ठेलेवाला
ठेलेवाला
गुमसुम बैठा था वो सड़क के उस पार, जितनी तेज़ी से शाम ढल रही थी, उतनी ही तेज़ी से उसके चेहरे से उम्मीद का रंग उतर रहा था, सुबह से सिर्फ़ एक ही बर्तन बिका था ! पर वो जगदीश के घर के सारे बर्तन भर सके, उतनी पूँजी जमा नही कर पाया था।
मुसाफ़िरों से नज़रे चुराकर जमा हुए १०० रूपे को देखकर उसने चंद पलो के लिए आँखें बंद कर ली, प्रार्थना की या कोसा ख़ुद को पता नही कर पाई मेरी समझ। पर ये बात तो पक्की थी कि
उन चंद पलो में उसने राहुल को खीर खिला दी, रशमी को गुड़िया ख़रीद दी और सरोजिनी को नये कंगन, हालात की पकड़ इतनी मज़बूत थी कि वो आँखों से ही आँसुओं को पी गया और बर्तन का ठेला लेकर घर की ओर निकल गया। मेरी नज़रे उसे अगले मोड़ तक छोड़ आई पर मेरी समझ उसी बंध आँखों पर ही रूकी थी, सबकी ख़्वाहिशें तो उन चंद पलो मे माँग ली पर क्या उन आँखों के पीछे कुछ ख़्वाब उसके भी बसते होंगे ?
क्या ठेले के बर्तनों से भी वो सस्ते होगे ?
क्या अब वो ज़िंदा भी होगे ?
कितनी घिसी होगी उसकी मुस्कुराहट भी उन हालात से जो अब नज़र भी नही आती ?
ये सब शायद मेरी समझ से परे था, बस इतना पता था कि उस रात राहुल और गुड़िया भूखे पेट नही सोये होंगे...।