CA Mukesh Rajput

Inspirational

4.7  

CA Mukesh Rajput

Inspirational

सी.ए. स्टूडेंट की सच्ची कहानी - सीए पास दी रियल स्टोरी

सी.ए. स्टूडेंट की सच्ची कहानी - सीए पास दी रियल स्टोरी

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अगर आपने संघर्ष और सकारात्मकता को अपना हमसफर बनाया है तो सफलता मिलना तय हो जाता है क्यूंकि हर संघर्ष करने वाला कभी न कभी मंजिल पे ज़रूर पहुँच जाता है। पर आज में जब देखता हूँ कि  एक ज़रा सा एक पेपर बिगड़ जाने पे बच्चे आत्महत्या कर लेते हैं....दोस्तों के बीच ज़रा सी बेईज्ज़ती हो जाये तो टूटने लगते हैं...एक छोटी सी ज़िम्मेदारी भी निभानी पड़ जाये तो बिखर जाते हैं....ऐसे में जब अपनी ज़िन्दगी के सफ़र के बारे में सोचता हूँ तो बड़ा गर्व महसूस होता है...वो इसलिये नहीं कि मैं आज एक कामयाब C A हूँ और मैंने अपनी मंजिल पायी है बल्कि इसलिये कि मैं जिन परिस्थितियों में यहाँ तक पहुंचा हूँ, जिन रास्तों से गुज़रकर यहाँ तक आया हूँ उन पर किया गया संघर्ष मुझे इसकी इजाजत देता है ।

बड़ा कमाल का सफ़र था मेरी कहानी का...., जन्म हुआ तो एक ऐसे परिवार में जहाँ पहले से ही ग़रीबी ने डेरा डाल रखा था । मेरा गाँव पिपरिया, मेरी माँ, पिताजी, मैं और मेरे बाद मेरा छोटा भाई और बहन इतना ही परिवार था हमारा । अभी मैं तीसरी कक्षा में ही पहुँचा था कि जल्दी ही मेरा सामना दर्द से भी हो गया, जब एक छोटी सी ग़लती पर पिताजी का झन्नाटेदार थप्पड़ मेरे गाल पे पड़ा..., उस दिन मैं जोर जोर से रोया क्यूंकि उस उम्र में रोना तो जैसे एक अधिकार होता है... पर ज्यादा देर तक रोना नहीं पड़ा..,माँ जो आ गयी थी मुझे बचाने के लिये ।

उस दिन के बाद तो ये अक्सर होता था...पिताजी थोड़े शक्की मिज़ाज के थे जिसकी वजह से छोटी छोटी बातों पे माँ और पिताजी के बीच झगड़े होते..और पिताजी, माँ की पिटाई कर देते... मेरी भी पिटाई हो जाती कभी कभी, पर मुझे बचाने को तो माँ आ ही जाती थी...बस मैं ही माँ को नहीं बचा पाता था....बच्चा जो ठहरा ।

ऐसा नहीं था कि मेरे पिताजी बुरे इंसान थे या उन्हें हमारे दर्द का अहसास नहीं था, पर परिस्थितियों ने उन्हें गुस्सैल और चिड़चिड़ा बना दिया था । पर ये बात उस वक्त एक पाचवीं क्लास के बच्चे को कैसे समझ आती ... रोज रोज के झगड़ों से मैं परेशान हो गया और एक दिन घर से भाग कर ट्रेन में चढ़ गया और इटारसी जा पहुँचा, मैं इटारसी होता हुआ भोपाल आ गया... घर छोड़ तो दिया था पर रहूँ कहाँ और करूँ क्या ? एक 8 – 9 साल का लड़का, जिसका कोई संरक्षक न हो और जो नए शहर से बिलकुल अनजान हो, उसके सामने दो ही रास्ते होते हैं या तो वो भीख मांगने लग जाये और फुटपाथ पे सोये या फिर किसी ढाबे या चाय की दुकान पे काम करे । तो मैंने दूसरा रास्ता चुना... जिससे मुझे रहने की जगह और खाने को भोजन तो मिलने लगा पर ऐसी जगहों पर शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना बहुत झेलनी पड़ती है, मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही होता रहा और मैं एक कटी हुयी पतंग की तरह ठिकाने बदलता रहा...., कभी चाय की दुकान...,कभी नाई की दुकान...कभी टेलर तो कभी किसी के घर का काम.....कभी भोपाल तो कभी इंदौर ।

इस तरह ठिकाने बदलते बदलते एक दिन मैं निकल पड़ा मुंबई के लिये, बिना कुछ सोचे..,बिना किसी तैयारी के....। दुनियां में अगर बुराई है तो अच्छाई उससे ज्यादा है, इस बात का अहसास मुझे ट्रेन में हुआ जब एक अंकल ने मुझसे मेरे बारे पूछा, मुझे समझा, खाना भी खिलाया और कल्याण में अपनी पहचान की एक दुकान पर मेरी नौकरी भी लगवा दी । वो एक कबाड़ की दुकान थी और जिसके मालिक वहीद कुरैशी जी थे । दुकान के साथ साथ मैं उनके घर का काम भी करता, उन्हें अब्बू और उनकी पत्नी को अम्मी बुलाता, अम्मी भी मुझे अपने सगे बेटे की तरह ही रखतीं..., कभी कभी मुझे मदरसा भी भेजा जाता तालीम के लिये.... इस तरह करीब 1 साल गुज़र गया, अम्मी ने मुझे अपनी पहचान की एक आंटी का पता दिया और बोला तू वहां चला जा, वो एक गुजराती परिवार था.., उन्होंने मुझे रख तो लिया पर मेरा मन वहां नहीं लगा और जल्दी ही मैंने वो नौकरी छोड़ दी । अब अगले कुछ दिनों का दाना पानी पेंटर बाबू के यहाँ लिखा था उनकी पत्नी अम्मी की पहचान की थी और मुझे भी जानती थीं तो अपने साथ ले गयीं और इस तरह मैं पेंटर बाबू की झुग्गी में रहने लगा । उनके पास बहुत ज्यादा काम तो था नहीं ऊपर से मेरा खाना खर्च, तो उन्होंने मुझे एक गुप्ता जी की होटल पर लगवा दिया कोल्सेवाड़ी कल्याण की दुकान पे रखवा दिया (फोटो -1) और पगार खुद लेने लगे..., मैं भी खुश था कि चलो रहने, खाने को तो मिल ही रहा है । वो चाय की दुकान कैनरा बैंक के पास में थी और बैंक में चाय भिजवाई जाती थी, मैं अक्सर चाय ले के बैंक जाता..., पर जब भी मैं बैंक में बैठे लोगों को काम करते देखता मुझे बड़ा अच्छा लगता और मन में एक ख़याल आता कि काश मैं भी उनकी तरह बैंक में काम करूँ....., (फोटो -2) ये शायद मेरा भविष्य था जो मुझे अपनी ओर आकर्षित कर रहा था । खैर....एक दिन मैं पेंटर बाबू के साथ पेंट खरीदने एक दुकान पे गया जहाँ से वो अक्सर पेंट खरीदते रहते थे, तो उस दुकान के मालिक चन्द्रवली सिंह राजपूत जी ने मेरे बारे में पूछा और जब उन्हें पता चला कि मैं भी राजपूत हूँ तो उन्होंने पेंटर बाबू से कहा कि मुझे उनके पास छोड़ दें, पेंटर बाबू मान गये और इस तरह मुझे मेरा एक और परिवार मिल गया (फोटो -3)।

मैं खूब मन लगा के काम करता सब लोग मुझ से खुश रहते, तभी बाबू जी को कुछ दिनों के लिए परिवार सहित गाँव (बहाउद्दीनपुर उ.प्र.) जाना था तो मुझे भी अपने साथ ले गए जहाँ मेरी मुलाकात एक ऐसे स्टूडेंट से हई जो पढने लिखने में बहुत होशियार और इंटेलिजेंट थी, उसका नाम गायत्री था, मुझे पहली मुलाकात में ही बड़ी अच्छी लगी.., उसने एक दिन मुझसे कहा की मुकेश तुम इस तरह यहाँ वहा भटकते रहते हो तुम्हे कुछ करना चाहिए, कुछ ऐसा जिससे समाज में तुम्हारा नाम हो, लोग तुम्हे जाने – पहचाने, ऐसा कुछ करो...! अब वो प्यार था या आकर्षण, ये तो पता नहीं.., पर बात उसने बड़े कमाल की बोली थी, जिसका असर मुझ पे हो चुका था..., अब मैं हर वक्त कुछ बड़ा करने के बारे में सोचने लगा, हम वापिस मुम्बई आ गए और में रोज की तरह दुकान पर काम करने लगा, पर मेरा मन अब दुकान पर नहीं लगता हमेसा पहचान केसे बने यही सोचता रहता...मेरा एक दोस्त था वो दुकान पर आया तो मेने उसे गायत्री द्रारा कही बात कही ..काफी देर सोचने के बाद दोस्त ने कहा मुकेश सच में तुम्हे वो सपने पूरे करने है.. तो उसका एक ही रास्ता वह है पढाई करना, क्योकि पढाई ही वो रास्ता है जो तुम्हे तुम्हारी मंजिल पर ले जायेगा और तुम्हे तुम्हरी पहचान मिलेगी.. अब जल्दी ही मुझे समझ आ गया कि ज़िन्दगी में आगे जाना है..., कुछ बड़ा करना है तो पढ़ाई पूरी करना बहुत ज़रूरी है । मैं कुछ मरठी स्कूलों में गया तो सब जगह एक ही जवाब मिला कि आपके पास कोई पुराना डॉक्यूमेंट नहीं है हम आपको किस आधार पर एडमिशन नहीं दे सकते...।

पर डॉक्यूमेंट तो सारे घर पे रखे थे और घर न जाने की तो कसम खाई थी.., पर बिना डॉक्यूमेंट के कुछ हो भी नहीं सकता था...., जिस दिन से डॉक्यूमेंट की बात निकली घर की याद भी कुछ ज्यादा ही आने लगी थी....,आखिर घर छोड़े हुये 8 - 9 साल भी तो हो चुके थे.....। इसी उधेड़ बुन के चलते एक दिन मैंने बाबूजी से कहा कि मैं घर जाना चाहता हूँ । बाबूजी समझ गए उन्होंने मिठाइयाँ, कपड़े और कुछ पैसे दिये और ट्रेन में बैठा दिया और कहा कि हो सके तो जल्दी वापिस आ जाना...मैंने देखा बोलते वक्त उनकी आँखें भर आयीं थी..., रो तो मैं भी रहा था, पर एक तरफ ख़ुशी भी थी कि इतने दिनों बाद घर जा रहा था.., अपने घर जा रहा था ।

बड़ी उमंग थी अन्दर से कि मैं अपनी माँ से मिलने वाला हूँ...,अपने भाई बहनों से मिलने वाला हूँ पर गाँव पहुँचा तो देखा घर पे ताला लगा है...,पड़ोस वाली बाई ने बताया कि तेरे जाने के बाद तो तेरी माँ जैसे पागल ही हो गयी थी...,तुझे कहाँ कहाँ नहीं ढूंढा उसने । सुनकर मैं रो पड़ा..., और उस दिन अहसास हुआ कि मैंने अनजाने में मेरी माँ को कितना दुःख पहुँचाया है ।           

खैर मैं अपने परिवार कि तलाश में नानी के यहाँ उज्जैन पहुँचा पर वो वहां भी नहीं थे, सुना कि भोपाल में किसी फैक्ट्री में काम करते हैं, मामा के साथ जा के देखा तो पता चला वहां से भी चले गए...आखिरकार थक कर हम लोग वापिस आ गए । एक दिन मैं छत पे सो रहा था तभी किसी ने मेरे सर पे हाथ फेरा..आँख खोली तो देखा वो माँ थी... माँ को देखते ही मैं लिपट गया और खूब रोया...और मुझसे भी ज्यादा मेरी माँ...तभी रोते रोते मेरी नज़र पीछे गयी जहाँ मेरे पिताजी भी मुझे डबडबाई आँखों से देख रहे थे.

मैं सोचकर तो ये आया था कि अपने डॉक्यूमेंट लेकर तुरंत लौट जाऊँगा लेकिन यहाँ आकर यहीं का होकर रह गया. तरह तरह के काम करने लगा, चाय की दुकान खोली - पान की दूकान खोली...वो भी नहीं चली तो भोपाल आकर में एक फैक्ट्री में चौकीदारी करने लगा....(भोपाल ग्लूस एंड केमिकल – जिंसी जहागीरबाद – भोपाल) पर इस सब के बीच 10th का प्राइवेट फार्म भी भर दिया...हालाँकि मैं पास नहीं हो सका पर फिर भी मैंने पढाई जारी रखी और दोबारा फ़ार्म भरा, दिन में चौकीदारी करता और रात में पढ़ाई और आख़िरकार मेरी मेहनत रंग लाई और मैं दसवीं चौथी बार में उत्तीर्ण हो गया...बड़ी ख़ुशी हुई .... सफलता का स्वाद पहली बार जो चखा था..., अब हर वक्त आगे की पढाई के बारे में सोचने लगा....इसी दौरान मेरी मुलाकात एक अमीर घर की लड़की अर्चना राठोर से हुई । किसी राजकुमारी की तरह बेहद खूबसूरत अर्चना से मैं बिना कुछ सोचे समझे ही प्यार कर बैठा..., और एक दिन इज़हार भी कर दिया, लेकिन प्यार के बीच में दीवार बन कर मेरी हैसियत आ खड़ी हुई । अर्चना ने मेरी बड़ी बेइज्ज़ती की, बहुत कुछ सुनाया...और जाते जाते बोल गयी कि “पहले मेरे लायक बनो फिर प्यार की सोचना, जाहिल कहीं के”...। अर्चना के द्वारा बोला गया एक एक शब्द मेरे दिल में तीर की तरह चुभ गया और मैंने भी ठान लिया कि अब चाहे कुछ भी हो जाये मैं बड़ा बन के ही दम लूँगा । अपने दिल की आग को दिशा दी और निकल पड़ा..., मजदूरी की, चौकीदारी की, फेक्टरियों में काम किया.., और वासवानी जी के यहाँ लोडिंग ऑटो की ड्राइविंग करने लगा जिस से मुझे पढाई के लिए थोड़ा बहुत समय भी बचने लगा और पैसे भी अच्छे मिलते...छोटे भाई गोविन्द को भी बुला लिया और वो भी पढाई करने लगा ...,एक बार फिर मेरी मेहनत रंग लाई और मैं बारहवीं भी पास हो गया...मैं बहुत खुश था । फिर क्या था जल्द ही बी.कॉम फर्स्ट इयर में भी प्राइवेट फ़ार्म भर दिया और पढ़ाई करने लगा ।

एक दिन वासवानी जी ने मुझे कुछ डॉक्यूमेंट दिये और कहा कि उन्हें सी.ए. मनोज खरे जी तक पंहुचा दूँ , जब मैं उनके ऑफिस पहुँचा तो देखा एक व्यक्ति बड़े से केविन में बैठा है, 10-15 लोग काम कर रहे हैं, वो इतना तेज़ है कि सबको कुछ न कुछ काम दे रहा है.., बड़े बड़े लोग मिलने आ रहे हैं, इंतज़ार कर रहे हैं...., ये मेरी किसी सीए से पहली मुलाकात थी

पर उस मुलाक़ात के बाद अन्दर एक से आवाज आई कि बॉस, अब करना तो यही है..., पैसा, रुतवा, शोहरत..., सब कुछ तो था इस सीए की पढाई में, जो मैं हमेशा से चाहता था । बस फिर क्या था मैं चल पड़ा अपने नए सपने के साथ..., बी.कॉम सेकंड इयर किया..., और थर्ड इयर के लिए चित्रांश कॉलेज में नियमित विद्यार्थी के रूप में प्रवेश ले लिया, इतने दिनों में मेरा परिवार भी मेरे साथ ही रहने भोपाल आ गया, और मैंने पुराना काम छोड़कर सुभाष जैन जी के यहाँ ड्राइविंग शुरू कर दी, जिस से मुझे पढाई के लिए और भी ज्यादा समय मिलने लगा...और पैसे भी, मैं खुश था । एक दिन मुझे अर्चना कि बहुत याद आ रही थी, सोचा आज मिलके नहीं तो कम से कम देख के तो आ ही जाता हूँ...पर जब उसके घर पहुँचा तो पता चला कि उसकी तो शादी भी हो चुकी थी सुनकर जबरदस्त धक्का लगा..., आँखें सुन्न हो गयीं, धड़कन ठहरने लगी...लगा कि जैसे दुनिया ही सिमट गयी... पर जैसे तैसे खुद को संभाल लिया, आगे पता चला कि वो लोग एम पी नगर में रहने लगे हैं.., अर्चना की अपने पति से बनती नहीं है तो वो भी घर वापिस आ गयी है....अब तो जैसे मैं अर्चना से मिलने को तड़प उठा, एम पी नगर पहुँचा तो देखा कि वो उसने ट्यूशन खोल रखी है और बच्चों को पढ़ा रही है...मैं कुछ देर तक उसे ऐसे ही उसे देखता रहा...5-6 साल बाद जो देख रहा था...., अचानक अर्चना की नज़र मुझ पे गयी और मुझे बुलाकर पूछा, ‘कुछ काम है आपको’ ? मैं बस मुस्कुरा दिया...., उसने थोड़ी देर मुझे देखा और कहा ‘तुम मुकेश हो न’ ? मैंने कहा ‘हाँ मैं मुकेश हूँ, शुक्र है पहचान तो लिया’..., हँसते हुये बोली ‘तुम्हे कैसे भूल सकती हूँ.., तुम बैठो मैं अभी छुट्टी कर के आई’...., उसके आने के बाद मैंने उसे अपने बारे में सब बताया और कहा कि बी.कॉम थर्ड इयर में हूँ अब सी ए करना चाहता हूँ...वो ख़ुश होते हुये बोली ये तो बहुत अच्छी बात है....पर जब मैंने उसके बारे में पूछा तो उसका दर्द चेहरे पर उभर आया...छलकती हुयी आँखों से उसने बताया कि शादी के कुछ दिन बाद ही पति के साथ झगडे शुरू हो गए थे जो बाद में बढ़ते ही गये..और अब तलाक का इंतज़ार कर रही हूँ..., ज़िन्दगी बोझ बन चुकी है, जिसे जिंदा लाश बनकर ढो रही हूँ...कहते हुये वो रो पड़ी.... थोड़ी देर की ख़ामोशी के बाद मैंने कहा – ‘अर्चना मैं..,तुमसे शादी करना चाहता हूँ....., अगर तुम इज़ाज़त दो तो’...

सुनकर वो तो इक दम चौंक पड़ी.., ‘ये क्या कह रहे हो.. ? ये कैसे हो सकता है’.. ? मैंने कहा ‘क्यूँ नहीं हो सकता... मैं तुम्हें तुम्हारी हर परिस्थति के साथ अपनाना चाहता हूँ और ये कोई तरस खाकर नहीं कह रहा हूँ बल्कि उसी वक्त से तुम्हे प्यार करता हूँ जब मैंने पहली बार तुम्हे देखा था.., आज जब ज़िन्दगी मुझे ये मौका दे ..,रही है कि मैं अपने प्यार को पा सकूँ तो प्लीज मना मन मत करना’...., वो चुप थी पर जवाब उसकी आँखें दे रही थीं... उसके निकलते हुये आंसू जैसे कर रहे थे कि मैंने तुम्हे पहचानने में, तुम्हारे प्यार को पहचाने में इतनी देर कैसे कर दी.., आज पता चला कि कोई मुझे इस हद तक भी प्यार कर सकता है..... मैंने जैसे ही उसके आंसू पोंछने के लिए हाथ लगाया...,वो मुझसे लिपट गयी..., उस वक्त इस पूरी कायनात में अगर सबसे खुबसूरत कोई लम्हा था, तो वो यही था । 

जाते जाते मैंने कहा मेरा इंतज़ार करना मैं जल्द ही आऊंगा..., उसने कहा कोशिश करुँगी । अब मेरे सामने दो चुनौतियां थीं, एक तो जल्दी पढ़ाई खत्म करके सीए की तयारी करना और दूसरा जल्दी से कोई अच्छी सी नौकरी ढूढ़ना जिससे अपना घर बसा पाऊं । मैं कभी कभी कॉलेज भी चला जाता जहाँ कुछ लड़कों से दोस्ती भी हो गयी और हमारा ग्रुप भी बन गया, हम सबने एग्जाम दिया और पास हो गये ।

बी.कॉम. के बाद ज्यादातर लड़के अलग अलग क्षेत्र में चले गये, सिर्फ मैं और मेरा दोस्त प्रमेश ही थे जो सीए करना चाहते थे, प्रमेश मुझसे हर बात में आगे था, पढ़ाई में भी इंटेलिजेंट और आर्थिक रूप से भी सक्षम, वो मेरी हर तरह से मदद करता, हमने फॉर्म भरा और ज्वाइन कर लिया । इस दौरान मेरा छोटा भाई भी आर्मी के लिए सेलेक्ट हो गया और ट्रेनिंग पे चला गया ।           

अब हमें आर्टिकलसिप ज्वाइन करनी थी, जिसके लिये हम कई ‘सी ऐ फर्म्स’ में गये, पर ज्वाइन किया सी ऐ जैन साहब के यहाँ । तैयारी की, एग्जाम दिया, पर फर्स्ट एटेम्पट में बुरी तरह फ़ैल हो गये । सेकेण्ड एटेम्पट के लिये हमने आर्टिकलसिप से टर्मिनेशन ले लिया..., हमने फिर तैयारी की, एग्जाम दिया और सेकंड एटेम्पट में भी फ़ैल हो गये....प्रमेश तो जैसे मायूस हो चूका था और उसने छोड़ने का मन बना लिया, पर मैं खुश था, क्यूंकि दोनों बार मेरे नंबर प्रमेश के बराबर ही आये थे, जो मेरे लिये बड़ी बात थी । फिर से तैयारी की और तीसरा एटेम्पट दिया पर एक बार फिर फ़ैल हो गये, अब प्रमेश हतास हो चूका था और उसने फैसला सुना दिया कि वो सीए छोड़ रहा है, मैंने बहुत समझाया पर वो नहीं माना उल्टा मुझे भी न करने की सलाह देने लगा, मैंने कहा ‘दोस्त हमने ये यात्रा साथ शुरू की थी पर अब मैं मैदान नहीं छोडूंगा, सीए तो बन के रहूँगा’.., ‘पछताओगे तुम..’ बोलकर प्रमेश चला गया, मुझे उसके जाने का बड़ा दुःख हुआ । मैं तो जैसे अकेला पड़ गया था, सोचा अर्चना से मिलकर आता हूँ, अर्चना को सब बताया उसने कहा कोई बात नहीं अगली बार कोशिश करना सब अच्छा होगा, और साथ ही उसने मुझे आगाह भी किया कि अगर तुम मुझे ले जाना चाहते हो तो जल्दी करो क्यूंकि वो यहाँ आते हैं और बहुत झगडा करते हैं, ऐसा न हो कि मैं तुमसे बहुत दूर हो जाऊं, मैंने उसे निश्चिन्त किया और चला आया और ठान लिया कि अब एटेम्पट क्लियर कर के ही अर्चना से मिलूँगा । फिर तैयारी में लग गया, इस बार तो दोस्त भी नहीं था, सब कुछ अकेले ही करना था..., चौथा एटेम्पट दिया पर बदकिस्मती से फिर फ़ैल हो गया....

इस बार मैंने अपना आत्मनिरीक्षण किया और असफलता के कारणों का पता लगाया, मुझे समझ आया कि मेरी सबसे बड़ी गलती, आर्टिकलसिप छोड़ना थी, क्यूंकि थ्योरी से ज्यादा हमेशा प्रैक्टिकल सिखाता है, यही सोचते हुये मैंने फिर से आर्टिकलसिप ज्वाइन करने की सोची, मैं सी ऐ अग्रवाल सर के यहाँ, आर्टिकल शुरु कर दी , मैं जैसा माहौल चाहता था मुझे वैसा ही मिल गया था.., अब मैं ख़ुशी ख़ुशी पांचवे एटेम्पट की तैयारी करने लगा, इस बार एक ही ग्रुप के लिए एटेम्पट दिया लेकिन पास होने के 12 नंबरों फिर कमी पड़ गयी...फिर फ़ैल हो गया...इस बार तो जैसे मेरी हिम्मत भी जवाब देने लगी और मुझे भी लगा की शायद प्रमेश सही था, मैं कभी सी ए नहीं बन पाऊंगा.... 

जब आप इस तरह के नकारात्मक दौर से गुज़र रहे होते हैं तो ऐसे में सबसे ज्यादा ज़रूरत एक मार्गदर्शक की होती है और मैं खुशकिस्मत था कि अग्रवाल सर मेरे साथ थे, उन्होंने मुझे समझाया, और कहा सबसे पहले ग्रुप का सही चुनाव करो..... तभी अर्चना का कॉल आया, रिजल्ट के बारे में पूछा, जानने के बाद वो ख़ामोश रही... फ़ोन रखने से पहले बस उसने इतना कहा कि ‘अपना ख़याल रखना... और मुझे माफ़ कर देना....’

अगले दिन अखबार में उसकी फोटो थी..., उसने पारिवारिक कलह से तंग आकर फांसी लगा ली थी...। आखिरी बार उसे फोटो में देखा, मेरे पहुचने से पहले ही उसकी अर्थी जा चुकी थी.....मेरे अन्दर से आंसुओं का सैलाव उमड़ पड़ा, जो बार बार एक ही सवाल पूछ रहा था कि, ‘काश..., तुमने थोड़ा इंतज़ार और कर लिया होता’.... 

इस घटना ने मुझे बुरी तरह तोड़ डाला, सीऐ की पढ़ाई से भी अब नफ़रत सी होने लगी थी..., इस पढ़ाई ने तो जैसे मेरा सबकुछ छीन लिया था, मन बार बार कहता, जिसके लिये ये सबकुछ कर रहा था, वो ही नहीं तो क्यूँ करूँ ...?? कई दिनों तक मैं इस अवसाद से निकल नहीं पाया..., पर किसी के चले जाने से अगर ज़िन्दगी रुक जाती, तो उसे ज़िन्दगी कहाँ कहते....., मैं फिर लौटा, छटवीं बार एग्जाम दिया पर फिर फ़ैल हो गया । अब तो जैसे जीने की चाह भी नहीं रही, ख़ामोश रहने लगा... ज्यादातर समय खुद को कमरे में बंद रखता..,किसी से मिलता जुलता भी नहीं था । पर ज़िन्दगी के इस कठिन दौर में फ़रिश्ता बन कर आई एक दोस्त ‘श्यामला’... जो एक साइंटिस्ट की बेटी थी और मेरी बहन की दोस्त भी....मेरी बहन ने उसे सब कुछ बता दिया था... वो एक दिन मेरे पास आई और...औपचारिक हेल्लो हाय के बाद बोली कि ‘देखो जो चला जाता है उसे तो हम वापिस नहीं ला सकते है पर उसने जो उम्मीदें हमसे की थी, जो सपने हमारे साथ देखे थे, उन्हें तो हम पूरा कर ही सकते हैं.., जिससे वो जहाँ भी रहे खुश रहे’.....इस तरह से उसने मुझे बहुत कुछ समझाया... उसकी इन बातों ने मेरे ज़ख्मो पे मरहम की तरह असर किया...कुछ मोटिवेशनल किताबें भी दीं...जिन्हें पढ़कर मुझमे फिर ज़िन्दगी लौट आयी... और एक दिन मुझे पता चल गया कि उसकी सगाई हो चुकी है, और जल्द ही शादी भी होने वाली है..., वो फिर अकेलापन मेरी जिन्दगी में वापिस आ गया ..पर उसने मेरी मदद उस समय पढाई में की जब मुझे सच में चाहिए थी ..में उसका यहाँ बहुत बहुत धन्यवाद देना चाहूँगा ।

अब मुझे चिंता थी मेरे सातवें एटेम्पट के क्यूंकि ये मेरा आखिरी एटेम्पट होने वाला था, दूसरी तरफ घर वालों का दबाव भी बढ़ता जा रहा था शादी के लिए..., जिसकी दो वजहें थीं, एक तो मेरी उम्र बढ़ रही थी और दूसरा मेरी बहन की शादी भी करनी थी, मेरी शादी में जो पैसा मिलता उससे बहन की शादी होनी थी.., मैंने बहुत समझाया कि मेरा एक ही सपना है मुझे सीए करना है पर घर वालों को तो अब जैसे यकीं ही नहीं रह गया था... इसी बीच मेरे लिये एक रिश्ता आया जो एक प्रतिष्ठित परिवार की ओर से था, मेरे लाख मना करने के बाद भी उन्होंने मेरी एक न सुनी, मैंने बहुत प्रयत्न किये पर अंत में मेरी सगाई हो ही गयी, सगाई से शादी के बीच एक वर्ष का समय था..., मैंने सातवां एटेम्पट दिया और रिजल्ट का वेट करने लगा, जिस दिन रिजल्ट आया मैंने देखा भी नहीं क्यूंकि मन में डर था कि मैं फिर फ़ैल हो गया होऊंगा, रिजल्ट मेरे सर ने देखकर बताया और मुझे पता चला मैं पास हो गया..., ये सीए के सफ़र में मेरी पहली सफलता थी..., मुझे तो यकीं भी नहीं हो रहा था..,मैं बहुत खुश हुआ ।

अब मेरी आर्टिकलसिप भी खत्म हो चुकी थी मेरे पास जॉब का ऑफर था पर मैं जॉब नहीं करना चाहता था मैंने सर को कहा मैं जॉब नहीं करना चाहता बल्कि आपके साथ काम करना चाहता हूँ, सर मान गये और मुझे असाइनमेंट के आधार पर पैसा भी मिलने लगा, इसी दौरान मुझे याद आया कि अगले ग्रुप का पेपर देना है तो मैंने प्लानिंग की और काम के साथ साथ तैयारी में जुट गया, पेपर दिया और उम्मीद के अनुरूप परिणाम भी आ गया । मैं पास तो नहीं हुआ पर मुझे examption मिल गयी... इस सब दौरान स्मृति से मेरी दो या तीन बार ही बात हुई होगी..., ये परीक्षा त्याग मांगती है और मैं वो त्याग कर रहा था.., मुझे याद भी नहीं रहा कि पिछली बार कब मैंने कोई बड़ा त्यौहार मनाया था..., उधर शादी के लिए माँगा गया समय भी समाप्त हो चूका था..., मेरे और स्मृति के घर वाले दबाव बनाने लगे मैंने कहा भी कि मुझे 1 वर्ष का समय और दे दो पर वो लोग नहीं माने और अंततः मई में पेपर के बाद शादी की डेट तय कर दी गयी, मैंने पेपर दिया और शादी की तैयारियां करने लगा..., योजना के अनुसार पहले हमने बहन को विदा किया और फिर स्मृति घर आई ।

वैवाहिक ज़िन्दगी शुरू हो चुकी थी, अब घर खर्च कमाने का दायित्व भी बढ़ गया था, तो मैंने अपने घर में ही एक छोटा सा ऑफिस भी बना लिया, और पढ़ाई के साथ साथ काम भी करने लगा। मेरा परिणाम आया, पेपर नहीं निकला... अब तो पढ़ाई का और भी दबाव आ गया साथ ही काम भी बढ़ रहा था तो मैंने स्मृति को उसके घर भेजने का निर्णय लिया, नई नई शादी के बाद कौन से पत्नी अपने पति को छोड़ के जाना चाहेगी, लेकिन स्मृति ने मेरी स्थिति को समझते हुये मेरा पूरा साथ दिया और कुछ दिनों के लिए चली गयी ।

एक दिन मेरे एक क्लाइंट ने मुझे एक दुकानदार से मिलवाया जिसके सारे डॉक्यूमेंट आग में जल कर नष्ट हो गये थे, मैंने उनकी समस्या समझी और काम करने के लिए हामी भी भर दी लेकिन परीक्षा के बाद, वे मान गये....अब मैं पढाई के साथ साथ इस काम की तैयारी में भी लग गया, इससे सम्बंधित किताबें पड़ी, दोस्तों से सलाह ली, जिन चीजों के ज़रूरत पढने वाली थी उनके बारे में समझा....इस सारी प्रक्रिया में इतना तो समझ आ गया कि ये काम आसान नहीं है और मुझ अकेले से होगा भी नहीं.., पर मैं हर हाल में इस काम को करना चाहता था.., मुझे ज़रूरत थी एक ऐसे साथी की जो काबिल भी हो और समझदार भी । इसी दौरान मेरे भाई गोविन्द की शादी भी आ गयी और मैं उसकी तैयारियों में लग गया.., एक दिन कार्ड देने के लिए मैं हमारे एक परिचित अकाउंटेंट के पास गया जहाँ मेरी मुलाक़ात माया जी से हुई, माया जी भी मेरी तरह ही सीए कर रहीं थीं..., पहली मुलाकात में ही मुझे लगा कि अपने ऑफिस के लिये मैं जिस पार्टनर को ढूंढ रहा हूँ ये वही हैं..., पर उस वक्त मैंने उनसे ये बात कहना ठीक नहीं समझा और चला आया, बाद मैं किताबों के बहाने हमारी दोस्ती भी हो गयी और हम अक्सर मिलने लगे । मैं अब पूरी मेहनत के साथ अपनी PE-2 की तैयारी में जुट गया, परीक्षा दी और परिणाम का इंतज़ार करने लगा.., परिणाम आया और सुनते ही मैं उछल पड़ा, पास हो गया था और फाइनल में आ चूका था ।

अब मुझे उस दुकानदार की याद आई जिसका काम करने का वादा किया था, मैंने माया जी से संपर्क किया उन्हें अपने प्रपोजल के बारे में बताया.., वो भी कुछ ऐसा ही चाह रही थीं और ख़ुशी से मान गयीं.., हमने सारी बातें तय कीं और कुछ ही दिनों बाद हम पार्टनर बन चुके थे । उनके साथ हमारे एक और साथी मनोज जी भी आ गये ।

मैं दुकानदार जी से मिला और काम की फीस के बारे में बातचीत करके काम शुरू कर दिया.., अब इस कार्य को करने के लिए एक ऑफिस की ज़रूरत थी हमने दुकानदार साहब को इस बारे में बताया तो उन्होंने हमें अपनी दुकान से लगा हुआ एक कमरा दे दिया, जिसे हमने अपना ऑफिस बनाया और काम में लग गये.., उसी वक्त अग्रवाल सर ने एक बहुत बड़ा ऑडिट का काम भी दे दिया हम दोनों ने मिलकर वो भी बहुत कम समय में निपटा लिया...हमें मुनाफा तो हो ही रहा था साथ ही हमारी योग्यता भी बढ़ रही थी । माया जी भी मेरी तरह ही ऊर्जावान और काम को महत्व देने वालीं थीं उनके साथ काम करके मैं बहुत खुश था...इस प्रकार हम काम में ऐसे डूबे कि पता ही नहीं चला कि कब फाइनल की परीक्षा की तारीख नज़दीक आ गयी, तो हमने 15 दिन की छुट्टियाँ लीं और जुट गये.., मैं फाइनल का द्वितीय ग्रुप देना चाहता था, माया जी प्रथम ग्रुप और मनोज जी दोनों ग्रुप..., जल्द्वाजी में नोट्स बनाए, एग्जाम दिया और फिर काम में जुट गये....पर रिजल्ट आया तो हम तीनो ही फ़ैल हो गये थे.., पर अच्छा ये हुआ कि मेरा एक पेपर exampt हो गया था और मैं अगली 3 साल तक परीक्षा दे सकता था ।

इस बार हमने निश्चय किया कि हम ग्रुप स्टडी करेंगे जिसके लिए हमने अलग से एक कमरा लिया और वहीँ जाकर पढाई करने लगे ।

कुछ दिनों बाद मुझे पता चला कि स्मृति प्रेग्नेंट है, सुनकर मुझे ख़ुशी तो बहुत हुयी पर उस ख़ुशी को भी ठीक से व्यक्त नहीं कर पाया और मैंने उससे कहा कि वो मायके चली जाये क्यूंकि इस हालत में उसे अधिक देखभाल की ज़रूरत होगी...कितनी अजीब बात थी, जिस वक्तमेरी पत्नी को मेरी सबसे ज्यादा ज़रूरत थी मैं उसे मायके जाने का बोल रहा था..,पर मैं क्या करता मेरा लक्ष्य मुझसे त्याग मांग रहा था, जो न चाहते हुये भी मुझे करना पड़ रहा था । खैर स्मृति चली गयी और मेरी परीक्षा के ठीक एक महीने पहले मेरी माँ को फ़ोन आया कि वो दादी बन गयी है और मैं पापा....सुनकर मन तो किया कि अभी उड़कर अपनी पत्नी, अपने बेटे के पास पहुँच जाऊं पर, फिर एक बार अपने कदम रोक लिये...सोचा एग्जाम के बाद देखने जाऊंगा... ।

एग्जाम हो गया फिर में अपने बेटे से और स्मृति से मिला, और हम रिजल्ट का इंतज़ार करने लगे, इस दौरान हमारे पास कुछ और बड़े काम आये और हम उनमे व्यस्त हो गये, हमने अपना ऑफिस खुद का ऑफिस भी किराये पर ले लिया, क्यूंकि कब तक दूसरे के ऑफिस में काम चलाते...., कुछ दिन बाद रिजल्ट आया पर इस बार खुशखबरी लिए हुये.., हम दोनों के ही ग्रुप्स निकल गये थे । अब फाइनल के आखिरी ग्रुप की तैयारी करनी थी इधर ऑफिस में काम भी बढ़ रहा था, और हम किसी भी काम को न नहीं बोलते थे...,तो काम की वजह से पढ़ाई पर उतना फोकस नहीं कर पाए और पहले प्रयास में हमारा पूरा ग्रुप फ़ैल हो गया..., हमने दूसरा प्रयास किया, इस बार मनोज जी सीए बन गये थे..., और हम दोनों फिर रह गये । काम और पढ़ाई के बीच फिर हमने सामंजस्य बिठाया और तीसरा प्रयास किया इस बार परिणाम मिला जुला था...हम दोनों में से एक फैल हुआ था और सीए बनने वालीं माया जी थी ..., मैं फिर रह गया था....माया जी के सीए बन जाने से हमें एक फायदा तो हो गया था कि अब ऑडिट पर सिग्नेचर कराने किसी और के पास नहीं जाना पड़ता था...., पर मेरा ग्रुप न निकलने की वजह से मैं चिड़चिड़ा हो रहा था.., अब हम दोनों में झगड़े भी होने लगे.., इसी बीच मैंने चौथा प्रयास किया और इस बार भी फ़ैल हो गया..., अब तो जैसे मैं बिखरने लगा था, छोटी छोटी बातो पे झगड़े करने लगा..., अब माया जी के साथ पहले वाला दोस्ताना रवैया भी नहीं रहा, क्यूंकि वो अब एक सीए थीं और मैं एक नॉन-सीए..., झगड़े यहाँ तक बढे की पार्टनरशिप टूटने तक की नौबत आ गयी, पर हमारे क्लाइंट हम दोनों के साथ ही काम करना पसंद करते थे इसलिये हमने उन्हें कभी इस बात का अहसास नहीं होने दिया..., पर जैसे तैसे मैंने खुद को शांत किया, माया जी ने भी समझाया.., और मैं पूरी तन्मयता के साथ अपने पाँचवें प्रयास की तैयारी में लग गया, इस बार मैं हर हाल में ग्रुप निकालना चाहता था इसलिये मैंने पत्नी और बेटे को भी जबलपुर भेज दिया ये कहकर कि बस, ये आखिरी बार है । इस बार मैं पागलों की तरह सिर्फ पढ़ाई पे ही ध्यान दे रहा था..., माया जी ने भी पूरा साथ दिया इस दौरान ऑफिस की पूरी जिम्मेदारी अकेले ही उठाई... पर परीक्षा से 10 -15 पहले एक घटना घटी, मेरे पिताजी को अचानक हॉस्पिटल में भर्ती करना पड़ा जहाँ उनका ऑपरेशन होना था.., माँ ने मुझे बताया पर मैं चुप था...ये शायद सीए की परीक्षा से पहले ..मेरी ये आखिरी परीक्षा थी, जहाँ मुझे मेरी तैयारी या मेरे पिता में से किसी एक को चुनना था... मैंने खुद को पत्थर बनाया और माँ को मना कर दिया...। उधर अस्पताल में मेरे पिता जी का ऑपरेशन चल्र रहा था और इधर मैं अपने पांचवे प्रयास की तैयारी कर रहा था..., लोग तरह तरह की बातें कर रहे थे, आलोचनाएँ कर रहे थे..., लेकिन पत्थरों पे आलोचनाओं का प्रभाव नहीं पड़ा करता... एग्जाम दिया और एग्जाम ख़त्म होते ही सबसे पहले पिताजी के पास पहुँचा, देख कर मेरे तो आंसू निकल पड़े..., पर वो शांत रहे ।

वापिस ऑफिस आके काम में लग गया अब हमारे बीच झगड़े नहीं थे.., खुश होकर दोनों काम करने लगे थे...और फिर रिजल्ट वाला दिन आ ही गया...,रिजल्ट सुबह 8 बजे आ चूका था, और करीबन 9:30 पे मेरे पास मेरे दोस्त एस.एस. तोमर का फ़ोन आया .., वो फ़ैल हो गया था .., मुझसे मेरा रोल नंबर माँगा..., रोल नंबर लेने के बाद उसका कोई कॉल नहीं आया...., मैं समझ गया कि इस बार भी मैं फिर रह गया हूँ..., मैं चुपचाप घर से निकल गया.., पलकों के कोने से आंसू एक एक कर टपक रहे थे..., मैं अपने सपने को ही धिक्कारने लगा..., इस सीए की पढ़ाई ने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा..., मेरी अर्चना मुझसे बिछड़ गयी...,जब उसे मेरे सबसे ज्यादा ज़रूरत थी उसका साथ नहीं दे पाया.., मेरे बेटे को पिता का प्यार तक ठीक से नहीं दे पाया .,, अपने पिता का सहारा नहीं बन पाया....इन्ही ख्यालों में चलते चलते एक मंदिर आया वहां जाकर भगवान से खूब बहस करी खूब कोसा...और एक घंटे पहले ही ऑफिस पहुँच गया । माया जी आयीं और आते ही उन्होंने मुझसे पूछा ‘मुकेश क्या हुआ रिजल्ट का ?’ मैंने कहा ‘नहीं हुआ’....वो भी सन्न रह गयीं...थोड़ी देर बाद उन्होंने कहा अपना रोल नंबर बताओ..., मैं चुप रहा.., उन्होंने फिर कहा अपना रोल नंबर बताओ...सुनकर मैं झल्ला उठा और एक कागज़ पर नंबर लिख कर उनकी टेबल पे पटकते हुये बडबडाने लगा... ‘तुम्हे तो बहुत मज़ा आता है न जले पर नमक छिडकने में.., मुझे ज़लील करने में.., बता तो दिया कि नहीं हुआ...फिर क्यूँ बार बार पूछ रही हो.., नहीं बन सकता मैं सीए’....मैं बडबडाये जा रहा था और वो मुझे चुपचाप देखे जा रही थीं जैसे ही मैं थोड़ा सा शांत हुआ..., उन्होंने मुस्कुराते हुये मुझसे कहा “मुकेश.., तुम सी.ए. बन चुके हो”...। और बोल कर कंप्यूटर कि स्क्रीन मेरी तरफ घुमा दी...... मैं एकदम से चुप हो गया, मानो सांप सूंघ गया हो। फिर जैसे ही कम्प्यूटर की स्की्रन पर देखा तो लिखा था- पास! फिर नम्बरों को देखते हुये नाम पर पहुॅंचा तो पाया कि मेरा ही नाम लिखा था! ‘‘अरे! अरे! यह क्या हो गया? मैं तो सच में पास हो गया... और सी.ए. भी बन गया!’’ मैं ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा। आखिरकार मुझे मंज़िल मिल ही गई...! मेरी आॅंखोें में खुषी के आंॅसू थे। मैंने माॅं को फोन पर बताया कि सी.ए. बन गया हूॅं... माॅ भी खुषी के मारे रोने लगी। स्मृति और बेटे को भी बताया... सभी ने अपने-अपने तरीके से खुषी प्रकट की... सभी बहुत खुष हुये। मुझसे तो कुछ कहते ही नहीं बन रहा था। जब खुषी की अधिकता होती है तो ऐसा ही होता है।

  उस दिन मैंने ऑफिस में कोई काम नहीं किया। दोस्तों को फोन लगाया। कुछ तो फोन बंद करके बैठे थे। एस.एस. तोमर को (जिसे सुबह रोल नंबर दिया था रिज़ल्ट देखने के लिए) फोन लगाया और खूब सुनाया कि तुम पहले बता देते तो कितना अच्छा लगता! उसने कहा, ‘‘खुषी लेट मिलेगी तो ज़्यादा मजा आयेगा यह सोचकर नहीं बताया... अच्छा छोड़ो, यह बताओ कि पार्टी कब दे रहे हो सी.ए. बनने की?’’ मैंने हॅंसते हुये कहा, ‘‘पार्टी की जगह जूते मिलेंगे...।’’ वहाॅं से आवाज़ आई, ‘‘जूते नये होने चाहिए...।’’ मैंने हॅंसते हुये फोन रख दिया..........। मेरी ज़िन्दगी का सबसे बड़ा सपना सच हो चुका था....मैं सीए बन चूका था ।

यहा मेरा एक सपना पूरा हुआ जो मैंने सन् 2000 में बनाया था सन् 2010 में पूरा हुआ।


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