वड़वानल - 40

वड़वानल - 40

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रात के खाने के समय परिस्थिति का जायजा लेने के लिए दास और यादव फिर से वापस आये।    

''Bravo, Guru ! अरे मेस में आज हमेशा जैसी भीड़ नहीं है। ड्यूटी कुक हुए ब्रेड के बचे टुकड़े लेकर आये हुए सैनिकों को आग्रह कर करके खिला रहे हैं।’’   गुरु   को   बधाई   देते   हुए   दास   उत्साहपूर्वक   कह   रहा   था।

रात के नौ बज गए। ऑफिसर ऑफ दि डे के राउण्ड के लिए आने की सीटी बजी और ड्यूटी कुक अटेन्शन में खड़ा हो गया। ''Sailors' mess and galley ready for inspection, sir !'' दौड़कर आते हुए ड्यूटी कुक ने रिपोर्ट किया और रॉड्रिक्स ने इन्सपेक्शन करना शुरू किया।

‘‘सर,  रात  का  खाना  और  दोपहर  की  चाय  बहुत  सारी  बची  है।’’  कुक ने राउण्ड समाप्त   होते–होते अदब से कहा।

‘‘क्यों ? इतनी सारी सब्जी क्यों बची है ?’’ एक बर्तन खोलते हुए रॉड्रिक्स ने  पूछा।

‘‘शाम को बहुत लोग खाने के लिए नहीं आए।’’ कुक ने जानकारी दी।

‘‘आज बाहर जाने वाले सैनिकों की संख्या कम थी।’’ रॉड्रिक्स ने कहा।

‘‘बिलकुल ठीक, सर,  मगर अनेक लोगों ने दोपहर को ही खाने का बहिष्कार करने की घोषणा की थी।’’   कुक ने   जवाब दिया।

''I see ! बहिष्कार कर रहे हैं, साले। जाएँगे कहाँ ? पेट में जब कौए बोलने लगेंगे तो नाक घिसते हुए आएँगे...’’   बेफ़िक्री से उसने कुक से कहा।

सब लेफ्टिनेंट एक बढ़िया नेवीगेटर के रूप में जाना जाता था, मगर आज ‘तलवार’   किस दिशा में   जा रहा है इस पर उसका ध्यान ही नहीं गया था।

रॉड्रिक्स के साथ आए हुए ड्यूटी चीफ ने उसे फिर से सुझाव दिया, ‘‘मेरा अभी भी यही ख़याल है कि हमें यह सब कुछ बेस कमाण्डर के कानों में डाल देना चाहिए।’’

''George, you are a bloody coward.'' रॉड्रिक्स के शब्दों में और उसकी नज़र में तुच्छता की भावना थी। ‘‘ये ब्लडी इंडियन्स कुछ भी नहीं करेंगे। तुम कह ही रहे हो तो मैं इस बात पर विचार करूँगा।’’

रॉड्रिक्स ने कम्युनिकेटर्स की बैरेक का राउण्ड लिया। सब कुछ कितना शान्त था। वातावरण में फैली शान्ति, सैनिकों का संयमपूर्वक व्यवहार - यह सब देखकर रॉड्रिक्स जॉर्ज की ओर देखकर हँसा। उसकी इस छद्मतापूर्ण    हँसी में अनेक अर्थ छिपे थे।

बैरेक   की   लाइट्स   बुझा   दी   गईं   तो   एक–एक   करके   लोग   बीच   वाली   डॉरमेटरी में गुरु की कॉट के चारों ओर जमा होने लगे। दिल्ली में हुए हवाईदल के विद्रोह की   खबर   अब   बैरेक   में   सबको   हो   गई   थी।

 ‘‘हमें भी इस सरकार के विरुद्ध खड़ा होना चाहिए।’’

‘‘यहाँ - सिर्फ मुम्बई में ही हम लोग करीब बीस हजार हैं, अगर सभी अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ खड़े हो गए तो...।’’

‘‘मगर सबको हमारे साथ आना चाहिए,  अगर नहीं आए तो ?’’

‘‘अरे,  आएँगे  क्यों  नहीं ?  हम  सिर्फ  अपनी  रोटी  पर  घी  की  धार  खींचने के लिए तो नहीं ना लड़ रहे हैं। हमारी समस्याएँ सभी की समस्याएँ हैं।’’ दूसरी डॉरमेटरी   में   जमा   सैनिकों   के   बीच   चर्चा   हो   रही   थी।

‘‘और   यदि   किसी   ने   साथ   नहीं   दिया   तो   हम   अकेले   ही   लड़ेंगे।’’   दास   उत्साह से कह रहा था। ‘‘जब तक अंग्रेज़ यह देश छोड़कर नहीं चले जाते, हमारे साथ किये   जा   रहे   बर्ताव   में   कोई   सुधार   होने   वाला   नहीं   है।’’

‘‘अगर हमें सम्मानपूर्वक जीना है तो स्वराज्य लाना ही होगा।’’ दत्त मित्रा को प्रोत्साहित कर रहा था। ‘‘हम इस ध्येय के लिए संघर्ष करने वाले हैं। और इस ध्येय को पूरा करते हुए शायद हमें अपने प्राण खोना पड़े। ध्येय की तुलना में यह मूल्य कुछ भी नहीं। यह बात नहीं है कि हमारे बलिदान से पिछले नब्बे वर्षों से चला आ रहा स्वतन्त्रता संग्राम पूरा हो जाएगा; मगर हमारे बलिदान से प्राप्त स्वतन्त्रता अधिक तेजस्वी होगी, क्योंकि हमारे द्वारा दिये जा रहे अर्घ्य का खून ही ऐसा है। अब समय आ गया है डंड ठोकते हुए खड़े होने का; न कि पलायन  करने का। तुम हर सैनिक को उस पर हो रहे अन्याय एवं अत्याचार का ज्ञान करा दो। वह अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ने को तैयार हो जाएगा।’’  दत्त के इस वक्तव्य से वहाँ उपस्थित हर व्यक्ति मंत्रमुग्ध हो गया था। हरेक के मन में उस पर हो रहे अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करने की प्रेरणा उफ़न रही थी।

‘‘तुम्हारा कहना एकदम मंजूर ! हमें संघर्ष का आह्वान देना होगा। मगर संघर्ष करना - मतलब वाकई में क्या करना है ?’’ सुमंगल सिंह ने दत्त से पूछा।

‘‘हमारा  संघर्ष  इस  तरह  का  होना  चाहिए  कि  उसे  सबका - अर्थात्  न  केवल सभी सैनिकों का,  बल्कि देश में स्वतन्त्रता के लिए लड़ रहे हरेक व्यक्ति का समर्थन प्राप्त हो। जब सैनिकों के कन्धे से कन्धा मिलाकर नागरिक खड़े होंगे तभी अंग्रेज़ इस देश से निकलेंगे।’’   खान   ने   संघर्ष   की   दिशा   समझाई।

‘‘तुम जो कह रहे हो, वह हम समझ रहे हैं, रे, मगर ऐसा कौन–सा काम होगा जो सभी को एक बन्धन में बाँध सके, सबको संगठित कर सके ?’’ सुमंगल ने  पूछा।

अब इस बात पर चर्चा होने लगी कि कृति किस तरह की होनी चाहिए। पहले पाँच–दस मिनट सभी खामोश रहे। कोई भी सोच नहीं पा रहा था कि करना क्या होगा।

‘‘क्या   हम   निषेध–मोर्चा निकालें ?’’   पाण्डे   ने   पूछा।

‘‘चलेगा।   अच्छी   कल्पना   है।’’   दो–तीन   लोगों   ने   सलाह   दी।

‘‘मोर्चा निकालेंगे, गोरे उस मोर्चे को रोकेंगे, हमें गिरफ्तार करके सलाख़ों के पीछे फेंक देंगे, हमारा मोर्चा वहीं राम बोल देगा !’’ गुरु का यह विचार सबको भा गया और मोर्चे का ख़याल एक तरफ रह   गया।

‘‘हम इस संघर्ष में नये हैं। सही में क्या करना है, यह सोच नहीं पा रहे हैं। यदि हम इस प्रकार के संघर्ष में रत  अनुभवी  लोगों  की  सलाह  लें  तो ?’’  यादव ने  पूछा।

‘‘मतलब,   तुम   कहना   क्या   चाहते   हो ?’’   दत्त   ने   पूछा।

‘‘हम कांग्रेस के नेताओं से मिलकर उनसे मार्गदर्शन लें।’’ यादव ने स्पष्ट किया।

‘‘मेरा ख़याल है कि हम लीग के नेताओं से सलाह लें।’’ रशीद ने सुझाव दिया।

‘‘मेरा विचार है कि इन दोनों की अपेक्षा कम्युनिस्ट हमारे संघर्ष को ज़्यादा अच्छा समर्थन देंगे।’’   दास ने मत प्रकट किया।

‘‘मेरा ख़याल है कि पहले हम विद्रोह करें; फिर जिन राजनीतिक पक्षों को और नेताओं को हमारी मदद करनी होगी वे सामने आ ही जाएँगे।’’

मदन  ने  बहस  टालने  के  उद्देश्य  से  सुझाव  दिया,  ‘‘विद्रोह  करने  के  बाद हमारा इन नेताओं से मिलना उचित होगा।’’

‘‘मदन  की  राय  बिलकुल  सही  है।‘’ दत्त ने समर्थन करते हुए कहा,  ‘‘हमारे बीच विभिन्न पक्षों को मानने वाले सैनिक हैं। यदि हम किसी एक पक्ष के पास सलाह मशविरे के लिए गए तो अन्य पक्षों को मानने वाले सैनिक नाराज़ हो जाएँगे। इन तीनों पक्षों का ध्येय भले ही एक हो, परन्तु उनके मार्ग भिन्न–भिन्न हैं; फिर ये पक्ष एक–दूसरे का विरोध भी करते हैं। यदि हम इन पक्षों को अभी से अपने संघर्ष में घसीटेंगे  तो हममें एकता बनी नहीं रह सकती। आज ऐसा नहीं प्रतीत होता कि ये पक्ष एकजुट होकर,   एक दिल से काम   कर रहे हैं। बिलकुल वही हमारे साथ भी होगा। इसलिए अभी तो हम इन सबको दूर ही रखेंगे।’’ दत्त   ने   पूरी   तरह   से   परिस्थिति   पर   विचार   करके   अपनी   राय   दी।

 ‘‘दोस्तो !, नाराज़ मत होना !’’ कुछ लोगों के चेहरों पर नाराज़गी देखकर खान समझाने लगा,  ‘‘ऐसा प्रतीत नहीं  होना चाहिए कि हम उनके पास सिर्फ़ सलाह–मशविरा करने और मार्गदर्शन के लिए गए हैं। पहले उनके दिलों में हमारे प्रति विश्वास निर्माण होने दो,  फिर तो वे सभी हमारे होंगे और हम उनके होंगे।’’

खान पलभर को रुका, यह देखने के लिए कि उसके बोलने का क्या परिणाम हुआ है। ‘‘दोस्तो !, हम राजनेता तो नहीं हैं। हमें कोई दूसरा, अलग राष्ट्र नही चाहिए,   सत्ता नहीं चाहिए,   सत्ता से जुड़े लाभ भी नहीं चाहिए। हमें चाहिए आज़ादी; हमारे आत्मसम्मान की रक्षा करने वाली, सबके साथ समान बर्ताव करने वाली स्वतन्त्रता। हमारा विद्रोह स्वतन्त्रता संग्राम का ही एक हिस्सा है,   स्वतन्त्रता हमारा पहला उद्देश्य है। इस उद्देश्य तक ले जाने वाले हर व्यक्ति का, हर पक्ष का हम स्वागत ही करेंगे।’’

‘‘यह बात सच है कि राजनीतिक पक्षों के मन में हमारे प्रति विश्वास नहीं है, क्यों कि यदि वैसा होता तो वे पहले ही हमें भी स्वतन्त्रता आन्दोलन में घसीट लेते और यदि वैसा हुआ होता तो स्वतन्त्रता  का सूरज काफ़ी पहले उदित हो चुका होता !’’   मदन ने समर्थन किया।

विचार–विमर्श  में  रात  बीती  जा  रही  थी,  मगर  कुछ  भी  तय  नहीं  हो  पा रहा था। ‘‘क्या रे, तेरा खाने का बहिष्कार अभी चल रहा है क्या ?’’ पाण्डे ने गुरु  से  पूछा।

‘‘बेशक ! जब तक अच्छा खाना नहीं मिलेगा मेरा बहिष्कार जारी रहेगा।’’ गुरु ने जवाब दिया।

‘‘तेरे इस आवेश का और निर्णय का परिणाम अच्छा हो गया। कई लोग तेरे  पीछे–पीछे  बाहर  निकल  गए  और  कई  लोगों  ने  दोपहर  की  चाय  और  रात का खाना भी नहीं लिया।’’   पाण्डे गुरु की   सराहना   कर   रहा   था।

‘‘चुटकी भर नमक...  महात्मा गाँधी का सत्याग्रह...  बार्डोली के गरीब किसान... सरदार पटेल का नेतृत्व... दोनों    ही प्रश्न सबके दिल के करीब...  एकदिल होकर काम करने के लिए प्रवृत्त करने वाले प्रश्न...’’ गुरु सोच रहा था, ‘‘मिलने वाला खाना... बुरा, अपर्याप्त... सबको सम्मिलित करने वाला विषय... दिल को छूने वाला विषय...   खाना।’’   गुरु   के   चेहरे   पर   समाधान   तैर   गया।

‘‘क्या रे, क्या सोच रहा है ?’’ दत्त ने गुरु से पूछा, ‘‘मेरा ख़याल है कि हम खाने के प्रश्न पर आवाज़ उठाएँ। हमें संगठित कर सके,  ऐसा यही एक प्रश्न है। मुझे इस बात की पूरी कल्पना है कि यह एक गौण प्रश्न है, मगर ये सबको शामिल करने की सामर्थ्य रखने वाला प्रश्न है। इस प्रश्न को लेकर जब हम संगठित हो जाएँगे तो स्वतन्त्रता, आज़ाद हिन्द सेना के सैनिकों का प्रश्न, जेल में डाले गए राष्ट्रीय नेता और अन्य राजनीतिक व्यक्ति,  हमारे साथ किया जा रहा व्यवहार - ये सारे प्रश्न हम सुलझा सकेंगे। सत्याग्रह का मार्ग  ही ऐसा एकमेव मार्ग है कि जिसका हम कहीं भी क्यों न हों,  बिलकुल अकेले ही क्यों न हों, अवलम्बन कर   सकते हैं।’’

गुरु का यह सुझाव सबको पसन्द आ गया। रात के दो बज चुके थे। सुबह सभी को जल्दी उठना था और दिनभर के कोल्हू में जुत जाना था।

‘‘अब चलना चाहिए, सुबह काफ़ी काम करना है।’’ खान ने कहा और सभी अपने–अपने बिस्तर की ओर चल दिये। 

दत्त   पूरी   रात   जाग   रहा   था।

‘आज की रात नौसेना की आख़िरी रात है। कल रात कहाँ रहूँगा, किसे मालूम ! शायद जेल में,  शायद किसी रेलवे स्टेशन पर या ट्रेन में।’  दत्त सोच रहा  था। ‘फिर से एक बार कोरी कॉपी लेकर जाना,  सब कुछ पहले से शुरू करना...अब नौकरी के बन्धन में नहीं फँसना। नौसेना की गुलामगिरी से आज़ाद हो जाऊँ तो बस एक ही ध्येय होगा। देश की गुलामी के ख़िलाफ संघर्ष, सैनिकों के विद्रोह के लिए कोशिश–– कल का दिन सचमुच ही नौसेना का मेरा आखिरी दिन होगा ! यदि कल ही विद्रोह हो जाए तो... यदि सामान्य जनता का समर्थन प्राप्त  हो  जाए  तो... जहाजों  पर  फड़कता  हुआ  तिरंगा  उसकी  नजरों  के  सामने घूम गया।  सिर्फ  विचार  से  ही  उसे  बड़ी  खुशी  हुई।  सुबह  की  ठण्डी  हवा चल रही थी। स्वतन्त्र हिन्दुस्तान का नौ सैनिक बनने के सपने देखते हुए कब उसकी आँख लग गई,   पता ही नहीं चला। 

इतवार के बाद आने वाला सोमवार अक्सर उत्साह से भरा होता था। मगर 18 तारीख का वह सोमवार अपने साथ लाया था सैनिकों के मन का तूफान और उनके मन की आग। बैरेक में सब कुछ यन्त्रवत् चल रहा था। सुबह की गन्दी, मैली चाय गैली में वैसे ही पड़ी थी।

फॉलिन का बिगुल बजा। दत्त को बाहर निकलते देख मदन ने कहा, ‘‘तू क्यों फॉलिन के लिए और सफ़ाई के लिए  आ रहा  है ?  आज  तो  तेरा  नौसेना का आखिरी दिन है ना ?’’

‘‘तुम सब काम करोगे और मैं अकेला यहाँ बैठा रहूँ, यह मुझे अच्छा नहीं लगता,’’   दत्त   ने   जवाब   दिया।

‘‘आज तू - सारे अत्याचारों से, बन्धनों से मुक्त हो जाएगा; मगर हम...’’ गुरु की आवाज़ भारी हो गई थी।

दत्त के चेहरे पर उदासीनता स्पष्ट झलक रही थी। असल में तो उसे खुश होना चाहिए था। मगर उसके दिल में कोई बात चुभ रही थी।

‘‘असल  में  तो  नौसेना  में  रहकर  ही  तुम  सबके  साथ  मुझे  संघर्ष  करना  था। ये संघर्ष खत्म होने के बाद अगर वे मुझे नौसेना से तो क्या, ज़िन्दगी की हद से भी बाहर निकाल देते  तो  कोई  बात  नहीं  थी।  ध्येय  पूरा  न  हो  सका  यह  वेदना, और... मैं  काफ़ी  कुछ कर सकता था यह चुभन लेकर मैं नौसेना छोड़ने वाला हूँ।’’

दत्त की पीड़ा को कम करने के लिए मदन और गुरु के पास शब्द न थे। वे दोनों चुपचाप बाहर   चले   गए।

''Hands to break fast'' घोषणा हुई।

‘‘आज क्या होने वाला है ?’’ हरेक के मन में उत्सुकता थी। मेस में भीड़ थी। कल जिन्होंने खाने का बहिष्कार किया था वे भी उपस्थित थे। उनके शान्त चेहरों पर सैनिकों के प्रति आह्वान था।

‘‘क्या आज का दिन भी बाँझ की तरह गुज़र जाएगा ?’’  गुरु दत्त के कानों में फुसफुसाया।

‘‘बेकार की शंका मन में न ला; शायद यह तूफ़ान से पहले की खामोशी हो !’’   दत्त का आशावाद बोल रहा था।

‘‘कल वाली ही चने की दाल आज भी ?  गरम करने से बू छिपती नही है।’’  सुजान पुटपुटाया।

‘‘और ब्रेड के टुकड़े कीड़ों से भरे हुए !’’ सुमंगल ने जवाब दिया। कई लोग नाश्ते से भरी प्लेट्स लिये चुपचाप बैठे थे। नाश्ता करने को मन ही नही हो रहा था।

‘‘मेस के सैनिकों की ओर देख हृदय के भीतर का ज्वालामुखी आँखों में उतर आया प्रतीत हो रहा है।’’ दत्त ने गुरु से कहा। मदन मेस में आया। उसने एक सैनिक के हाथ की नाश्ते से भरी प्लेट ले ली। उसके चेहरे पर चिढ़ स्पष्ट नज़र आ रही थी। उस प्लेट की ओर देखते हुए वह चिल्लाया, ''Silence please !'' एक पल में गड़बड़ खत्म हो गई। सबके कान खड़े हो गए।

दत्त ने हँसते हुए मदन की ओर देखा और हाथ के अँगूठे से इशारा किया, ''Well done, buck up !''

‘’कल नाश्ते के समय इतना हंगामा हुआ, ऑफिसर ऑफ दि डे के साथ इतनी बहस हुई; फिर भी आज फिर  हमेशा की तरह,  कुत्ता भी जिसे मुँह न लगाए वैसा खाना। आज तक हमने अनेक शिकायतें कीं,  मगर किसी ने  भी  उन  पर गौर  नहीं  किया।  जब  तक  अंग्रेज़ी  हुकूमत  है,  तब  तक  यह  ऐसा  ही  चलता  रहेगा। कदम–कदम पर होने वाला अपमान, हमें दिया जा रहा गन्दा खाना,  कम तनख्वाह...ये सब   बदलने के लिए अंग्रेज़ हटाओ,  अंग्रेज़ी हुकूमत हटाओ,   इसलिए आज से ''No food, No work !''

मेस में एकदम शोरगुल होने लगा। सैनिकों ने जोश में जवाब दिया,  ''No food, No work !''

दत्त को विश्वास ही नहीं हो रहा था। किसी को भी उम्मीद नहीं थी कि परिस्थिति इतनी तेज़ी से बदल जाएगी। खुशी के मारे दत्त ने मदन को गले लगा लिया और गद्गद स्वर में बोला, ''We have done it, man; we have done it.'' उसकी आँखें भर आई थीं।

‘‘दिसम्बर से हम जिस पल की राह देख रहे थे वह पल अब साकार हो चुका है। नौसेना में विद्रोह हो गया है।’’ खान गुरु को गले लगाते हुए बोला। वे सभी बेसुध हो रहे थे।

‘‘आख़िर वे सब हमारे साथ आ ही गए ‘’, दास समाधानपूर्वक चिल्लाते हुए कह रहा था।

‘‘वन्दे...’’  कोई  चिल्लाया। शायद दास।

एक कोने से क्षीण सा प्रत्युत्तर प्राप्त हुआ, ‘‘मातरम्’’ दास को इस बात की उम्मीद नहीं थी।  दनदनाते  हुए  वह  डाइनिंग  टेबल  पर  चढ़  गया  और  ज़ोर–ज़ोर से कहने लगा, ‘‘अरे, डरते क्यों हो ? और किससे ? हम अगर सूपभर हैं तो वे गोरे हैं बस मुट्ठीभर। जो *** होंगे वे ही डरेंगे !’’ दास   ने   दुबारा   नारा   लगाया,

‘‘वन्दे...’’

मानो एक प्रचंड गड़गड़ाहट हुई। इस नारे को पूरी मेस का जवाब मिला और फिर तो नारों की दनदनाहट ही शुरू हो गई।

‘‘जय  हिन्द !’’

 ‘‘महात्मा   गाँधी   की   जय !’’

‘‘चले   जाओ,   चले   जाओ !   अंग्रेज़ों,   देश   छोड़   के   जाओ !’’

मेस  के  पास  पहुँच  चुके  ऑफिसर  ऑफ  दि  डे  ने  ये  नारे  सुने  और  वह उल्टे   पैर   वापस   भाग   गया।   नारे   और   अधिक   जोर   पकड़ने   लगे।

‘‘आज एक अघोषित युद्ध प्रारम्भ हो गया है।’’ गुरु कह रहा था। सारे आज़ाद हिन्दुस्तानी इकट्ठे हो गए थे। सपनों में खोए हुए,  वे वापस वास्तविकता में आ गए।

‘‘यह   शुरुआत   है।   अन्तिम   लक्ष्य   अभी   दूर   है।’’   खान   ने   कहा।

‘‘जान की बाजी लगा देंगे, जी–जान से लड़ेंगे। मंज़िल अभी बहुत दूर है, मगर   हम   उसे   पाकर   ही   चैन   लेंगे।’’   दत्त   ने   निश्चय   भरे   सुर   में   कहा।

चिनगारी उत्पन्न हो गई थी। वड़वानल अब सुलग उठा था। तभी सैनिकों के मन की प्रलयंकारी हवा  उसके साथ हो गई। सागर का शोषण करके अब वह आकाश की ओर लपकेगा इसका सबको यकीन था।

आठ  के  घंटे  सुनाई  दिये... उसके पीछे 'stand still' का बिगुल। मेन मास्ट पर यूनियन जैक वाला नेवल   एनसाइन राजसी ठाठ से चढ़ाया जा रहा था।

''Hey, you bloody Indian, it is colours, stand still there !" एक गोरा सुमंगल पर चिल्लाया.

''Hey you white pig, that is bloody your flag. I don't care for it.'' सुमंगल सिंह चीखा, और सीटी बजाते हुए चलता ही रहा।

बैरेक  में  रोज़ाना  की  तरह  दौड़धूप  नहीं  हो  रही  थी।  हर  कोई  एक–दूसरे से  कह रहा  था, ''No food, No work, No fall in, No duty.  जो होगा सो देखा जाएगा।’’

परिणामों   का   सामना   करने   के   लिए   हर   कोई   तैयार   था। 

सुबह के आठ बजकर पच्चीस मिनट हो गए और आदत का गुलाम गोरा चीफ़ गनरी इन्स्ट्रक्टर रोब से चलते हुए परेड ग्राउण्ड में आकर खड़ा हो गया। उसने दायें–बायें नज़र डाली और सकपका गया। सफ़ेद यूनिफॉर्म वाले सैनिकों से ठसाठस भरा रहने वाला परेड ग्राउण्ड आज खाली पड़ा था। चीफ़ के मन में सन्देह कुलबुलाने लगा। पास ही खड़े ब्युगलर को उसने आदेश दिया, ''Bugler, sound aert.'' Stand still की आवाज़ कानों पर पड़ते ही परेड ग्राउण्ड पर जमा हुए सैनिक अटेन्शन में आ गए।


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