विजेता

विजेता

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सुशीला गुप्ता, अपने प्रोफेसर पति गुप्ताजी और अपने दोनों बेटों नीरज और सौरभ के साथ पंजाब के जालन्धर शहर में अपने छोटे से घर में बहुत खुश थी। हर रोज़ सुबह नहा धो कर ईश्वर की पूजा आराधना कर वह उस परमपिता परमात्मा का धन्यवाद करती और अपने बच्चों के उज्जवल भविष्य के लिए प्रार्थना करती। उसकी ख़ुशी का ठिकाना न रहा, जब नीरज को इंजीनियरिंग करने के बाद एक अच्छी कम्पनी में नौकरी मिल गई और सौरभ को मेडिकल कालेज में दाखिला मिल गया। उसने और उसके पति प्रोफेसर गुप्ता जी ने मिल कर अपने दोनों बेटों की अच्छी परवरिश की थी और उसी का यह फल था जो आज उसका परिवार सफलता की सीढीयाँ चढ़ रहा था, लेकिन कब अनहोनी ने दबे पाँव उसकी जिंदगी में दस्तक दे दी, जिसकी कभी उसने कल्पना तक नहीं की थी।


अंग्रेजी लिटरेचर के प्रोफेसर गुप्ता जी का दीवाना दिल उनकी ही एक क्रिश्चयन छात्रा तारा पर आ गया, उनके बीच की दूरियाँ कब नजदीकियों में बदल गई, किसी को भी इसकी भनक तक नहीं पड़ी। जिस दिन दोनों ने चर्च में जा कर शादी कर ली, तब यह खबर आग की तरह पूरे शहर में फैल गई और उड़ते उड़ते सुशीला और उसके बेटों के कानो में पड़ी। क्रोध के मारे नीरज और सौरभ का खून खौल उठा और सुशीला पर तो जैसे बिजली गिर पड़ी उस दिन उसे पहली बार अपनी हार का अहसास हुआ और उस क्रिश्चयन लड़की की जीत का, जो न जाने क्यों और कहाँ से उसकी जिंदगी बर्बाद करने, उसके और गुप्ता जी के बीच आ गई थी।


सुशीला, नीरज और सौरभ सहित उनके रिश्तेदारों ने प्रोफेसर साहब को बहुत समझाने की कोशिश की, लेकिन सब बेकार गुप्ता जी तारा के इश्क में इस कदर पागल हो चुके थे कि उन्होंने घर छोड़ दिया, परन्तु उसका साथ नहीं छोड़ा और उस दिन के बाद से गुप्ता जी गुप्तारा के नाम से मशहूर हो गए। सुशीला अपनी नीरस जिंदगी में सदा पराजय की भावना लिए अपने बच्चों के साथ, उनकी ख़ुशी में ही अपनी ख़ुशी ढूंढने की कोशिश में लगी रहती। उधर अधेड़ उम्र के गुप्ता जी को भी तारा का साथ ज्यादा दिन नसीब न हो सका और एक दिन दिल का दौरा पड़ने पर वह इस दुनिया को छोड़ कर उपर चले गए। तारा के सारे रिश्तेदार, दोस्त उसके पार्थिव शरीर को दफ़नाने की तैयारी में जुट गए। सुशीला को जैसे ही अपने पति की मौत का पता चला तो वह भी अपने रिश्तेदारों को इकट्ठा कर गुप्ता जी के पार्थिव शरीर को लेने वहां पहुँच गई, और हिन्दू धर्म की दुहाई देते हुए, तारा एवं उसके रिश्तेदारों को बताया कि गुप्ता जी के अंतिम संस्कार करने का अधिकार केवल उसके बड़े बेटे नीरज का ही है।


गुप्ताजी के पार्थिव शरीर को ले कर पादरियों और पंडितों के बीच ज़ोरदार बहस छिड़ गईईसाई दफनाना चाहते थे और हिन्दू उनके पार्थिव शरीर को जलाना चाहते थे। आख़िरकार फैसला हो गया, पहले गुप्तारा को ताबूत में डाल कर ईसाई धर्म के अनुसार दफनाया गया फिर ताबूत को मिटटी से खोद कर बाहर निकाला गया, उसके बाद गुप्ता जी के पार्थिव शरीर को श्मशानघाट ले जाया गया और उनके बेटे नीरज ने अपने पिता की चिता को अग्नि दे कर बेटे होने का कर्तव्य निभाया। आँखों में आंसू लिए जलती चिता की ओर लगातार निहारते हुए विजेता बनी सुशीला को मन ही मन अपनी जीत पर गर्व हो रहा था।



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