सुखी पुरिया
सुखी पुरिया


पांच बेटे एक बेटी कि मां और तीन बहुओं कि सासू मां साफ सुथरी सामान्य सी साड़ी पहने झुर्रियों वाली त्वचा लिए एक छोटे से मुख वाली मितभासी मोहल्ले की सबसे उम्रदराज महिला जी हां मेरी दादीजी। मोहल्ले भर मै सब उन्हें अम्मा जी कहकर बुलाते थे मितभासी और माधुभासी दोनों का अच्छा सयोंजन मधुभासी इतना कि मोहल्ले मै कोई भी कार्यक्रम हो जब तक अम्मा ही यानी हमारी दादीजी नहीं पहुंचती गीत शुरू नहीं किए जाते थे।उपर से उस मोहल्ले मै सबसे शुरुआती घर हमारा था। बाबा जिन्हें हम बाउजी कहते थे सरकारी स्कूल के हेडमास्टर थे एक दुर्घटना में उनका सीधा हाथ पंजा टूट गया था गाने बजाने के शोक था शास्त्रीय संगीत में रुचि थी और आसपास के इलाकों में बहुत नाम भी था और हाथ टूटने के बाद भी उनके संगीत में कोई कमी नहीं आयी रात बिरात वो अपने संगीत के कार्यक्रमों में जाते रहते थे जवान बेटो के मना करने के बाद भी भी खैर उनकी काफी इज्जत थी।और हमारी अम्माजी कि भी। वे खाना बहुत स्वादिष्ट बनती थी और कभी कभी तो साधारण सी चीजों को भी बहुत ही स्वादिष्ट बना देती थी एक बात जो उनको ना पसंद थी वो थी खाने की बरबादी जिसे वो हरगिज बर्दाश्त नहीं करती थी और अगर किसी ने ऐसा किया तो उसे झड़क देती थी कि इनको तो लगता है सब सित- मात में थोड़ी ना आता है।कल से उतनी ही रोटी मिलेगी जितनी कहोगे ना एक फालतू ना एक कम तुम सब ऐसे नहीं सुधरोगे।और पता नहीं क्या क्या।
एक बार कि बात है अम्माजी जी कार्तिक नहाई थी अब उनकी उम्र भी ज्यादा हो। गई थी तो अब उनको कार्तिक का उद्यापन करना था। क्यूंकि कार्तिक स्नान में सर्दियों में 4 बजे नहाकर मंदिर जाना होता है पूरे महीने भर तक और उनकी बढ़ी उम्र इस बात की इजाजत अब और नही दे सकती थी।
जैसे जैसे समय आने लगा तैयारियां अधिक तेजी से होने लगी। तो उसमे कुछ हरिकीर्तन हरि कीर्तन भी होना था तो उसके लिए अलग से इंतजाम किए गए अगले दिन भोजन प्रसादी का आयोजन था।
नियत समय पर रात्रि के समय भगवान के कीर्तन और भजन का कार्यक्रम शुभारंभ क्योंकि हमारे दादा जी का शास्त्रीय संगीत में रुचि थी और एक सम्मानित नाम था उनका आस पड़ोस के क्षेत्र में तो शास्त्रीय संगीत में गाने बजाने वालों की हमारे पास कमी न थी एक से बढ़कर एक भजन लोगों ने गाएं और सभी लोगो ने आनंदपूर्वक भावविभोर होकर पूरी रात भजन कीर्तन का आनंद लिया बीच-बीच में चाय की चुस्की उसका भी मजा आता रहा। सुबह-सुबह हलवाई आ गया और उसने खाने पीने का तैयारी शुरू कर दी चौकी कम से कम 300 से 500 लोगों का खाना था।
समय पर भगवान के भोग लगाकर कन्या अबे ब्राह्मणों को भोजन कराने के पश्चात देवताओं के लिए भोजन निकालने के पश्चात भोजन प्रसादी का शुभारंभ हुआ काफी लोग आए और अच्छी तरह से कार्यक्रम संपन्न हुआ ।
मुझे मुझे अच्छे से याद है खाने के पश्चात हमारे घर पर बहुत सारा भोजन बचा हुआ था इसमें कई तरह की मिठाइयां थी और गुड़िया भी बहुत सारी थी हम सब ने दो-तीन दिन तक खूब सारी मिठाइयां खाई और सर्दियों का भी भरपूर आनंद उठाया सर्दियों के दिन थे तो कुछ सामान खराब भी ना हुआ
दिन बाद जब अम्मा ने देखा की पुड़िया अब सूख रही है और इन्हें अब फेंकने भी पड़ सकती है
तो उन्होंने एक अलग ही उपाय अपनाया उन्होंने सारी पूरी हो धूप में सुखाने के लिए रख दिया सारे घर वाले पूछ रहे थे कि तुम क्या कर रही हो अम्मा का जवाब था कि यह सारी पुड़िया खराब हो जाएंगे इस से अच्छा है कि इन्हें सुखा कर बच्चों के लिए अच्छा सा चूरमा बनाएंगे क्योंकि पुड़िया देसी घी में बनाई गई थी इसलिए अम्मा के मन में ऐसा विचार आया ऊपर से वह कभी भी खाने की बर्बादी नहीं देख सकते थे घर सभी बेटो ने मना किया एक बेटे ने तो कुछ एक किलो पुड़ियों चुपके से गाय को डाल दिया पर कहा तक डालता अम्मा के सामने किसकी चलने वाली थी। उन्हें खाने की बर्बादी पसंद ना थी और हो भी क्यों एक गरीब परिवार से ताल्लुक रखती थी ऊपर से पति के सर से बचपन में ही माता का साया उठ चुका था माली हालत ज्यादा ठीक नहीं थी दाने दाने का हिसाब रखना पड़ता था पति ने अपने दम पर पढ़ाई करके सरकारी नौकरी हासिल की थी तो पैसे की कद्र उनको पता थी आखिर में किसी की ना सुनते हुए उन्होंने अच्छे से उन पुड़ियों को सुखाया और जब पुड़िया अच्छी तरह से सूख चुकी थी तब उन्होंने एक इमाम दस्ता लिया और सारी ऑडियो को बारी पीस लिया फिर उसमें गरमा गरम की और बूरा मिलाकर सभी बच्चों को खिला दिया अम्मा के हाथ की बनी हुई चीज हो और घर का कोई बच्चा उसे मना कर दे यह कहां मुमकिन था छोटे-मोटे मिलाकर घर में कुल 6 बच्चे थे और छह की छह बच्चों ने कुछ ही देर में वह चूरमा भरपेट खा लिया बिना किसी के डांटने की चिंता के आज भी इतने बार घर में चूरमा बना पर उसके जैसे स्वाद कभी ना पाया शायद वह उनकी बलवती इच्छा थी जो उसे इतना स्वादिष्ट बना पाई। या यूं कहें कि वह सिर्फ पुड़िया नहीं थी वह मेरे लिए जीवन की एक बहुत बड़ी सीख थी जो आज भी मेरे साथ मेरे जेहन में है।
आज अम्मा बाउजी को गए हुए 10 साल से ज्यादा हो गए आज भी जब कभी उनकी याद आती है तो यह किस्सा मेरे जेहन में हमेशा ताजा रहता है आज भी उनकी यही सीख मेरे काम आती है मैं कभी अपनी थाली में झूठा नहीं छोड़ता जितना लेता हूं उतना खाता हूं और आज के जीवन में यह तर्क बहुत तार्किक भी है कि हमें खाना व्यर्थ नहीं करना चाहिए जितनी बुख हो उतना ही लेना चाहिए और जितना लिया है उतना खाना चाहिए क्योंकि आज कृषि के लिए योग्य भूमि दिन पर दिन कम होती जा रही है खेती में कम होती किसानों की आय और विपरीत परिस्थितियां खेती के बिल्कुल भी अनुकूल नहीं है कभी गर्मी का ज्यादा होना कभी बारिश ना होना कभी भिन्न भिन्न प्रकार की मौसमी विविधताये कृषि को बहुत ही मुश्किल बनाती जा रही है ऊपर से किसान को अपनी मेहनत के अनुसार कीमत ना मिलना बाजार भाव से बहुत कम मूल्यांकन कृषि की बेकार हालत का जिम्मेदार है सरकारों को इस पर कदम उठाना चाहिए मैं शुक्रगुजार हूं हमारे प्रधानमंत्री जी का जिन्होंने खाने की मितव्ययिता को लेकर एक पहल की शुरुआत की थी। क्योंकि हमारे रिसोर्सेज संसाधन सीमित है और हमें उन पर ही निर्भर रहना है हमारे प्राकृतिक संसाधनों को को पैदा नहीं कर सकते हमारी धरती सीमित है हमारे लिए पानी सीमित है इसलिए हमें अपने संसाधनों के प्रति जागरूक होकर होकर उनका मितव्यता से उपयोग करना चाहिए। मैं शुक्रगुजार हूं मेरी दादी जी का ये सीख मेरे साथ ऐसी जीवन भर रहेगी।