सिलसिला

सिलसिला

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हर तरफ कत्लो -गारद का भूचाल, चीखों - चिल्लाहटों का जंगल, , आग, तलवारें, पत्थर, चाक़ू, डंडे, पेट्रोल के जलते हुए गुब्बारे, तेजाब की बारिश और बमों के धमाकों के बीच  दरिंदगी की चादर में लिपटे वहशियाना खेल के साथ निहत्थों की चीख - पुकार, तड़पने के बाद शांत होते हुए जिस्म और फिर दहशत से भरा भुतहा सन्नाटा।

उन वीभत्स्व घंटों में सब कुछ देखने और भुगतने के बाद वे दोनों अपनी मैयत से बाहर निकल चुके थे।असल में निकाल कर फेंक दिए गए थे।अब उनके करीब न कोई दहशत थी, न कोई डर था, न कोई खुनी जूनून था और न नफरत से भरा कोई दर्द था।उनकी रूह हर तरह के कत्लो - गारद के जूनून से आजाद थी। हाँ ! वे अपने कटे - फ़टे जिस्मों को जरूर देख रहे थे जो नाले के कीचड़ को चीरकर झांक रहे थे।

दोनों ने एक - दूसरे को हमदर्दी की नजरों से सहलाया।  

" अबे ! तू कैसे आजाद हुआ ?"

" जैसे तू। "

" मुझ पर तो पेट्रोल का बम आकर गिरा था, जब मैं वहशी भीड़ को देख कर भागा था। "

" मुझे घेरकर वे एक घर में ले गए थे और वहां मुझे उन्होंने चाकुओं से गोद दिया था।"

" बाजार जाना मेरी मजबूरी थी। मैं अपनी बीमार माँ की दवा ला रहा था, पर तू उनके हत्थे कैसे चढ़ा ? "

" मैं तो अपने उस घर के बाहर खड़ा था जिसे वे खरीदना चाहते थे और मेरी उसे बेचने में कोई दिलचस्पी नहीं थी।" 

" इसीलिए उन दरिंदों ने तेरा कत्ल कर दिया ? बड़ी हैरत की बात है।'

" तुझे भी तो उस भीड़ ने बेवजह मारा। समझ में नहीं आया कि वहशीपन का ये जंगल ऊगा कैसे ? "

" इस जंगल के दरिंदें तो अब भी अपने ऐशगाहों मेंआराम से अपनी रंग - रलियों में मस्त हैं। " 

" वो तो दिख ही रहा है पर अब हम तो यहां आ गए हैं। वहां क्या चल रहा होगा ? "

" ये वो सिलसिला है बरखुरदार जो इस अभागे देश में सालों से नहीं, सदियों से चलता आया है और अब किसी भी तरह इसे चलने से रोकना जरुरी है। इसे चलने नहीं दिया जा सकता। जाओ अब आराम कर लो।"


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