"ठहरे लम्हें "

"ठहरे लम्हें "

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आज से 5 साल पहले की वो शाम थी, तब मैं पटना मे RJ (रेडियो जॉकी) की ट्रेनिंग ले रहा था। 14 मई 2010 को अपनी ट्रेनिंग पूरी कर मैं अपने फ्लैट पर लौटा ही था और आराम करने की सोच रहा था कि तभी फोन की घंटी सुनाई पड़ी। उठाने का मन तो नही था, भूख भी लगी थी और थकान भी थी।

फोन तो उठाना ही था सो उठाया तो मौसी की भारी सी आवाज़ आई, मैंने प्रणाम किया और पूछा “क्या हुआ सब ठीक है ना”, क्योंकि वो हमेशा हंसते हुए और बड़े प्यार से बात करती हैं, उन्होने कहा बाबू सब ठीक है लेकिन तुम अभी ही आलोक के पास चले जाओ। (आलोक मेरा कज़न 12th का स्टूडेंट और तब इंजिनियरिंग की तैयारी कर रहा था, एक ही शहर मे होके भी हम अपने क्लासेस की वजह से दूर रहते थे। मुझसे यही कोई 4-5 साल छोटा है।) मैंने मौसी से पूछा बात क्या है, बोलते हुए गला भर्रा गया और उनकी आवाज़ कांपती हुई सी मेरे कानों मे आई और उन्होने कहा उसके बड़े पापा की मौत हो गई है एक्सीडेंट मे, और उसे बताया नहीं है अभी अकेला है, तुम चले जाओ संभालना उसे। "उसके बड़े पापा पुलिस विभाग मे एक अच्छे पद पर कार्यरत थे उसी शहर मे जहाँ आज मैं  रहता हूँ"- 'जमशेदपुर'। मैंने कहा ठीक है आप परेशान ना हो मैं अभी जा रहा, और अगले 40 मिनटों मे मैं उसके पास था उसके हॉस्टल मे। आते वक़्त लग रहा था बोरग रोड से राजेंदर नगर तक का सारा ट्रैफ़िक जाम उसी दिन होना था । 

अचानक से मुझे देखकर आलोक ने कहा “भैया आप यहां, क्या बात है मज़ा आ जाएगा आज तो, मैंने कहा बस मन हुआ और मैं आ गया तुमसे मिलने। मैंने आलोक से पूछा कैसे चल रहे हैं क्लासेस तुम्हारे, घर पे बात हुई। चलो कहीं घूम के आते हैं” । पर कहते हैं ना आप लाख छुपाने की कोशिश करो पर जो आपके करीब होते हैं वो जान ही जाते हैं की कुछ तो है जो गड़बड़ है। आलोक ने फिर पूछा और मैं छुपा ना सका, क्योंकि उसके बड़े पापा से कुछ ही महीनों पहले मेरी भी मुलाकात हुई थी उसके एडमिशन के टाइम पे। मैंने कहा “मौसी का फोन आया था बोली तुम्हारे बड़े पापा का पुलिस स्टेशन से घर आते वक़्त एक्सीडेंट हो गया है, और वो अब।।।।।”

 इतना कहना था और आलोक की आँखों से आँसू निकल पड़े। फिर कुछ वक़्त बाद मैंने मौसी को कॉल किया, पूरी बात जानी तब पता चला आलोक के पापा और पूरे परिवार वाले वहाँ के लिए निकल चुके थे जिस शहर एक्सीडेंट हुआ था। मुझे कहा गया की तुम आलोक के साथ रह जाओ ये बात सुबह की ही है और सबलोग उन्हे अंतिम विदाई देकर उसी रास्ते अपने पैतृक घर आएँगे और आलोक भी उन्ही के साथ हो लेगा, बस तुम साथ रहना नही तो बच्‍चा है पता  नही क्या क्या सोचे और मैं भी उसे अकेला नही छोड़ना चाहता था भाई है मेरा। उसका  बैग पैक किया कुछ कपड़े डाले और उसके साथ गाँधी सेतु पूल जाने के लिए निकल पड़ा जहां से होकर घरवालों की गाड़ी गुज़रने वाली थी। होस्टल से बाहर निकले  तो पता चला शाम ढल चुकी थी और हमारे सामने उनलोगों के आने तक की रात थी जो शायद आज बहुत लंबी होने वाली थी। क्योंकि इंतेज़ार के पल आसानी से नही गुज़रते ख़ासकर के ऐसे मौके पर जब अपनों से मिलने की बेसब्री हो।

मन में सौ बातें और आते-जाते ख़यालों के साथ हम गाँधी सेतु पहुँच चुके थे। मैंने आलोक के पापा यानी अंकल को कॉल किया पता चला सबलोग घर को लौट रहे हैं। वक़्त गुज़रता जा रहा था और इंतेज़ार के पल लंबे होते जा रहे थे। उम्मीद थी की वो लोग रात के 8 बजे तक आजाएंगे पर देरी हुई तो हम क्या करेंगे ? मैं वापस रात को अपने फ्लैट कैसे जाऊंगा पर इन सवालों का कोई जवाब नही था हमारे पास। थोड़ी खामोशी और कुछ बातों के बीच रात के 11 बज चुके थे भूख दोनो को लगी, पर ना तो कोई ढाबा था ना कोई दुकान जहां खाने को कुछ मिल सके। उस स्टेट हाइवे पर अगर कुछ नज़र आ रहा था तो हर मिनट आती जाती ट्रक या बस। पुल के इस छोर पे जहाँ हम थें वहां सिर्फ़ एक पान कि दुकान थी। चाय पर भी आफ़त थी जिसके सहारे हम नींद को खुद से दूर रखते। रात के 12.30 तो ऐसे ही हो गये, वहीं किनारे पे एक बेंच था उसी पे लेट गया मैं। अब मैं और आलोक एक दूसरे से क्या बात करे समझ भी नही आ रहा था, चुपचाप सा था वो और मैं उसे समझता हुआ क्योंकि वक़्त को शायद यही सही लग रहा था।

      अब  तो नींद भी आने लगी थी जिसे दूर करने के लिए मैंने पानी का बॉटल लिए आँखें पर छींटे मारे पर नींद को भी अपना प्यार हमपर आज ही जताना था, आलोक ने भी कहा भैया अब नींद आ रही है और पास के एक दूसरे बेंच पे वो भी लेट गया। मच्छरों की चुभन हम महसूस कर रहे थे जो जागने में हमारी मदद कर रहे थे, रात बहुत हो चुकी थी और अब डर भी लग रहा था। इंतज़ार था तो बस अंकल के एक कॉल का की कब वो कहें की हमलोग  गाँधी सेतु पंहुच रहे हैं और हम चैन की सांस लेते। आधी खुली आँखों से हम सो रहे थे, तभी मुझे लगा की आलोक के बैग की तरफ कोई बढ़ रहा है अचानक डर सा लगा। फिर भी मैनें  जानबूझकर कहा आलोक जग रहे हो ना और उसने भी कहा हां भैया और वो इंसान ये सुनकर वहाँ से जा चुका था। फिर हमलोग एकसाथ एक ही जगह बैठ गये। 

                                               रात के 2 बजे 21 और 16 साल के दो लड़के जिनके आँखों से अब  नींद भी गायब थी उस सुनसान सी जगह पे बैठे थे तबतक मेरे फोन की बैटरी वॉर्निंग देने के बाद जवाब दे गयी थी। अब उस हाइवे पे आती-जाती गाड़ियों की आवाज़ भी डरा देती थी, तभी आलोक का फोन रिंग हुआ उसके पापा थे कॉल पे, सुकून मिला मुझे की अब आ ही जाएँगे वे, और मैं आलोक के चेहरे के भाव पढ़ने की कोशिश कर रहा था, कॉल काटते ही मैंने पूछा क्या हुआ, आलोक ने कहा पापा बस 2 से 3 घंटे मे यहां होंगे। मैंने सोचा आज की सुबह यही गाँधी सेतु पर होने वाली है, पर ऐसी सुबह का क्या कहें जिसमे आप मुस्कुरा नही सकते, दिन आँखों मे नींद लिए गुज़रेगी। यही सब सोचते डर पे विजय पाते, सन्नाटे को चीरती गाड़ियों के शोर के बीच अंधेरा अब कोसो दूर जा चुका था।

                                              ये 15 मई की सुबह थी, हल्का नीला आसमान सामने नज़र आ रहा था पर उजाले को अब भी सूरज का इंतेज़ार था, चाय की एक दुकान खुली नज़र आई मैंने और आलोक ने चेहरे धोए और जैसे ही मैंने कहा चाय पीते हैं। तभी फिर आलोक का फोन रिंग हुआ और अंकल ने कहा हमलोग पुल पर हैं और एक अजीब सी शांति मैंने महसूस की थी 'आख़िरकार सुबह हो ही गयी हमारे लिए' और अगले पाँच मिनट में एक सफेद कलर की एंबुलेन्स हमारे सामने खड़ी थी। आलोक के पापा बाहर आए और कभी ना ख़तम होने वाले इंतेज़ार के बाद 3-4 शब्द कहे  होंगे उन्होने। ज़बान कम और आँखें ज़्यादा बात कर रहीं थीं। आलोक उनके साथ एम्बुलेंस मे बैठ चुका था जो आँखों से ओझल हो रही थी और मैं अकेला वापस अपने फ्लैट पर लौट रहा था ये सोचते हुए की ऐसी रात से फिर कभी सामना ना हो। 

                                         पर कहते हैं ना वक़्त खुद को दोहराता ज़रूर है, एक और ऐसी ही रात गुज़री 2013 सितंबर मे दास्तां ज़रूर सुनाऊंगा इसकी भी क्यूंकी ये भी थे "ठहरे लम्हे"।

 

 


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