सपनों की बारिश

सपनों की बारिश

5 mins
15K


कच्ची सड़कें, भरी हुई नालियाँ, कीटनाशक की गाड़ियाँ, और बिजली की लुका-छिपी। संकेत साफ़ थे, बारिश का आगमन जो हुआ था, अभी तो मूसलाधार बारिश भी आने को थी। यह तो मेहमान नवाज़ी की तैयारी थी, असली मेहमान के आने से पहले। हर साल की यही कहानी थी, शहर की बारिश में किताबों जैसा कुछ नहीं था, न भीगी मिट्टी की खुशबू, न नम घास, और न बहती नहरों में नहाना, सब कुछ इसके विपरीत था, जैसे अंग्रेजी का "पैरेलल यूनिवर्स". भीगी मिट्टी की जगह गीले पड़े कचरे की दुर्गन्ध, नम घास की जगह दीवारों की सीलन, और नहरों की जगह नालियों के पानी में चलना ही यहाँ की बारिश का वर्णन हो सकता है, ना जाने कौन से कवि थे जो पता नहीं कौन सी दुनिया की बारिश का आनंद उठा कर आये थे। लगता है कवियों को कोई स्पेशल कोटा मिलता है, वरना हम तो जनरल कैटगरी वाले थे ऊपर से कवि कोटा भी नहीं। ऐसी ही बेकार पड़ी ज़िन्दगी में बस पकौड़ो का सहारा था। आह! क्या स्वाद होता है गरमा गरम पकौड़ो का उस हरी चटनी के साथ, सोचते ही मुँह में पानी भर आता है। खिचड़ी से अच्छा तो पकौड़े है राष्ट्रीय व्यंजन बोलने के लिए, कोई धर्म तक सीमित नहीं, स्वादिष्ट, कुरकुरे और हर घर मे हर रूप में बनने वाले, पकौड़े। पकौड़ो का रुतबा इतना ऊँचा हैं कि हमारे प्रधानमंत्री ने भी उसके बारे में बोला है अपने मन की बात में। अब तो पकौड़े खाने ही होंगे, सड़कों पर बहुत दुकानें है, लकड़ी से लेकर ग्लास की दुकानें भी है। इंसान अपनी औकात और हिसाब से दुकान चुनता है, पर मैं स्वाद से। आसमान को बादलों ने घेर रखा है, गीली सड़को को अभी और गीला होना है और मुझे पकौड़ो का मज़ा लेना है। दुकान ढूंढने की ज़रूरत नहीं, क्योंकि कोई दूकान हैं ही नहीं, मेरे स्वाद की चाभी और खालीपन का साथी एक 20-22 साल का लड़का है, जो ठेले पर पकौड़े बेचता है और गली-गली घूमता है। हमारी गली में ठीक 5 बजे आता है। पिछले एक महीने से ही मेरा नया प्यार बना है यह लड़का, जिसका नाम है शिखर। मैं पतलून सँभालते हुए गीली सड़कों से बच-बचाकर उसके पास पहुँचा और रोज़ की तरह ₹40 के पकौड़े देने को बोला। आज मेरे जल्दी पहुँचने की वजह से अभी कोई और ग्राहक नहीं आया, तो मैं मुखर स्वभाव का आदमी उस चुपचाप रहने वाले लड़के से बाते करने लगा, नाम तो पता ही था, अब काम धंधा, घर और पकौड़ो का राज़ जानना बाकी था, स्टार्ट-अप्स का जो चलन है, पकौड़ो का सबसे ज़्यादा! तो कहानी शुरू हुई,

"शिखर की कहानी उसकी ज़ुबानी"

नाम शिखर, गाँव छापुर, उत्तर प्रदेश, घर में सबसे बड़ा, और पाचवीं पास, माँ बाप दोनों खेती बाड़ी करते थे, बाप पे कर्ज़ा था। बारिश नाम की होती थी, पर फ़सल कभी सड़ी नहीं, इंद्र देव की कृपा थी, खाने की कभी कमी नहीं हुई, किश्त समय पर जा रही थी, और ज़िन्दगी आराम से कट रही थी। बारिश का मौसम तोहफ़ा था, मिट्टी की खुशबु, बहती नहरों में नहाना और मंद हवाओं में पतंग उड़ाना। हमारे यहाँ आलू, मिर्च और मूली की फसल उगती थी, शहर से एक आदमी आता था, जो फ़सल के दाम देकर शहर जाकर बेच देता था। आम ज़िन्दगी में अगर कुछ ख़ास था, तो वो थे यह पकौड़े, हम थोड़ी-सी मेहनत अपने पास ही रखते और माँ उन महीनों की मेहनत के पकौड़े बनाकर सफ़ल करती थी। पूरे गाँव में मशहूर ये पकौड़े, साहूकार को भी खुश करने के काम आते थे। घर का बड़ा बेटा होने के कारण मैं हाथ बटाते-बटाते यह जादू बनाना सीख गया। एक दो बार तो शहर वाले साहब भी बोले, कि इनका तो स्टार्ट-अप कर सकते है। 'स्टार्ट-अप? जो शब्द बोला भी नहीं जा रहा, उसका मतलब जानना तो दूर की बात है, ख्याली पुलाव हैं', यह बोल माँ हँस देती। आखिरी किश्त बची थी अब बस बारिश का इंतज़ार था, और हमें पकौड़ो का, पर पता नहीं इंद्र देव किस बात से ज़्यादा खुश हो गए और अगले 2 साल तक इस मौसम में मूसलाधार बारिश कर दी। खेत और हमारे अरमान दोनो ही पानी-पानी हो गए। कर्ज़ा बढ़ता गया, और पकौड़े भी नहीं रहे लुभाने को, तंग आकर एक दिन बापू ने वही किया जो बाकी सब करते हैं- आत्महत्या।

अँधेरे मे डूबती जिंदगी मे वो अकेले नहीं थे, माँ थी, हम थे, पर जाते वक़्त उन्हें कुछ याद नहीं रहा, चले गए हम पर बोझ डाल कर। उस वक्त तिनके का सहारा बनकर आये, शहर वाले साहब, जिनके सहारे मैं शहर आया। हमेशा सोचता था बड़ा होकर नौकरी करूँगा और खूब पैसा कमाऊंगा, पर अब शहर सपने जीने नहीं, सपनों के लिए मरने आया हूं। लोग हँसे, जब मोदी जी ने बोला पकौड़े बेचना भी रोज़गार हैं। तब मुझे गर्व हुआ कि जिस बारिश ने मेरा सब कुछ तबाह कर दिया, आज उसी बारिश में मेरे सपने बिकते है। दिन के ₹300 कभी ₹500 भी, पर यहाँ की बारिश मे वो बात नहीं, जो गाँव की बारिश में है। अगर गाँव की बारिश बगावत कर जाये तो लोगों के सपनें भी चूर और कभी-कभी खानदान भी लेकिन यहाँ मुझे यह डर नहीं सताता। अब मेरा एक ही सपना है, "शिखर पकौड़े", इस शहर की सबसे बड़ी दुकान, आप भी आईयेगा साहब, कम दाम पर दूंगा आपको।

कहानी ख़त्म हुई, और प्लेट मे रखे मेरे पकौड़े भी, सिर्फ एक सवाल पूछ पाया,

जब बारिश नहीं होती, तब क्या करते हो?

गाँव जाता हूँ, फ़सल उगाता हूँ, बाकी भाई बहन कटाई कर देते हैं, समय आने पर।

उसने इतना बोला, तब तक और ग्राहक भी आ गये। मैं बिना कुछ बोले निकल आया, पर मन में बहुत कुछ था, जिसे कुछ वाक्यों मे बोलो तो-

सपनें छोटे भी होते हैं, और बड़े भी, कई बार आप सपनें देखते है, कई बार आपके हालात सपने बनाते है। जिस बारिश ने उसका सपना तोड़ा, उसने उसी से दोस्ती कर ली, मिट्टी की खुशबू, नहरों का पानी छोड़ उसने सपनों के लिए अपनी जड़ को ही न्योछावर कर दिया। इन सबसे एक बात और पता चली की किताबों में लिखी बारिश तो सच है, पर उसकी बगावत और अहमियत की कवियों को भी खबर नहीं, यह बारिश और सपनों की कहानी नहीं, बल्कि इस कहानी का नाम है-

"शिखर के सपनें शिखर तक पहुँचने के"


Rate this content
Log in

Similar hindi story from Drama