वो भीड़ में से आई थी
वो भीड़ में से आई थी
रात का वक्त था, एक नौजवान अपने २ साथीयों के साथ ट्रैन के इंतज़ार मे था। पसीने की हर एक बुंद चीख कर बोल रही थी की अब कदमो मे इतना दम नहीं की तेरा बोझ उठा सके। ट्रैन मिली पर जगह नहीं, जैसे जिंदगी मिली पर वजह नहीं। वो वहीँ अपने हालातों से थक कर बिखर गया,सफ़र के झटकों से बेखबर, उसे तो यह भी नही पता कि कितनो ने उसे कुचला जैसे एक पल मे वो इंसान से सामान हो गया हो। एकाएक आँख खुली, कोई उस पर चिल्ला रहा था। दरवाज़ा खोला तो लोगो की भीड़ ऐसे दाखिल हुई जैसे स्वर्ग का दरवाज़ा खुल गया हो, और वो बिचारा द्वारपाल सा सबके आगमन पर पुष्प बरसा रहा हो। वो भी उसी भीड़ का हिस्सा थी, पर भीड़ से अलग।वो ऐसी थी मानो आफताब हो,
जिंदगी के हर दर्द का जवाब हो।
उसे जानने के लिए उससे कुछ पुछने की जरुरत न थी,उसका चेहरा बेहिसाब और वो जैसे खुली किताब हो।
वो ठीक सामने थी उसके,और वो एकटक उसे आँखों में भरने मे लगा था। और चंद मिनटों बाद ही वो उतर गई, उसे उतरता देख ऐसा लगा जैसे सूरज दमकने के बाद खो रहा है, वो फिर भी उसी को देख रहा था। जाते-जाते उसने पलट कर देख ही लिया, उसकी आँखें ऐसे समा गई उसकी नजरों में जैसे जंग करा गई हो वो शमशान में।