके पैसे।
मुसकुराते हुए हमने कहा, चाय पीते हैं, पैसे भी छुट्टे हो जायेंगे। वो बोली तो कुछ नहीं, हौले से सर हिला दिया। बस स्टॉप के पीछे ही टी स्टॉल था, दो चाय बोल, मैंने पहली बार उसका चेहरा देखा। सांवला रंग, तीखे नैन-नक्श साड़ी पहने, शाल ओड़े थी। वो भी मेरे को आंक रही थी, हमने भी ये महसूस किया।
उसकी दुविधा दूर करते हुए, हमने अपना नाम, प्रॉफ़ेशन व अता-पता शेयर किया। हमारे बारे में जान कर वो थोड़ा आश्वस्त हुयी और इतनी देर में चाय आ गयी। भाप उठती अदरक वाली चाय के पहले घूंट ने दोनों की मनोदशा को एक सुकून का एहसास दिया। बातों का सिलसिला कुछ और बढ़ा तो वो भी धीरे धीरे अपने बारे में बताने लगी। पता चला की वो दिल्ली पहली बार आई है, आगरा से हैं और किसी महिला कॉलेज में व्याख्याता (Lecturer) हैं। ये भी पता चला की डबल M.A. हैं। जान कर पहले तो हम थोड़ा सहमे, फिर अपने पंजाबी आत्मविश्वास जगा, बातों का सिलसिला आगे बढ़ाया । उन्होंने बताया की इससे पहले वो कभी दिल्ली नहीं आई। हम भी कभी आगरा नहीं गए, जान कर उन्हें भी काफी आश्चर्य हुआ। दोनों अनायास ही मुस्कुराये।
वो डिफेंस कॉलोनी में ठहरी हैं, किसी कज़न के यहां। DTC बस से वो ITO पहुंची थी, काफी धक्का मुक्की खा कर। उन दिनो दिल्ली की बस्सों में काफी भीड़ रहती थी। हमने पूछ ही लिया, आती बार बस में टिकट ली थी तो छुट्टा नहीं मिला? मेरा सवाल सुन वो थोड़ा सकुचाई, फिर बोली, मैं दस का नोट हाथ में दबाये, पिछले दरवाज़े से चढ़ी, आगे बढ़ो, आगे बढ़ो होते होते बस ITO बस स्टॉप पहुँच गयी और ड्राईवर से कन्फ़र्म कर, बिना टिकट ही उत्तर गयी।
बहुत अच्छे..... कह कर उनकी हिम्मत को दाद दी। अब तक चाय भी ख़त्म हो गयी और फिर उन्होंने वही दस का नोट आगे बढ़ाया, टी स्टॉल वाले की तरफ। हमने चाय वाले को घूरा, तो पैसे लेने के लिये आगे बढ़ाया हाथ उसने वापस खींच लिया। एक प्रयास और किया उन्होंने लेकिन, उसने पैसे नहीं लिये। हमने पेमेंट की और पुनः बस स्टॉप की तरफ बड़ गये।
बस स्टॉप पर खड़े हम दोनों चुप-चुप्पी का खेल, खेल रहे थे। चुप तो चुप था ही, पर चुप्पी सब कुछ कह रही थी और सुन भी रही थी। हमने चुप्पी को बगल में सरका कर पूछा अब?
वो मुसकुराती हुई बोली, आप मेरे को बस डिफेंस कॉलोनी वाली बस में बैठा दो, मैं चली जाऊंगी।
मैंने हंस कर बोला....... बिना टिकट..... छुट्टे तो है नहीं अब भी तुम्हारे पास?
पहली बार वो खिलखिला कर हंसी और बोली...... सब आपकी वजह से है, आपने छुट्टे कराने ही नहीं दिये। मैं अभी लेकर आती हूँ।
हमने कहा, छोड़िये...... हमको भी लोधी रोड जाना है, एक मित्र के यहां (मित्र तो वहाँ रहता था, पर जाना है, झूठ था), आपका डिफेंस कॉलोनी का स्टॉप, लोधी रोड से एक स्टॉप आगे है, हम पहले उत्तर जायेंगे, आप अगले स्टॉप पर उतर जाना। प्रस्ताव अच्छा लगा और एक मुस्कान के साथ उसने हामी भर दी। उन्हे आश्वस्त देख, हमें भी अच्छा लगा।
बस आई, हम चढ़े और बस की भीड़ में घिर गये। हमने दो टिकिट डिफेंस कॉलोनी के ही ले लिये और आगे बड़ कर एक साइड पर स्थिर हो गये। इत्तिफ़ाक़ देखिये..... जब तक सीट मिली, लोधी रोड का स्टॉप आने की घोषणा कंडक्टर महोदय ने कर दी। मन कुछ हिचकोले से का खाने लगा और हमें तब पहली बार 'कुछ-कुछ' हुआ। हमने एक बार हिम्मत कर के पूछ ही लिया..... कॉफी पियोगी। कुछ सोच कर उसने पूछा कहां। हमने कहा यहीं लोधी रोड में मार्केट है, आधा घंटा और सही। उसके न कहने से पहले, बस स्टॉप आ गया और हम झटपट बस से उत्तर गये।
कॉफी शॉप का मेरे को कोई भी आइडिया नहीं था लेकिन मार्केट में चले तो कुछ दूर एक रेस्टुरंट मिला, हम अंदर गये और पहली बार आमने सामने इतमीनान से बैठ, एक दूसरे को देखा। ये वो भी समझ गयी थी और हम तो जानते ही थे कि, कॉफी का तो बस बहाना था, असली मक़सद हम दोनों को ही कुछ और वक़्त साथ बिताना था।
वो आध-पौन घंटा, याद तो नहीं क्या, पर बहुत अच्छे से गप शप हुई। वो जितनी सहज़ हुई, हम उतने ही असहज़ हुए। असहज़ इस लिये की वो आगरा, हम दिल्ली, फिर कहां कैसे कब मुलाक़ात होगी, मन सहज़ ही नहीं हो पा रहा था। मेरी मनोदशा वो शायद अच्छे से भांप गयी थी, वो M.A. मनोविज्ञान थी, सो पर्स में से एक कागज़ निकाल, उस पर कुछ लिखा और मेरी तरफ बढ़ा दिया। मन कुछ थमा, रुका, फिर रुक रुक के चला क्योंकि, उस पर उनका नाम पता लिखा था। हमने भी अपना पता तो दिया, पर ऑफिस का। घर पर पत्र आना, उन दिनों, परेशानी खड़ी कर सकता था।
बाहर निकले तो सवा-सात बज चुके थे, उस शाम पहली बार हम दोनों ने हाथ मिलाया, शाम की ठंडक को हाथों की गर्मी ने सहलाया। उसकी मुस्कुराहट काफी कुछ कह रही थी, लेकिन बाहर कोहरा देख, वक़्त की उस शाम की दस्तक से उसका चेहरा पुनः परेशान लुक अख़्तियार कर चुका था। हमने फिर उसे हौसला दिया और बस स्टॉप पर आ गये। हमने कहा, हम घर तक छोड़ देते हैं लेकिन बोली, डिफेंस कॉलोनी बस स्टॉप से उसका घर पास ही है, मैं चली जाऊँगी।
मैंने फिर जानबूझकर हाथ मिलाया और एक रुपये का सिक्का उसकी हथेली में थमा दिया। बस आयी और एक विस्मयी मुस्कान के साथ Bye करते हुये वो बस पर चढ़ गयी। मैंने नीचे से ही बस कंडक्टर को बोला, इन्हें एक टिकट दे कर अगले स्टॉप पर अवश्य उतार देना।
जाती हुई बस को जाता देख, जैसे ही जेब में हाथ डाला तो उसका लिखा कागज़ का पुर्ज़ा मेरे हाथ में आ गया, जिस पर कुछ देर पहले उसके लिखे कुछ करिश्माई शब्द थे। उसका नाम पता। मैं एक बार फिर मुस्कुराया और अपने घर जाने वाली बस के स्टॉप कि तरफ बढ़ गया।
आज, 40 साल से ऊपर हो गये, उसके हाथ का लिखा वो अज़ीम पुर्ज़ा, आज भी मेरे पास है। उस दिन, वो शाम, वो चाय, वो कॉफी, वो साथ बिताया वक़्त, एक चलचित्र सा, मेरे जहन की स्क्रीन पर, फुर्सत के लम्हों में, यदा-कदा यूं ही चल जाते हैं।
ये थी 'वो दस का नोट.....' की छोटी सी कहानी।
