ज्योत्स्ना कपिल

Drama

4.7  

ज्योत्स्ना कपिल

Drama

तुम थे तो

तुम थे तो

11 mins
362


अचानक उसकी आँख खुली तो अभ्यासवश उसने पलँग की पुश्त पर रखा मोबाइल उठाकर क्लिक किया, सुबह के पाँच बजकर पचपन मिनट हो चुके थे। एक झटका सा लगा,आँखों मे छाई नींद की ख़ुमारी काफ़ूर हो गई। सारा आलस्य एकदम से विलीन हो गया। उसने फुर्ती से मोबाइल में सन्देश वाला आइकॉन क्लिक किया। देखा ठीक साढ़े पाँच बजे के कबीर के कई सन्देश पड़े थे।

' उठ रहा हूँ।'

' अभी आँख नही खुल रही।'

' उठ गया, आता हूँ दस मिनट में।'

' तुम्हारे लिये चाय बना रहा हूँ।'

' बन गई चाय, लो पहला घूँट। '

' जवाब नही दे रहीं ?'

' चाय भी ठंडी हो गई।'

' मैं भी नही पीता आज चाय ।'

  स्मिता के लबों पर प्यारी सी मुस्कान खेल गई। उसकी अंगुलियाँ मोबाइल पर टाइप करने लगीं।

' सॉरी, आज देर से आँख खुली। '

' चाय ठंडी क्यों करी ?'

' अब यही सज़ा है कि इसे गरम करके लाओ। तब तक मैं झट से ब्रश करके आती हूँ। '

वह फुर्ती से शयनकक्ष से लगे स्नानागार में गई और चटखनी लगा ली। थोड़ी देर में बाहर निकली तो उसका धुला निखरा चेहरा ताजगी से चमक रहा था। तौलिए से मुँह पोंछते हुए उसने फिर से मोबाइल उठाया। इस बार मोबाइल में वाट्स एप पर कबीर के कई सन्देश पड़े थे। सबसे पहले सुर्ख़ गुलाब के खूबसूरत गुलदस्ते के साथ गुड मॉर्निंग का सन्देश। फिर चाय से भरे मग की तस्वीर और सन्देश

 ' लीजिये मलिका-ए-आलिया, चाय फिर गर्म कर लाया, पहला घूँट लें।'

वह मुस्कुरा दी। उसकी उँगलियाँ मोबाइल के कीबोर्ड पर चलने लगीं

' लाओ पहला घूँट।'

' उफ़, ये क्या ! इतनी गर्म चाय ! ऐसा भी कोई करता है क्या ? मेरी जीभ जल गई ।' साथ मे नाराज़गी का इमोजी।

'सॉरी डार्लिंग, आइस क्यूब डालना भूल गया था ।'

' क्यों नही डाला ? जाओ मैं नही करती तुमसे बात '

'मेरी तौबा, अब ऐसी भूल नही करूँगा, माफ़ कर दो देवी ।'

' चलो माफ़ किया, तुम भी क्या याद रखोगे, अब पी लो बाकी चाय।'

' जी शुक्रिया, आपके इस अहसान को हम कभी नही भूलेंगे।'

स्मिता खिलखिला पड़ी। ये कबीर भी बस, सबसे अनोखा है।

' हे ,ये क्या बकवास लिखी है तुमने ?'

' क्या लिख दिया?'

वह चिहुँक उठी।समझ नहीं सकी की इशारा किस ओर है उसका।

' तुम्हारी कल वाली कविता पढ़ रहा था -' तुम ' ये भी कोई बात है भला ?'

'क्यों इसमे क्या गड़बड़ है ?'

' अच्छा भी क्या है ? चन्द पंक्तियों पर मुलाहिजा फरमाइए। कितनी नेगेटिव एप्रोच है -

तुम नहीं तो हर आसान,

दाँव भी मैं हारती हूँ,

तुम नहीं तो इक पल भी,

जीना नहीं चाहती हूँ।

तुम नहीं तो ज़िंदगी में,

आता नहीं कोई मज़ा,

तुम नहीं तो ज़िंदगी भी,

बन गई है इक सज़ा। '

' कबीर ' वह आहत हो गई।

'क्या कबीर , तुमने तो इसे बिल्कुल ही नकार दिया ।'

' मुझे ऐसी बातें बिल्कुल नही पसन्द। उस 'तुम ' के लिये सब कुछ भूल गईं। जबरदस्त दिमाग खराब कर रखा है तुमने साले का '

' कबीर, ऐसे तो मत कहो, तुम जानते हो कि मैं किस कदर, पागलपन की हद तक तुम्हे चाहती हूँ।' वह रूआंसी हो उठी।

' क्या फायदा ऐसी चाहत का, कि इंसान अपना वजूद ही भूल जाये। किसी के लिये प्यार होना अच्छी बात है,पर ऐसा पागलपन ? खुद को मिटा देना कहाँ समझदारी है ?'

' मैं समझदार नही हूँ कबीर ।'

' जाने वाले के साथ दुनिया खत्म नही हो जाती। ज़िन्दगी का कारोबार चलता रहता है। गीता में भी कहा गया है कि आत्मा अजर अमर है, बुद्धिमान उसका शोक नही करते '

' मैं बुद्धिमान नहीं।' उसकी आँखें भर आयीं।

' यार तुमसे तो बात करना ही फ़िज़ूल है। बिल्कुल मूर्ख हो तुम। किसी के साथ खुद मर जाया नही करते। '

' मुझे यूँ जीना नही आता।'

' तो बैठी रहो दीवारों से सर फोड़ती हुई, जा रहा हूँ मैं, नही बात करनी तुमसे ।' कुछ पल बाद वह ऑफ़लाइन शो होने लगा।

स्मिता के आँसू बहने लगे। मायूस कदमों से वह रसोई की ओर चल दी। चाय की तलब अब तेजी से लग रही थी। चाय का पानी चढ़ाया ही था कि मोबाइल बज उठा। तेजी से उसने कॉल रिसीव की

" हाय, गुड मॉर्निंग ।"

" गुड मॉर्निंग ।" उसने नाराज़गी से कहा।

" इतना बुरा लगा ?"

" क्या नही लगना चाहिये ?"

" अरे यार तुम्हे समझाने की कोशिश कर रहा था। बी प्रैक्टिकल, बदलो अपने आप को। तुम्हारा ये एटीट्यूड जानती हो कितना दुख पहुंचाता है मुझे ?"

" मैं खुद को नही बदल सकती कबीर।"

" अच्छा छोड़ो, तुमसे कौन सर मारे। एक कॉफी पिलाओगी ?"

" ज़रूर, आ रहे हो ?"

" हाँ "

" सचमुच आ रहे हो या उस दिन की तरह ,जब कहा था कि तैयार रहना, आज तुम्हे पिक करूँगा फिर मन्दिर जाकर हम शादी करेंगे

'मैं तैयार बैठी तुम्हारा इंतज़ार करती रही, पर तुम नही आये। तुम क्यों नही आये कबीर ?"

" जानती तो हो सब कुछ, खैर छोड़ो उस बात को, अभी आ रहा हूँ तुम्हारे पास। " उसने बात को टाल दिया था।

" लोगों ने कितनी बुरी बुरी बातें कही थीं तुम्हारे बारे में। " पर उस निर्मोही ने कोई बात न कि और फोन रख दिया।

कबीर आ रहा है, उफ़ रूम कैसा बिखरा हुआ है। क्या सोचेगा ?' वह तेजी से कमरे को व्यवस्थित करने लगी। सारा सामान यथास्थान रखकर स्नान के लिये चली गई। निकली तो काफी समय गुज़र गया था। कॉफी फेंट ही रही थी कि देखा कबीर रसोई में ही चला आया था।

" अरे! अब तक नही बनाई कॉफी ?"

" बस अभी बनाती हूँ, तुम तब तक आज का पेपर पढ़ो ।"

" और अगर यहाँ से न जाऊँ तो ?" वह शरारत से मुस्कुरातें हुए बोला।

स्मिता उसे धकेलते हुए रसोई से बाहर लाई और एक कुर्सी पर बैठाते हुए हाथ मे उस दिन का समाचारपत्र पकड़ाया और बोली

" आती हूँ पाँच मिनट मे कॉफी लेकर, तब तक यहीं बैठो। " फिर वह दोबारा रसोई में चली गई। पाँच मिनट बाद एक ट्रे में कॉफी के दो मग और कुकीज़ लेकर आ गई।

" लो "

" पता है न, तुम्हारे पहला सिप लिये बगैर मैं चाय कॉफी नही पीता ।"

उसने चुपचाप पहला सिप ले लिया। तभी उसकी निगाह कबीर के हाथ पर पड़ी। उसके हाथ मे एक सुंदर कवर वाली नीले रंग की डायरी थी। स्मिता ने उसके हाथ से डायरी छीन ली।

" इट्स नॉट गुड, तुम मेरी डायरी क्यों पढ़ रहे हो ?"

" देखना चाह रहा था कि तुम्हारे दिमाग मे क्या चल रहा है। ये क्या लिखा है ? आखिर की दो लाइन पर गौर फरमाइए-

कितने वीरान हैं दिन और ये रातें सूनी

हर उदास पल का हिसाब दिखाऊँ मैं कैसे।

ये क्या है ?"

जवाब में उसने पलकें झुका लीं, आँख की कोर से नमी नज़र आने लगी थी। कबीर ने बाहें फैला दीं तो वह उठकर उसके पास आ गई। हृदय से लगाकर कबीर काफ़ी देर चुपचाप बैठा उसके बालों को सहलाता रहा। स्मिता आँखें बंद किये बैठी रही। उसे असीम शांति मिल रही थी। मन का सारा क्लेश धुल पुंछ गया था। जी चाह रहा था कि कयामत तक वह उसके सीने से लगी बैठी रहे। कोई फ़िक्र न हो, कोई सन्ताप न हो।

" खुश रहा करो स्मिता, तुम्हे यूँ उदास देखकर मुझे कितना दुःख मिलता है , तुम इसकी कल्पना भी नही कर सकतीं। तुमने अपने आप को एक शैल में बन्द कर लिया है। उसे तोड़कर बाहर निकलो। कितना कुछ है जहाँ में, अपना मन उसमे लगाने की कोशिश करो। "

  " तुम्हारे बिना मुझे कुछ अच्छा नही लगता। तुम्हारे सिवा मैं कुछ और सोच ही नही पाती। मेरे हर ख्याल में सिर्फ तुम हो। "

" इसीलिये तकलीफ़ पाती हो तुम, अपना जुनून थोड़ा कम करो।"

" नही कर सकती, मेरी हर साँस तुमसे, मेरी हर धड़कन तुम्हारे नाम।"

" स्मिता क्या करूँ मैं तुम्हारा ?" उसकी आवाज़ में करुणा छलक आयी थी।

" मैं तुम्हारे साथ, तुम्हारे नज़दीक रहना चाहती हूँ। ठीक वैसे ही जैसे फूल और सुगंध, जैसे चाँद और चाँदनी, जैसे राग और रागिनी।"

" अब यह सम्भव नही स्मिता ।"

" क्यों नही सम्भव ? मैं तुम्हारी राह पर चलना चाहती हूँ। "

" तुम मेरी राह नही चुन सकतीं। "

" क्यो नही चुन सकती ?"

" ईश्वर न करे, तुम्हारा दामन खुशियों से भर जाए। "

" मेरी हर खुशी तुमसे ही है कबीर,नहीं चाहिए मुझे वो खुशी जिसमे तुम शामिल नही।"

" मैं हर वक़्त तुम्हारे साथ हूँ, साया बनकर। तुम्हे हमेशा देखता रहता हूँ,सुनता रहता हूँ, महसूसता रहता हूँ। जी चाहता है पुराने दिन लौट आयें । मैं तुम में खो जाऊं, हम अपनी खूबसूरत दुनिया बसा लें। पर ... " वह सूनी आँखों से उसे देखता रहा। पीड़ा के भाव उसके चेहरे पर साफ़ नज़र आ रहे थे।

" मुझसे तुम्हारे बगैर नही जिया जा रहा कबीर, तुम्हारे हाथ जोड़ती हूँ, मुझे अपने साथ ले चलो। " उसने सचमुच हाथ जोड़ लिये। अश्रु बहते जा रहे थे, हृदय की जलन हावी होती जा रही थी।

" मैं भी तुम्हारा मोह छोड़ नही पा रहा, तुम्हे नही पता स्मिता, कितना तड़प रहा हूँ। पर मैं कितना विवश हूँ। "

" हम शादी कब करेंगे कबीर ? "

"शादी ?"

" हाँ, मैं हर पल तुम्हे अपने सामने चाहती हूँ, तुमसे कभी जुदा होना नही चाहती।"

" हूँ तो मैं तुम्हारे साथ, हमेशा।"

कुछ कहना चाह ही रही थी कि महसूस किया कि दरवाजे की घण्टी बहुत कर्कशता और बेचैनी से बज रही है । कोई अब बहुत बेसब्र हो गया था। उसने कबीर की ओर देखा। उसके चेहरे पर बहुत असंतोष और पीड़ा के भाव थे। फिर जैसे वह शून्य में विलीन होने लगा । स्मिता ने हाथ बढ़ाकर उसे पकड़ना चाहा, पर वह अब नज़र आना बंद हो गया था। स्मिता हैरान सी देखती रही। घण्टी अब लगातार बजती जा रही थी। बाहर से उसे आवाज़ भी दी जा रही थी।

व्याकुल होकर वह द्वार की ओर बढ़ी और दरवाजा खोल दिया। बाहर उसकी सखियाँ मौली और स्नेहा खड़ी थीं।

" तुम ठीक तो हो न स्मिता ?"

" हाँ " मुश्किल से उसका स्वर निकला।

" कबसे तुम्हे फोन कर रहे हैं, तुम उठा ही नही रही।" मौली ने चिंतित स्वर में कहा।

" फ़ोन ? नही तो। " वह अनिश्चय भरे स्वर में बोली।

" तू कर क्या रही थी ? कबसे तेरे दरवाजे की बैल बजा रही हूँ। खोल नही रही। पता है कितनी फिक्र हो गई थी तेरी? " स्नेहा ने अंदर झाँकने का प्रयास किया।

" वो म.. मैं कबीर के साथ थी ।"

" कबीर ?" स्नेहा ने कहकर मौली की ओर देखा

लगा जैसे उनदोनो ने आँखों ही आँखों मे कुछ कहा।

" कहाँ है कबीर ?"

" अभी तो यहीं था, पर बेल की आवाज़ सुनकर गायब हो गया।" स्मिता जैसे अपने आप से कह रही थी। फिर वह खोजपूर्ण निगाहों से चारों ओर उसे ढूंढने लगी। कमरे में सब तरफ उसने दृष्टि दौड़ाई। फिर रसोई में गई, एक निगाह स्नानागार में डाल ली। वापस कमरे में आई और सोफे की तरफ इशारा करते हुए बोली

" यहीं तो था वह।" वह बहुत बेचैन थी।

" वो यहाँ नही है ।" स्नेहा ने दृढ़ता से कहा।

" नही, वो था। " स्मिता मजबूत स्वर में बोली। " वो यहाँ बैठा था। मेरे बिल्कुल करीब, मुझे अपने सीने से लगाए हुए। उसने मुझे छुआ, मेरे बालों को सहलाया। " वह अब भी इधर उधर देख रही थी।

" अगर था तो कहाँ गया ?" मौली ने उसे बेचारगी से देखा।

" मैं सच कह रही हूँ मौली, मुझपर यकीन करो स्नेहा। मैं उसके लिये कॉफी बनाकर लाई थी। हम दोनों ने पी। " कहते कहते वह रुक गई। टेबल पर दो मग रखे थे। एक मग खाली और दूसरे में कॉफी। स्मिता आश्चर्य से देखती रह गई।

" पर उसने खुद मुझसे कॉफी बनवाई थी। सुबह मुझसे चैटिंग भी की। हमेशा की तरह पहले ढेर सारे एस एम एस किये। फिर चाय बनाने के बाद वाट्स एप पर चैटिंग। " उसका स्वर अब भीगने लगा था। " ये देखो उसके मैसेज " उसने मोबाइल उन दोनों की तरफ बढ़ा दिया।

उन्होंने मोबाइल देखा फिर उसकी ओर बढ़ा दिया।

" इसमे कोई मैसेज नही स्मिता ।" मौली ने उसका हाथ थाम लिया।

स्मिता ने व्यथित होकर देखा, पर वहाँ कोई सन्देश न पाकर व्याकुल हो उठी

" नही मौली, बिलीव मी, उसने सचमुच मुझसे बात की, मेरे घर आया। " वह जैसे स्वयम को तसल्ली देना चाह रही थी।

स्नेहा ने आगे बढ़कर उसे गले से लगा लिया।

" अपनी कल्पना की दुनिया से बाहर आओ स्मिता, कबीर अब नही है। उसे गुज़रे हुए दो वर्ष बीत गए ।"

" नही " वह तड़पकर उससे दूर हो गई। " झूठ बोल रही हो तुम, वह मुझे छोड़कर नही जा सकता। उसे मालूम है कि मैं उसके बगैर जी नही सकती। मैं उसे पागलपन की हद तक चाहती हूँ। वो मुझसे शादी करेगा। उस दिन नही आया था। पर हर बार ऐसा नही करेगा।" उसने स्नेहा को झिंझोड़ डाला।

" याद करो स्मिता, उसने तुम्हे तैयार होने को कहा था। तुम दुल्हन बनी उसका इंतजार करती रहीं, पर वह नही आया था। आया था तो सिर्फ एक सन्देशा, एक रोड एक्सीडेंट में ऑन द स्पॉट कबीर की---"

" नहीं, उसे कुछ नही हो सकता। " वह हिस्टीरिकल अंदाज में चीखी " उसे कैसे कुछ हो सकता है ? मैं उसके इंतज़ार में बैठी हूँ "

" स्मिता, मान लो इस सच को, वह अब जीवित नहीं। "

"चली जाओ मेरे घर से, तुम जलती हो मुझसे, हमारे प्यार से ।" मौली और स्नेहा ने आगे बढ़कर उसे सम्हालने का प्रयास किया। पर उसमे एक पागलपन सवार हो चुका था। वह चारों और बेचैनी से कबीर को ढूंढ रही थी। फिर उसकी व्याकुल चीख गूँजी

" कबीर, प्लीज़ सामने आओ, देखो ये लोग कितनी बुरी बातें कर रही हैं। " मौली और स्नेहा ने करुणा भरी दृष्टि से उसे देखा।

तभी सामने कबीर खड़ा नज़र आया, मुस्कुराता हुआ, बाहें फैलाए। स्मिता दीवानों की तरह आगे बढ़ी, मौली ने उसे रोकने का प्रयास किया पर उसने अमानवीय शक्ति से उसे धकेल दिया। अगले ही पल एक दर्दनाक चीख से वातावरण थर्रा उठा।


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