सुख की अनुभूति
सुख की अनुभूति
घटना छोटी सी.. पर अविस्मरणीय है करीबन दो वर्ष पूर्व में लखनऊ गई हुई थी। गर्मियों की छुट्टी के दिन थे पर मायके जाने के लिए... गर्मी-सर्दी कौन देखता है ... मैं मायके गई हुई थी, अब मायके जाकर शॉपिंग नहीं करी तो सब बेकार ...हां भाई !पुराने दिनों को याद करते हुए मैं भी अपनी बेटी के साथ बाजार निकल गई। अब क्योंकि मैं मुंबई निवासी हो गई हूं, तो लखनऊ की चिकनकारी से प्रेम ज्यादा ही बढ़ गया है.. तो जब भी वहां जाती हूं तो कुछ ना कुछ नया ले ही आती हूं। उस दिन भी मैंने ढेर सामान लिया चिकन के सूट, साड़ी और साथ ही न जाने कितनी चीजें और वहां से नाश्ते का भी काफी समान लिया ,अंत में गरमा-गरम समोसे जो लखनऊ की खासियत है वह भी ले लिए। धूप तेज थी तो कैब बुक कर उसका इंतजार कर रही थी कि तभी छ: सात वर्ष का बालक पीछे से आवाज देने लगा.. "दीदी ओ दीदी!" मैंने पीछे मुड़कर देखा तो मुझे लगा कि बच्चा भीख मांग रहा है.... मुझे बुरा लगा क्योंकि आजकल तो लोग बच्चों से जबरन भीख मंगवाते हैं पर फिर उसने मेरा हाथ पकड़ लिया... मैं गुस्से से उसे डांटने ही वाली थी कि मेरा ध्यान उस पर पूरी तरह चला गया भरी चिलचिलाती धूप में नंगे पैर, लाल चेहरा ,रूखे बाल और शरीर पर वस्त्र के नाम पर फटी लाल बनियान जो उसकी उम्र से बड़ी लग रही थी पहने हुए था, साथ ही उसकी कातर निगाहें... जिसने मेरे गुस्से को पिघला दिया, अपने सूखे होंठ से वह कह रहा था---- "दीदी खाने को दे दो... कुछ खिला दो..". वह मेरे हाथ में पकड़े झोले (बैग्स) को देख रहा था। मैंने पूछा---- "क्या खाओगे बेटा ? उसकी आंखें चमक उठी मानो कोई निधि मिल गई हो।" थोड़ा उत्साहित सा हो बोला-- "दीदी वह ठेले पर गरमा-गरम जलेबी और कचौरी मिल रही है वही खिला दो मुझे बड़ी भूख लगी है... मुझे वहां से लोग भगा देते हैं।" मैं मूक, हैरान सी उसे देख रही थी... उसकी बातें सुन रही थी। मैंने ठेले वाले से कहा----" भैया एक प्लेट कचोरी और जलेबी देना और हां! दो समोसे भी देना इस बच्चे को..." उसके यहां भीड़ बहुत थी.. उसने बच्चे की तरफ देखा और बोला--- " आप पैसे दे दीजिए मैं इसे बाद में खिला दूंगा।" लोग बच्चे को देख दूर हो रहे थे--- यह कैसी इंसानियत है आखिर बेचारा बालक ही तो है फिर मैंने थोड़ा कड़ाई से कहा--" आप पहले इस बच्चे को दीजिए, तभी मैं यहां से जाऊंगी.. साथ ही कहा कि यह बच्चा वास्तव में भूखा है। एक-दो लोगों ने मेरा साथ दिया और उसने उस बच्चे को खाने के लिए दे दिया।
जब वह बच्चा खा रहा था उसकी आंखों की चमक देखने लायक थी। मानो कितनी दुआएं दे रहा हो। सच कहूं तो जो आनंद मुझे उस दिन उस बच्चे को खाना खिला कर मिला... उतना आनंद तो मुझे शॉपिंग में भी नहीं मिला था।
संदेश-- इस संस्मरण के माध्यम से मैं यह संदेश देना चाहती हूं कि सदैव आगे बढ़कर जरूरतमंदों की मदद करनी चाहिए.. उसी में परमसुख की प्राप्ति होती है।
