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सफर और हमसफर

सफर और हमसफर

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जब छोटे थे तो सफर का बहुत शौक था, बस गाड़ी में घूमने का मौका मिलना चाहिए।

जब रामसुखदास जी ने नोखा में सप्ताह का पाठ किया था तब यही कोई 7-8 वर्ष की ही उम्र होगी। तब सिर्फ बस में हिंडा खाने (घूमने के लिए) ही रोज नोखा जाता था।

जैसे-जैसे बड़े हुए अधिक मौके मिलने लगे घूमने-फिरने के पर शौक अभी भी उतना ही था....कम नहीं हुआ।

अभी भी बहुत शौक है सफर करने का.....चाहे वो ट्रैन का हो या बस का हो भले ही बाइक का.....जुनून उतना ही है।

सफर जब ट्रैन का हो तो अधिकांशतया स्टेशन पर उतर के चहलकदमी करना.....बस के सफर में फ़ोन ज्यादा साथ निभाता है।

शौक अभी भी वैसा ही है, फिर से निकल पड़ा हूँ और 1000 किलोमीटर के सफर पर। ट्रैन में हूँ और नेटवर्क सही से आ नहीं रहा है तो सोचा उनके लिए कुछ लिखूँ।

लोग सही कहते हैं कि सफर तो उनका होता है जिनके साथ हमसफ़र होते हैं। सफर का शौक तो मुझे बचपन से ही है और मौके भी खूब मिले भी है। पहले इस बात का कभी अहसास नहीं हुआ था कि हमसफ़र के साथ सफर का आनन्द कैसा होता है इसलिए इतना ज्यादा यकीन नहीं था।

जबसे आप इस सफर में आये हो तब से मेरा हर सफर रोमांचित हो गया है। यात्रा के दौरान रात्रि में कितनी ही बार फ़ोन का कट जाना लेकिन फिर भी हम दोनों का इस तकनिकी दुनिया के साथ लड़ना और बार-बार कॉल वापस करना और फिर सुबह दोनों को याद नहीं कि नींद कब आयी थी।

कोच, स्टेशन, खटारा वाले पंखे और यहाँ तक कि खडूस वाले टीसी तक भी मुझे अच्छे लगने लगे हैं। सह यात्रियों से हँस के बात करना और जितना हो सके सबकी मदद करना ये सब आदतें अब और मजबूत हो गयी है।

बातें भी तो क्या होती है- "और सुनाओ।

"क्या सुनाऊँ।

"कुछ भी।"

"कुछ भी क्या।

लेकिन फिर भी आपकी आवाज सुनने को हमेशा दिल करता है और आपकी आवाज सुनता हूँ तो ट्रैन की ये कर्कश ध्वनि भी कर्णप्रिय सी लगती है।

अभी से जो आप इस "हमसफर धर्म " को इतना अच्छे से निभा रहे हो। ये हमेशा ऐसे ही निभाते रहना।

गाना सुन रहा था "तेरी साँसे चलती जिधर रहूँगा बस वहीं उम्र भर.......सुन मेरे हमसफ़र....नहीं पढ़ मेरे हमसफ़र।


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