उसे समझाती भी तो क्या
उसे समझाती भी तो क्या
दीपावली पर इस वर्ष मेरे घर वह दीये बेचने वाली कुम्हारन नहीं आई। वह भी क्या करती, वह तो हर वर्ष आती ही थी, किंतु विदेशी चमक की चकाचौंध ने मुझे इस तरह आकर्षित कर लिया था कि उसे देखते ही मेरा चेहरा बिगड़ जाता था और मैं दीये लेने से इनकार कर देती थी। वह बेचारी उदास होकर यहाँ से चली जाती थी।
लेकिन इस वर्ष विदेशी सामान से मन उचट गया है। मन में एक ग्लानि है कि हमारी पीठ पर छुरा भोंकने वालों का साथ हम क्यों दे रहे हैं। अपनों का छोड़कर परायों का चूल्हा क्यों जला रहे हैं। इस तरह के चिंतन से मेरा मन उदास था। मैं हर रोज़ उस दीये वाली कुम्हारन की राह देख रही थी किंतु वह नहीं आई।
एक दिन मैं बाज़ार जा रही थी तभी रास्ते में मुझे एक छोटी सी गुमटी दिखाई दी जिस पर कुछ विदेशी चमक-दमक वाला सामान बिक रहा था। मैं उस तरफ से अपनी नज़रें हटा ही रही थी कि तभी मेरी नज़र उस औरत पर जा टिकी जो उस दुकान में बैठी थी।
“अरे यह तो वही है, जिसे मैं ढूंढ रही थी”, मन में यह विचार आते ही मेरे कदम खुद-ब-खुद उस दुकान की ओर मुड़ गए।
मैं हैरान थी दीये बेचने वाली एक ग़रीब कुम्हारन, छोटी सी दुकान पर विदेशी सामान लेकर बैठी थी। मेरी आँखों पर धूप का चश्मा और चेहरे पर दुपट्टा था, जिसे मैंने तेज़ धूप से बचने के लिए लपेट रखा था।
मैं वहाँ पहुँची तब कुम्हारन की बेटी उससे कह रही थी, “माँ मुझे भी दीये बनाना क्यों नहीं सिखातीं ? मैं भी बड़ी हो कर दीये बनाकर बेचूंगी। पिताजी कहते थे अपनी कला को मरने नहीं देना लेकिन माँ तुमने पिताजी की बात नहीं मानी ना। वो तो भगवान के घर से देख लेंगे फ़िर तुम्हें बहुत डांटेंगे। ”
अपनी बच्ची को वह कुछ जवाब दे, तब तक मैं अपने चेहरे से दुपट्टा हटा चुकी थी। मुझे देखते ही वह पहचान गई और कहने लगी, “बोलिए मैडम जी क्या दूँ आपको ? आज मेरे पास आपकी पसंद की हर चीज है ।”
मैंने उसकी बात अनसुनी करते हुए कहा, अरे तुम इस साल दीये लेकर नहीं आईं ?
वह दुखी होकर बोली, “मैडम जी अब दीये कोई नहीं लेता, आप भी तो नहीं लेती थीं। मैं क्या करती मुझे भी तो मेरा बुझता हुआ चूल्हा जलाना था। मेरी ये छोटी सी बच्ची दीये बनाना सीखना चाहती है पर मैं उसे वो वस्तु बनाना क्यों सिखाऊँ जो कोई खरीदता ही नहीं। लेकिन यह बात उसे कैसे समझाऊँ। देखो ना मुझसे नाराज़ होकर बैठी है। अपने पिता की बातें याद करके मुझे समझा रही है।”
इतना कहते-कहते उसकी आँखें आँसुओं से भर गईं। कुम्हारन ने आँसू पोंछते हुए कहा, “मैडम जी आप लोगों की तरह बड़े-बड़े महँगे पटाखे ना सही लेकिन अपनी बच्ची के लिए मुझे फुलझड़ी और टिकली तो लाना पड़ेगी ना, वरना वह सोचेगी यह त्यौहार तो उसका है ही नहीं।”
उसकी बातें सुनकर मैं शर्मिंदा थी किंतु उसे समझाती भी क्या, दिलासा देती तो क्या ? यदि मैं अकेली दीये खरीदने के लिए हाँ कह देती तो भी क्या?